फिर भी सच्ची दुखी जनता भी इस समय काफी है। इस भयानक कलियुग में दुखी जनता में ५ बातें साथ-साथ दिखाई दे रही हैं-
अर्थात्-दरिद्रता के साथ ही पाँच विपतियाँ मनुष्य के ऊपर और आ टूटती हैं-(१) ऋण (कर्जा) अपने परिवार के पालन पोषण, वस्त्र आदि के लिये गरीबों को कर्जदार तो बनना ही पड़ता है। (२) दुर्भाग्य-गरीब मनुष्य दरिद्र दुर्भाग्य के कारण तो होता ही किंतु फिर भी उसको कुछ सहायता दी जाती है तो दुर्भाग्य उससे भी अनेक विघ्न खड़े कर देता है। (३) आलस्य-दरिद्रता के साथ आलस्य भी अवश्य आता है, यदि आलस्य न हो तो दरिद्रता रहे कैसे? उद्योगी कार्य न रहने से दरिद्रता और अधिक पनपती है। (४) भूख-दरिद्र व्यक्ति पेट भर भोजन न मिलने से प्रायः भूखा रहता है, इसके सिवाय गरीबी के समय, भूख सर्व साधारण जनता की अपेक्षा और अधिक भी लगती है। (५) संतान की अधिकता-दरिद्र मनुष्य को जब अपनी ही पेट भरना कठिन होता है तब दुर्भाग्य से उसके बाल बच्चे भी अधिक उत्पन्न होते हैं जिससे कि उसकी दरिद्रता में और भी अधिक वृद्धि होती जाती है। सारांश यह है कि दुखी मनुष्य का दुःख बढ़ाने के लिये और भी अनेक साधन अपने आप आकर जुड़ जाते हैं।
अनेक स्त्रियां अनेक पुत्र-पुत्रियों के रहते गरीबी की दशा में विधवा हो जाती हैं, अनेक गरीब लड़के लड़कियाँ माता-पिता के मर जाने से अनाथ हो जाते हैं, अनेक व्यक्ति किसी रोग या दुर्घटना के कारण निकम्मे बन कर परमुखापेक्षी बन जाते हैं। अनेक स्त्रियों को उनके पति कुरूपता या बांझ होने के कारण निराश्रित छोड़ देते हैं, बहुत से बच्चों को सौतेली मां घर में नहीं रहने देती। इस तरह आज कल संसार में अनेक तरह के कष्ट स्त्री पुरुषों पर आ रहे हैं।
आये हुए दुःखों से छुटकारा पाने के लिये बहुत से अपना धर्म कर्म छोड़ कर धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। बहुत सी स्त्रियां दुराचारिणी, वेश्या आदि बन जाती हैं, बहुत से आत्महत्या कर लेते हैं, बहुतों को भीख मांगनी पड़ती हैं।
इस दशा में समाज-हितैषी पुरुषों का काम है कि ऐसे दीन दुःखी, अनाथ, विधवा, अपंग स्त्री-पुरुषों बाल-बच्चों की सेवा करने के लिये उनको अपने पैरों पर खड़ा करने के लिये समुचित सफल स्थायी प्रबंध करें।
औषधालय, अनाथालय, विधवाश्रम आदि की स्थापना करें और ऐसी संस्थाओ को ऐसे अच्छे ढंग से चलावें कि उनके चलाने के लिये द्रव्य मांगने की आवश्यकता न पडे। उस संस्था के आदर्श कार्य से आकर्षित होकर जनता उस संस्था को स्वयं सहायता प्रदान करें।
तथा श्री कर्वे ने जैसे महिलाश्रम चलाया है उस तरह अपने आप अपना खर्च पूरा करने की क्षमता रखने वाली संस्थाओं की कार्य प्रणाली बनावें जिससे हस्त शिल्प आदि के कारण संस्था के उत्पादन से ही संस्था का सारा खर्च चलता रहे और संस्था में रहने वाले बच्चे, स्त्रियां अपनी आजीविका स्वयं चलाने योग्य शिल्पकला सीख लें।
ऐसे ‘सेवामंडल बनाने चाहिए जिनके द्वारा असहाय, निराश्रित, दुःखी, पीडि़त स्त्री पुरुषों को तन, मन, धन से सहायता पहुँचती रहे। जो व्यक्ति निर्धन होते हुए भी समाज में सम्मान से रहते हों, जो प्रगट में किसी का सहायता लेना अपने सम्मान के विरुद्ध समझते हों ऐसे सफेदपोश स्त्री-पुरुषों को गुप्त रूप से सहायता प्रदान करनी चाहिये। सदा ऐसी पुनीत भावना रखनी चाहिए कि-
अर्थात्-संसार के सभी जीव सुखी, निरोग, प्रसन्न हों, कोई भी दुःखी न हो।