|| शक्तितस्त्याग ||
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अपनी शक्ति के अनुसार स्व-पर हित के लिये द्रव्य का दान करना शक्तितस्त्याग भावना है।

धन सम्पत्ति यद्यपि जड़ भौतिक पदार्थ हैं किंतु जब तक संसारी जीव शरीर के आश्रय जीवन व्यतीत करता है तब तक इस शरीर संचालन के लिये भोजन पान तथा वस्त्र आदि अन्य अनेक सामग्रियों को जुटाना पड़ता है, वे सामग्रियाँ जिन वस्तुओं द्वारा सुलभता के साथ प्राप्त हो जाती है, वे ही धन कहलाती है। तदनुसार संसारी जीवन में धन भी एक आवश्यक वस्तु है।

इसी कारण धन-उर्पाजन करने के लिये मनुष्य सदा क्रियाशील रहता है, वह अनेक विकट संकटों को सहन कर, अनेक अन्याय अनीति करके धन का संचय करता है। क्योंकि गृहस्थाश्रम की गाड़ी धन के सहारे ही चला करती है।

परंतु धन एकत्र करके मनुष्य को आत्म-निधि न भूल जानी चाहिए। धन सम्पत्ति द्वारा शरीर को तो खुराक मिल जाती हैं परंतु आत्मा को खुराक धन के त्याग द्वारा मिला करती है। क्योंकि धन को संचय करने में कुछ न कुछ अन्याय अनीति करनी पड़ती है, उस अनीति से आत्मा की शुद्ध भावना को ठेस पहुँचती है, आत्मा में बड़ी व्याकुलता पैदा करने वाला मैल लग जाता है। उस मैल को धोने के लिए भी आचार्यों ने गृहस्थों को एक अच्छा उपाय बतलाया है कि ‘प्रतिदिन अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ दान करते रहो।

(१) दान करने से एक तो आत्मा परिग्रह के भार से कुछ हल्की होती है, उसके मोह भाव में, तृष्णा तथा लोभ में कमी आती है। (२) दान करते समय अन्य जीव की पीड़ा या चिन्ता अथवा उसकी आवश्यकता दूर करते हुए हृदय में दया, अहिंसा की पवित्र भावना लहराती हैं। उससे आगामी समय के लिये पुण्यकर्म का बंध होता है। (३) जिस जीव को दान देते हैं उसका दुःख दूर होता है अतः उसकी आत्मा संतुष्ट होती है। (४) दान करने से अनचाहा यश प्राप्त होता है। इस तरह दान करने से केवल परोपकार ही नहीं होता, बल्कि स्व-उपकार भी होता है तथा दानी को परभव में ही आनंद नहीं मिलता अपितु इस भव में भी बहुत आनंद स्वयं प्राप्त होता रहता है।

राजा भोज संस्कृत भाषा की उन्नति के लिये बहुत दान किया करता था। यदि कोई अच्छा श्लोक बनाकर राजा भोज की सभा में पहुँच जाता था तो राजा उसको एक एक लाख मुद्रा पारितोषित में दे डालता था। राजा की ऐसी उदारता देखकर खजांची को बड़ी चिंता हुई। उसने राजा को इतना दान करने से हटाने के लिए खजाने के द्वारा पर बहुत बड़े अक्षरों में लिख दिया।

‘आपदर्थंधनं रक्षेत्‘

अर्थात् - किसी आपत्ति काल के लिये धन सुरक्षित रखना चाहिए (सब खर्च न कर डालना चाहिये)।

राजा भोज ने जब यह वाक्य पढ़ा तो वह अपने चतुर खजांची का संकेत समझ गया। तब खचांजी के लिखे हुए वाक्य में उत्तर में राजा ने वहीं पर उसके आगे लिख दिया कि-

‘श्रीमतां कुत आपदाः‘

अर्थात् - धनवानों को आपत्तियाँ कैसे आ सकती है ? अर्थात्-लक्ष्मीवानों को कभी आफत नहीं आती।

खजांची ने जब राजा यह उत्तर पढ़ा तब उसने राजा को फिर समझाने के लिये उसके आगे लिख दिया कि-

कचित् दैवात्समाप्नोपि

अर्थात् - कभी-कभी धनिक लोगों पर भी दुर्भाग्य से विपत्ति आ जाया करती है।

राजा भोज ने जब अपने हितैषी बुद्धिमान खचांजी का यह उत्तर पढ़ा तब उसने उसकी आशंका का समाधान करते हुए उसके आगे लिख दिया कि-

‘संचितोऽपि विनश्यति‘

अर्थात् - यदि दुर्भाग्य से धनवान् भी विपत्ति में फँस जावें तो दुर्भाग्य से एकत्रित धन भी नष्ट हो सकता है।

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खचांजी राजा भोज का उत्तर पढ़कर लज्जित हुआ और उसने कभी भी राजा को दान करने से न रोका।

इसका सार ग्राह्म इतना ही है कि धन का सबसे अच्छा उपयोग दान करना है। अतः साधु संत पुरुषों को बड़ी भक्ति और सम्मान के साथ आहार आदि का दान करना चाहिये, तथा दुःखी दीन, दरिद्री को करुणाभाव से दान देना चाहिये। इसके सिवाय धर्म प्रचार, समाज, सुधार, लोककल्याण, ज्ञानप्रचार के लिये भी यथेष्ट दान करना आवश्यक है।

दान अपनी शक्ति के आनुसार करना चाहिये। जितना दान कर सकता हो उससे कम भी न करे क्योंकि जब जितना दान करने की शक्ति है तो उस समय उतना करना ही चाहिये, अच्छे काम करने में संकोच करना लाभदायक नहीं होता। तथा शक्ति से अधिक दान करने पर स्वयं आपत्ति में फँस सकता है, स्वयं निर्धन होकर दुःखी हो सकता है। अतः दान शक्ति अनुसार ही करना चाहिये। यह पवित्र भावना भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण है।

मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका, ब्रह्मचारी आदि व्रती त्यागी को बहुत भक्ति के साथ विधि अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार आहार, शास्त्र, औषध आदि दान करना चाहिये और दीन दरिद्री दुःखी जीवों को करुणा भाव से उनका दुःख जिस तरह दूर हो सके वैसे उचित निरवद्य पदार्थ को दान करना चाहिये।

धन पाकर मनुष्य अनेक प्रकार के अनर्थ किया करता है। वह अनर्थकारी धन तभी आत्मा को हितकर हो सकता है जब कि इसको दान उपकार में खर्च किया जावें।

एक कवि ने अन्योक्ति रूप में कहा है-

वितर वारिद वारिदवातुरे, चिरपिपासित चातक पोतके।
प्रचलिते मरुति क्षणमन्यथा, क्व भवान् क्व पयः क्व च चातकः।।

अर्थात् - हे बादल! बहुत देर से प्यासे चातक पक्षी के लिये कुछ जल बिन्दु बरसा दे। अन्यथा प्रबल पवन के आते ही पता नहीं तू कहां उड़ कर जा पहुँचेगा, कहां तेरी बून्दे जा गिरेंगी और कहां पर यब बेचारा चातक जा पहुँचेगा।

कवि ने यह पद्य धनिक व्यक्ति को लक्ष्य करके कहा है कि आज तेरे पास धन है उससे तू कुछ पर-उपकार कर ले, अन्यथा दुर्भाग्य से कहीं भाग्य का उलटा चक्कर चल गया तो फिर तू पछतावेगा।

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