अपनी शक्ति के अनुसार आत्म-शुद्धि के लिये तपाचरण करना शक्तितस्तप भावना है। जिसे मनुष्य भव पाने के लिए लौकान्तिक देव, अनुत्तर विमानवासी अहमिन्द्र देव, संसार में सबसे अधिक सुख सम्पन्न सर्वार्थसिद्धि के देव भी तीव्र उत्कण्ठा रखते हैं, उस मनुष्य भव के प्राप्त करने में यदि कोई महत्वशील बात है तो वह केवल इतनी ही है कि जिस तपश्चरण से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा तथा आगामी कर्मों का संवर होते हुए अंत में सर्व कर्मक्षय से मुक्ति प्राप्त हुआ करती है, वह तपश्चरण केवल मनुष्य भव में ही सुलभ है, देवगति में असंभव हैं।
यदि कोई देव उपवास करना चाहे तो वहाँ एक उपवास भी नहीं कर सकता, क्योंकि देवों को जिस समय भूख लगती है उसी समय उनके गले में से स्वयं अमृत झर कर उनकी भूख शांत कर दिया करता है। इस तरह इच्छा न रहते हुए भी उनका भोजन स्वयमेव हो जाया करता है। मनुष्य शरीर में वह बात नहीं है-भोजन ग्रहण करना या न करना मनुष्य की अपनी इच्छानुसार हैं। इसी कारण भगवान् ऋषभदेव ने ६ मास का उपवास स्व-इच्छा से और ६ मास का उपवास विधि पूर्वक आहार प्राप्त न होने के कारण किया। उनके द्वितीय पुत्र बाहुबली ने एकासन से खड़े रहकर आत्मध्यान लगाकर एक वर्ष का उपवास किया था।
इस तरह अनंत ज्ञान, अनंत सुख प्राप्त करने का साधन भूत मनुष्य शरीर पाकर यदि शरीर से तपश्चरण करने का काम न लिया तो यह शरीर पाना व्यर्थ है। अतः जिस तरह घोड़े को खिलाते पिलाते रहो परंतु उसने सवारी का काम न लो तो वह घोड़ा शैतान हो जाता है, उसी तरह यदि इस शरीर को खिलाते पिलाते रहें और इससे आत्मशुद्धि के लिए तपक रने का कुछ काम न लिया जाय तो यह शरीर भी आत्मा के लिये लाभदायक सिद्ध होता। अथवा जिस तरह हाथी ने अपनी इच्छानुसार चलाने के लिये हस्तिपाल के पास अंकुश न हो तो हाथी ठीक नहीं चलता, न ठीक इष्ट स्थान पर पहुंचता है इसी प्रकार जब तक इन्द्रियों पर अंकुश (नियंत्रण-कन्ट्रोल) न किया जावे तब तक इन्द्रियां भी आत्मा के लिये अशुभ कर्म-संचय करने वाली ही सिद्ध होती हैं। इस कारण शरीर और इन्द्रियों के तपश्चरण द्वारा आत्मा के लिये उपयोगी बनाना चाहिये।
अर्थात-विषय भोगों की इच्छाओं का रोकना ही तप है। आत्मा में अशुद्धि विषयभोगों की इच्छाओं के अनुसार कर्म बंध होते रहने के कारण हुआ करती है, उस अशुद्धि को दूर करने के लिये सफल साधन तप ही हैं।
जिस तरह अग्नि पर अच्छी तरह तपा देने से सोने की अशुद्धि दूर होकर सोना पूर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी तरह तपों से तपाकर आत्मा भी कर्ममल से पूर्ण शुद्ध हो जाती है।
विषय कषायों के त्याग के साथ आहार का त्याग करना उपवास है जो कि धर्म ध्यान के लिये बहुत उपयोगी है। उपवास न कर सके तो अष्टमी चतुर्दशी को एकाशन करना चाहिए। भूख से थोड़ा भोजन करना भी तप का एक भेद है। घी, तेल, दूध, दही, नमक, मीठा इन रसों में से कोई रस कुछ समय के लिय या सदा के लिए छोड़ देना तप का अंश है। एकांत शांत में रहना, सोना, बैठना जहाँ पर कि चित्त विक्षेप का कोई साधन न हो यह भी तप है। शरीर से मोह वासना कम करते हुए खड़े होकर ध्यान करना भी तप है।
किसी प्रकार आचरण सम्बंधी चूक हो जाने पर प्रायश्चित लेकर मन की शुद्धि कर लेना भी तप है। देव शास्त्र गुरु की तथ सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र की मन से विनय करना भी तप है। किसी रोगी, वृद्ध तपस्वी, त्यागी की सेवा करना अथवा किसी दीन दुःखी की सेवा करना भी तप है। अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए शास्त्रों का स्वाध्याय करना, पढ़ना पढ़ाना आदि भी पवित्र तप है। बाहरी वस्तुओं से तथा शरीर से मोह ममता छोड़ना, या मोह कम करना भी एक तप है।
इसके सिवाय सबसे बड़ा और सबसे सरल या सबसे कठिन तप है-‘अच्छे विचारों में मन को उलझाना‘ जिसका कि दूसरा नाम ध्यान‘ है। पाप ध्यान के द्वारा तो अशुभ कर्म बंध होता है और शुभ ध्यान द्वारा ही शुभ बंध होता है तथा शुद्ध ध्यान कर्मों का क्षय होता है।
सो अपने शरीर की शक्ति के अनुसार आत्मा की शुद्धि करने के लिये पहले कहे हुए तपों में से अंतरंग बहिरंग तपों को करना चाहिये। यदि उपवास शांति पूर्वक हो सकता है तो अपना बल प्रकट करके उपवास, बेला, तेला, प्रोषधोपवास, सिंहनिष्क्रीडित आदि तप अवश्य करें, यदि उतनी सामर्थ न हो तो उससे कम करें। नीतिकार ने कहा है-
अर्थात-अपनी शक्ति बिन विचारे जो मनुष्य उपवास आदि तप करने लगते हैं उनका शरीर क्षीण हो जाता है और उनके शरीर में अने रोग प्रगट हो जाते हैं। कहने का सारांश यह है कि जितने तपश्चरण से शरीर काम करता रहे और आत्मा में शांति उत्साह बना रहें उतना तप मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। जिन मनुष्यों को समय तपश्चरण में व्यतीत होता है वे धन्य हैं। मुक्ति तपस्या के द्वारा ही प्राप्त होती है। कितना अच्छा कहा है-
अर्थात-तपस्या करते हुए युवावस्था व्यतीत हो जाय, मुनि तपस्वी त्यागियों को दान करते करते अपना धन खर्च हो जाए और समाधि के साथ प्राण चले जावें, तो उस युवावस्था, धन और प्राण का चला जाना लाभदायक है, उसको हानिकारक मत समझो।
इस कारण जब तक शरीर में शक्ति है तब तक कुछ न कुछ तप अवश्य करते रहना चाहिये। शरीर निर्बल अशक्त हो जाने पर कुछ तप नहीं बन सकता।
इस प्रकार अपनी शक्ति न छिपा का शक्ति के बाहर भी न जाकर जो तप आचरण किया जाता है उसकी शक्तितस्तप या शक्ति-अनुसार तप भावना कहते हैं।
इन्द्रियों की इच्छाओं का दास बने रहना कायर पुरुषों का काम है। जिन व्यक्तियों में आत्मबल प्रकट होता है, वे इन्द्रियों को अपना दास बना कर इच्छाओं का नियंत्रण करते हैं जिससे कि आत्मा विषय भोगों के कृत्रिम आनंद से विमुख होकर आध्यात्मिक रस का आस्वादन करने के लिए प्रवृत्त होता है।
तपों का आचरण मुख्य रूप से गृह परिवार से सम्पर्क छूट जाने पर स्वाधीन अवस्था में होता है। परंतु गृहस्थ भी यथा सम्भव तपश्चरण कर सकता है। कायोत्सर्ग (नग्न हो खड़े होकर ध्यान करना) प्रतिमायोग के सिवाय अन्य दशा में गृहस्थ नहीं कर सकता।