शील और व्रतों का निर्दोष पालन करना, ‘शीलव्रतेष्वनतीचार‘ या ‘निरतिचार शीलव्रत‘ है।
अहिंसा, सत्य, अचैर्य ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये पाँच व्रत हैं ये व्रत हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पंच पापों के पूर्ण त्याग करने से महाव्रत कहलाते हैं उनके सहायक यम नियमों को शील कहा जाता है। जिस तरह कोट के द्वारा नगर की रक्षा होती है।
क्रोध को शांत करना, मान का दमन करना आदि अंहिंसाव्रत का शील है। छल भय आदि का छोडना सत्यव्रत शील है। शून्य स्थान गुफा आदि में रहना अचैर्यव्रत का शील है। स्त्रियों के चित्र देखने, उनका अंग निरीक्षण, गरिष्ठ भोजन करने आदि का त्याग ब्रह्मचर्यव्रत का शील है। लोभ कषाय का शांत होना, पदार्थों में राग द्वेष छोडना परिग्रहत्याग व्रत का शील है।
व्रतों तथा शीलों का जो कुछ अंश भंग हो जावे यानी-कुछ दूषण लग जावे उनको अतिचार कहते हैं। महाव्रतों तथा शीलों में अतिचार न लगने देना यानी निर्दोष रूप से शीलव्रतों का पालन करना शीलव्रतेष्ठवनतीचार भावना है।
पंच पापों का एक देश त्याग करना अणुव्रत है। अणुव्रत के भी अहिंसा, सत्य, अचैर्य, परस्त्रीत्याग रूप ब्रह्मचर्य, परिग्रह परिमाण ये पाँच भेद हैं। इन अणुव्रतों की रक्षा के लिये दिग्व्रत (दशों दिशाओं में जनम तक आने जाने के स्थान की मर्यादा करना) देशव्रत (कुछ समय के लिये कुछ क्षेत्र तक जाने आने की मर्यादा करना), अनर्थ दंडव्रत (जिन कार्योंं में व्यर्थ पाप का बंध हो उनका त्याग करना) ये तीन गुणव्रत तथा सामयिक (नियत समय तक पाँचों पापों का त्याग करे आत्मचिंतन करना), प्रोषधोपवास (सप्तमी नवमी को एकाशन, अष्टमी को उपवास तथा त्रयोदशी पूर्णमासी को एकाशन, चतुर्दशी को उपवास करना), भोगोपभेग परिमाण (भोग्य यानी जो पदार्थ एक बार ही भोगने में आ सके, जैसे भोजन आदि। तथा उपभोग्य यानी-जो पदार्थ बार-बार भोगने में आ सकें, जैसे वस्त्र भूषण आदि पदार्थों का नियम करना) और अतिथिसंविभाग (मुनि आदि व्रती त्यागियों को आहार, शास्त्र, औषध आदि दान करना) ये चार शिक्षा व्रत हैं। ये गुणव्रत शिक्षव्रत मिलकर ७ शील कहलाते हैं।
पाँचों अणुव्रतों तथा सातों के जो अतिचार होते हैं उन अतिचारौं को दूर करके निर्दोष रूप से पालन करना गृहस्थों की निरतिचार शीलव्रत भावना है।
अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतों के तथा तीन गुणव्रतों ४ शिक्षाव्रतों रूप सात शीलों के प्रत्येक के पाँच-पाँच अतिचार होते हैं, उन अतिचारों को दूर करके निर्दोष आचरण करने के साथ दर्शन विशुद्धि भावना हो तो वह भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण हो सकती है।
अहिंसाव्रत के अतिचार
अर्थात-(१) ‘बध‘-चाबुक, लड़की, आदि से बैल, घोडे़े आदि को हांकने आदि के लिये मारना। (२) ‘बन्ध‘-रस्सी, सांकल आदि से अपने पालतू जानवर गाय, बैल, घोड़े आदि को बांधना, पिंजडे में तोता, मैना आदि पक्षियों को बंद कर देना। (३) ‘छेद‘-कुत्ते, बैल आदि की पूंछ कान आदि काट देना। (४) ‘अतिभारारोपण‘-बैल, घोड़ा आदि लद्दू जानवरों पर अधिक बोझ लादकर ढुलाई करना। (५) अन्नपाननिरोध-गाय, बैल आदि पालतू जानवरों को यथा समय खाना पीना न देना, उनको भूखा प्यासा रखना, ये पाँच अतिचार अहिंसा अणुव्रत के हैं। अहिंसा व्रती पुरुष को इन अतिचारों से बचना चाहिए।
सत्य के अतिचार
अर्थात-(१) ‘मिथ्यापदेश‘-आत्महित के विरुद्ध मिथ्या उपदेश देना। (२) रहोभ्याख्यान-स्त्री पुरुषों की कामक्रीड़ा आदि संबंधी रहस्य (गुप्त रखने योग्य) बातों को प्रकट कर देना। (३) कूटलेख क्रिया वही खाते, रुक्के आदि गलत बनावटी लिखना। (४) न्यासापहार-किसी की धरोहर को हड़प जाना, या धरोहर रखने वाले व्यक्ति की विस्मृति, भूल का अनुचित लाभ उठाकर उसे धरोहर को पूरा न लौटाना। (५) साकारमन्त्रभेद-किसी के मुख आदि शारीरिक चिन्हों से किसी की गुप्त बात जानकर सर्व साधारण में उसे प्रकट कर देना। ये पांच अतिचार सत्यव्रत के हैं। सत्यव्रत धारण करने वाले व्यक्ति को इनसे बचना चाहिए।
अचैर्यव्रत के अतिचार
अर्थात-(१) स्तेनप्रयोग-चोरी करने का ढंग बतलाना। (२) तदाहृतादान चोरी का माल सस्ते भाव में ले लेना (३) विरुद्धराज्यातिक्रम-राज्य की ओर से लगे हुए मालकर (चुंगी-महसूल), रेल टिकट, आयकर (इन्कम टैक्स), बिक्रीकर (सेल टैक्स) आदि से बचने का अनुचित प्रयत्न करना। (४) हीनाधिकमानोन्मान-ग्राहकों को देने के लिये कम वनज वाले बाटों से तोलना, कम नापना और माल लेने के लिए अधिक वजनदार बाटों से तोलना, अधिक नापना, डंडी मारना। (५) प्रतिरुपकव्यवहार-बढिया पदार्थ में घटिया पदार्थ मिलाकर बढिया पदार्थ के भाव से बेचना, दूध में पानी मिलाकर बेचना, घी में वनस्पति तेल मिलाकर बेचना इत्यादि। ये पाँच अतिचार अचैर्य अणुव्रत के हैं। अचैर्य अणुव्रती को इन अतिचारों से बचना चाहिए।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार
अर्थात-(१) स्त्रीरागकथाश्रवण स्त्रियों की रागवर्द्धक बातों का कहना या सुनना। (२) तन्मनोहराडगनिरिक्षण-स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखना। (३) पूर्वरतानुस्मरण-पहले समय की कामलीला का स्मरण करना। (४) वृष्येष्टरस-गरिष्ट काम-उद्दीपक पदार्थ खाना। (५) स्वशरीरसंस्कारत्याग-अपने शरीर का श्रृंगार करना, ये पाँच अतिचार ब्रह्मचर्य अणुव्रत के हैं। ब्रह्मचर्य व्रत वाले को इनसे बचना चाहिए।
परिग्रह परिमाणव्रत के अतिचार
अर्थात-(१) क्षेत्रवस्तु-जमीन (खेत आदि) तथा मकानों के किये हुए प्रमाण को बढा लेना। (२) हिरण्यसुवर्ण-सोने चांदी के रखने का प्रमाण का उल्लंघन करना। (३) धनधान्य-गाय, बैल आदि गोधन तथा अन्न के संग्रह किये हुए प्रमाण का अतिक्रमण करना। (४) दासी दास-नौकर नौकरानियों को रखने का जो प्रमाण किया हो उसका बढा लेना।(५) कुप्यप्रमाणातिक्रम-वस्त्र, बर्तन अपने पास रखने की, की हुई मर्यादा को तोड़ देना। ये पाँच अतचार परिग्रह परिमाण व्रत के हैं। परिग्रह परिमाण अणुव्रत के धारक गृहस्थ को इनसे अपना व्रत सुरक्षित रखना चाहिए।
शील
जिस प्रकार खेत को सुरक्षित रखने के लिए उसके चारों ओर बाढ़ (मेंड़) लगा देते हैं, बाग को सुरक्षित रखने के लिए चारों ओर मिट्टी की चार दीवारी लगा देते हैं इसी तरह व्रतों को सुरक्षित रखने के लिए जो अन्य यम नियम धारण किये जाते हैं उनका नाम शील हैं। पुरुषार्थसिद्धयपाय मंे श्री अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है-