तीनों भुवनों में यह नमस्कारमन्त्र परम रहस्य है, परम मन्त्र है, सो अधिक पढ़ने और पुस्तकभार उठाने से क्या लाभ है। अर्थात् केवल णमोकार मन्त्र से ही सर्व सिद्धि हो जाती है।
इति पंचबीजानि।
णमो अरहंताणां। णमों सिद्धाणं। णमो आइरियाणां। णमो उवज्झायणां। णमो लोए सव्वसाहूणां।
अपराजितमन्त्रोऽयम्।
इस अपराजितमंत्र के द्वारा दर्शन, ज्ञान और चारित्र का पालन करते हुए इस संसार में जो कोई योगिजन आत्यन्तिक श्री को प्राप्त हुए हैं, वे सभी इसी मंत्र के समाराधन और प्रभाव से हुए हैं। इस अपराजितमंत्र का सम्पूर्ण रूप से प्रभाव वर्णन करना योगियों के लिए भी असम्भव ही है।
इस अपराजित मन्त्र के विषय में जो अनभिज्ञा (अजान) व्यक्ति कुछ बोलने (माहात्म्यख्यापन करने) का साहस करता है, मानो वह बातरोग से पीडित है। संसार में पाप के पंक में लिप्त मनुष्य इसी से विशुद्धि को प्राप्त करते हैं।
प्रशस्त मन वाले विद्वान् इसी मन्त्र से संसार के बन्ध से मुक्ति को प्राप्त करते हैं। यही इस संसार में मुक्तिमार्ग का सखा है।
इसको छोड़के प्राणियों के लिए अन्य कोई कृपाकर नहीं है। संसार-सागर में डूबते हुए हों या व्यसन के पाताल-विवर में प्रवेश करते हुए हों, इसी मन्त्रराज के द्वारासभी का उद्धार हो जाता है और वे कल्याण-मार्ग पर इसी से स्थित होते हैं। मुनि को इसकी 108 जाप्य त्रिशुद्धि (मन,वचन,काय) से करनी चाहिए।
संसार भर में उन्नत, मन्त्र पद से उत्पन्न इस श्रेष्ठ महाविद्या को स्मरण करने वाला भोजन करता हुआ भी इस मन्त्र के जाप्य से आंशिक फल को प्राप्त कर लेता है। इसी में पांचों गुरू (पंचपरमेष्ठी) समाये हुए हैं, यह सोलह अक्षरों से युक्त है। भगवान अर्हन्त, सिद्ध, उपाध्याय और सभी साधुओं को नमस्कार है।
ध्यान करने वाले को इसका दो सौ बार जाप्य से ध्यान करना चाहिए। ऐसा विधिपूर्वक जाप्य करने वाला बिना इच्छा रखते हुए भी (मन्त्र की अमोघवीर्यता के कारण) एक उपवास का फल तो प्राप्त करता ही है।
षड्वर्ग से उत्पन्न हुई, अजेय और पुण्यशालिनी इस विद्या का तीन सौ जाप्य करने से ध्यान करने वाला पूर्वोत्क (एकोपवास) फल को प्राप्त करता है।
भगवान् अर्हंन्त, सिद्ध, उपाध्याय और साधु रूप चतुर्वर्ण यह मंत्र चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का फल प्रदान करने वाला है। इसका चार सौ संख्याप्रमाण जाप्य करने से योगी (भव्यजन) मोक्ष-फल को प्राप्त करता है।
अर्हन्त भगवान् के अ-वर्ण के सहस्त्रवें भाग का आधा भी आनन्दयुक्त मन से जो जाप्य करता है, वह एकोपवास की निर्जरा को पाता है।
इस पंचवर्णमयी और पंचतत्वों से उपलक्षित विद्या का वीर मुनियों ने श्रुत के स्कन्धों से बीज के समान मानकर उद्धार किया है।
असिआउसा नमः।
असिआउसा नमः। शास्त्र में इसे सभी इच्छाओं का पूर्ण करने बाला कहा है। और इसके फल के रूप में स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का बखान किया है।