मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय हो जाने से जो आत्मा का अनुभव होता है, उसको ‘ सम्यग्दर्शन‘ कहते हैं। उपशम सम्यग्दर्शन होता तो पूर्ण निर्मल है किंतु वह रहता केवल अंतर्मुहूर्त तक है, उनके बाद अवश्य छूट जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन सदा अनंतकाल तक बना रहता है। क्षयोपशम सम्यग्दर्शन कुछ कम ६६ सागर तक रहता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को सबसे प्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है, उस समय मिथ्यात्व प्रकृति के ३ भाग हो जाते हैं। मिथ्यात्व (तत्व आत्मा को अश्रद्धा या विपरीत श्रद्धा करने वाला), सम्यक् मिथ्यात्व (श्रद्धा अश्रद्धा का मिश्र रूप परिणाम का उत्पादक) और सम्यक् प्रकृति (सम्यकत्व में चल, मल, आगाढ दोष पैदा करने वाली), जब इन तीनों प्रकृतियों का क्षय हो जाता है तब सदा के लिये पूर्ण निर्मल सम्यक्त्व प्रकट होता है। मिथ्यात्व, सम्यग् मिथ्यात्व प्रकृति के उपशम और क्षय (निष्फल उदय) तथा सम्यक् प्रकृति के उदय से जो सम्यग्दर्शन होता है उनमें निम्नलिखित २५ दोष उत्पन्न हुआ करते हैं-
१. शंका    २. कांक्षा   ३. विचिकित्सा   ४. मूढदृष्टि   ५. अनुपगूहन   ६. अस्थितिकरण   ७. अवात्सल्य   ८. अप्रभावना   ९. कुलमद   १॰. जातिमद   ११. रूपमद   १२. ज्ञानमद   १३. धनमद   १४. बलमद   १५. तपमद    १६. अधिकारमद   १६. देवमूढता   १७. गुरुमूढता   १९. लोकमूढता    २॰. कुदेव सेवा   २१. कुगुरु सेवा    २२. कुधर्म सेवा    २३. कुदेव भक्त की विनय    २४. कुगुरु भक्त की विनय   २५. कुधर्म भक्त की विनय
सम्यग्दर्शन के इन २५ दोषों का सारांश यह है।
जिन वाणी के वचनों मे संदेह करना शंका है।
संसार के विषय भोगों की इच्छा करना कांक्षा है।
मुनि त्यागियों का मलिन शरीर देखकर ग्लानि करना विचिकित्सा दोष है।
तत्वों तथा देव शास्त्र गुरु के विषय मे अनुभिक्ष (अजानकार) बने रहना मूढ़दृष्टि है।
धार्मिक पुरुषों के गुणों को छिपाना तथा उनके दोषों को प्रकट कर देना एवं अपने दोष छिपाना, अपने गुण प्रकट करना अनुपमूहन है।
धार्मिक विश्वास या धर्म आचरण से कोई शिथिल होता हो तो होने देना, उसे धर्म के दृढ़ करना अस्थितीकरण है।
साधर्मी विश्वास या धर्म आचरण से कोई शिथिल होता हो तो होने देना, उसे धर्म में दृढ न करना अस्थितीकरण है।
साधर्मी भाइयों से प्रेम न करना, द्वेष करना अवात्सल्य है।
जैन धर्म के प्रभाव सर्वसाधारण जनता में फैलाने का उद्योग न करना अप्रभावना है।
अपने पिता के घराने का अभिमान करना कुलमद है।
अपने नाना मामा के वंश का अभिमान करना जातिमय है।
अपने शरीर की सुंदरता का घमंड करना रूपमद है।
अपने ज्ञान का अभिमान प्रकट करना ज्ञानमद है।
अपनी धन-सम्पत्ति का घमंड करना धनमद है।
अपने शरीर के बल का अभिमान करना बलमद है।
अपनी तपस्या का घमंड करना तपमद है।
अपने शासन अधिकार (हकूमत) का अभिमान करना अधिकारमद है।
रागी, द्वेषी, कामी, देवी देवताओं को लोगों की देखा देखी मानना, पूजना देवमूढता है।
आत्म-ज्ञानशून्य क्रोधी, अहंकारी, परिग्रही, धनलोलुपी, चीमटा आदि लिये हुए साधुओं को गुरु मानकर उनकी भक्ति करना गुरुमूढता है।
नदी, समुद्र, तालाब में नहाने, अग्नि में जलाने, पीपल पूजने आदि में धर्म मानना लोकमूढता है।
कुदेवों की किसी भय, आशा या लोभ से भक्ति विनय करना, पूजन, देव अनायतन (कुदेव सेवा) है।
आरंभी, परिग्रही, धन लोलुपी, जटाधारी, कनफटे, क्रोधी, अभिमानी साधुओं को नमस्कार करना, भक्ति करना गुरु अनायतन (कुगुरु सेवा) है।
पशुओं की बलि देना, पशुओं का हवन करना आदि कार्यों को धर्म समझना, ऐसे मन्दिरों स्थानों को मानना धर्म अनायतन (कुधर्म सेवा) हैं।
कुदेव भक्तों की संगति करना उनके कार्यों से सहमत होना, सहयोग देना, उनकी विनम्र करना कुदेव भक्त विनय (अनायतन) है।
कुगुरु के भक्तों की प्रशंसा करना, उनका विनय सत्कार करना कुगुरु भक्त विनय (अनायतन) है।
कुधर्म भक्तों की विनय, भक्ति सेवा, प्रशंसा, मान्यता करना कुधर्म भक्त विनय (अनायतन) है।
इन २५ दोषों से सम्यग्दर्शन मलिन होता रहता है। इन २५ दोषों को निवारण करके सम्यग्दर्शन निर्मल रखना ‘दर्शन विशुद्धि‘ भावना है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध होने के लिये यह भावना सबसे अधिक आवश्यक है। यदि १५ भावनायं किसी व्यक्ति के हो जायें किंतु उसके दर्शनविशुद्ध भावना न हो तो उस पुरुष के तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं हो सकता। तथा दर्शनविशुद्धि भावना के रहते हुए शेष १५ भावनाओं में से कोई भी १-२-३-४ आदि हो जावें तो उसके तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है।