|| वात्सल्य ||
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प्रवचन वात्यल्य सोलहवीं भावना है। यह षोडश कारण भावना की मूल जड़ है। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ भूमि के अंदर होती है और उस पर वृक्ष खड़ा होता है फलता है फूलता है उसी प्रकार इन सब भावनाओं की मूल जड़ यह वात्सल्य भावना है। इस भावना की जड़ पर ही सभी भावनायें खड़ी रह कर फलती फूलती हैं। जिस वृक्ष की जड़ मजबूत होती है उस वृक्ष की सब प्रकास से मजबूती होती है। जिस भव्य जीव के चित्त की भूमि में यह भावना आ जाती है वह प्राणी संसार में दुःख नहीं हो पाता। उत्तम गति में उत्तम स्थान में वह जन्म पाता है और कालांतर में जल्दी ही अनंत सुख स्वरूप स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त कर शिवपद को प्राप्त कर लेता है। वत्स गाय के बछडे़े को कहते हैं गाय का और बछड़े का जैसा परस्पर में स्वच्छ निष्कपट प्रेम होता है भव्य जीव धर्मात्मा जन भी वैसा ही निर्मल पवित्र प्रेम जिनधर्म और जिनधर्मी जनों से जिनधर्म के आयतनों से हृदय से करते हैं इसकी को प्रवचन वात्सल्य कहते हैं।

आचार्य विद्यानंद जी महाराज कहते हैं कि-

वत्सलत्वं पुनर्वत्से धेनुवत्सं प्रकीर्त्तितं।
जैने प्रवचने सम्यक् श्रद्धाज्ञानवत्स्वपि।।१६।।

इसका भी वही अर्थ है जो ऊपर बताया गया है अर्थात् बछड़े व गाय के प्रेम को वत्सल कहते हैं वैसे प्रेम भाव का होना वात्सल्य है। यह प्रेम भाव प्राणी मात्र में होना चाहिये परंतु विशेष रूप में जिन प्रवचन (जिनवाणी) में सम्यग्दृष्टि जीवों में, सम्यग्ज्ञानियों में और सम्यक् चारित्रवान जीवों में अवश्य होना चाहिये।

धर्म का लाभ इस जीव को कर्मभूमि में धर्मात्मा जीवों के उपदेश से, संसर्ग से जिनवाणी के पठन से, सम्यक्चारित्र की निधि साधुओं के चरणाबिन्द की सेवा से ही होता है। धर्मात्मा जीवों में जितनी प्रीति इस जीव की होती है उतनी पाप की क्षति व पुण्य की प्राप्ति होती है और उससे चित्त की स्थिरता तथा निर्मलता प्राप्त होती है। पापरत जीवों की संगति यहाँ भी दुखदायी है और आगे भव भव में दुख देती है। कारण पापी जीवों की संगति से पापास्रव होकर पाप के बंध होते हैं और वे कुगति में ले जाते हैं। जो प्राणी सुख चाहते हैं वे धर्मात्मा जीवों की सेवा भक्ति हृदय से करें। निष्कपट भावों से धर्मात्मा जीवों को पूण आदर सम्मान करें उनको दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम करें, उनको देखते ही आनंद की धारा से सारा शरीर रोमांचित कर लें, वाणी गद्गद् हो जावे, धर्मात्मा जीव के दर्शन को भी परम भाग्योदय समझे। ये सब बातें जीव को धर्म लाभ के लिये मूल कारण हैं। जिस प्रकार व्यसनी जीव शराबी, मांस-भक्षी, परदारा तथा वेश्यारत जीवों से बड़े प्रसन्न रहते हैं उसी प्रकार धर्मात्मा जीव धर्मात्माओं से प्रसन्न रहते हैं। परंतु वस्तु का परिणमन का स्वभाव ऐसा है कि निर्मल मीठा जल मैले की संगति पाकर मैला हो जाता है उसी प्रकार धर्मी जीव यदि पापी की संगति कर लेता है तो स्वयं भी पापाचारी हो जाता है। जो वेश्या से, व व्यभिचारिणी परदारा से प्रीति करेगा वह अवश्य एक दिन डूब जावेगा। उसी तरह जो मिथ्याधर्मी जनों से प्रति व्यवहार करेगा वह धीरे-धीरे सम्यक रत्नत्रय धर्म को खो देगा। यहाँ दो बातें जानने की है कि प्रीति का अर्थ क्या है और वह प्रीति कहाँ किससे करनी चाहिये। आज के समय के अनभिज्ञ प्राणियों ने वात्सल्य का अर्थ ऐसा समझा है कि सर्वत्र सब में भेद भाव को उठा कर एकपने को धारण करना ही सच्ची प्रीति है। परंतु ऐसा समझना उनकी भूल है। संसार में दोनों प्रकार के पदार्थ हैं एक पदार्थ निर्मल है और एक सरल है। अगर निर्मल, समल का भेद उठाकर दानों एकत्व को प्राप्त करें तो इसका अर्थ यह होगी कि निर्मल वस्तु उठाकर केवल समल (मैला) वस्तु ही रह जावेगी उसी प्रकार धर्मी और पापी (अनाचारी) दोनों एकत्व को प्राप्त करें तो उसका परिणाम क्या होगी कि धर्मी (सदाचारी) न रह कर केवल अनाचारी जीव ही रह जावेंगे। धर्म की परिणति भिन्न है। यह त्यागवृत्ति को लिए हुए हैं। अधर्म की प्रवृत्ति में अग्राह्म अभक्ष्य वस्तु का त्याग नहीं है। जो मद्य, मांस नहीं खाते हैं उनको सारा संसार अच्छा कहता है परंतु जिनमें मद्य, मांस की त्यागवृत्ति नहीं है उनको आचार विचार विहीन कहा जाता है। इन दोनों भिन्न प्रकार की परिणति को बिना समझे एकपने की भावना बनाने वाला गलती करता है और वह अपने निर्मल धर्म को खो देता है। आचार विचार को खो देने का अर्थ जो एकता समझने में है यह उनकी बुद्धि की मलिनता है। वास्तव में एकता यह है कि सब प्राणी मात्र को अपने समान जानते हुए किसी को नहीं सताना, दुख नहीं पहुँचाना, उनके दुख दूर करना, उनको शिक्षा देकर यथायोग्य धर्म का लाभ कराना, मगर अपने चारित्र-रत्न को खो देना एकता नहीं है। खान-पान में एक होने का नाम ही अगर एकता है तो जर्मन, फ्रांस, लंदन, रूस इत्यादि देशों के प्राणियों में खान पान में एकता होते हुए भी एकता का अंश भी नहीं हैं। दरअसल द्वेष भाव छोड़कर स्वार्थ को त्याग किए, एकता होती है। यहाँ घर में एक बान के चार बेटे एक थाली में एक साथ खाते हैं, परंतु अपने-अपने स्वार्थ के खातिर एक दूसरे से घृणा करते हैं, द्वेष करते हैं, एकता बिल्कुल नहीं रखते हैं, यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं, इसलिये ज्ञान नेत्र को खोलकर एकता को समझना चाहिए। और केवल अनाचारी लोगों के साथ खानपान मंे एक हो जाने को सहता नहीं समझना चाहिए। काल दोष से जीवों के भाव गिरते चले गये हैं और गिरते जा रहे हैं। संसार धन का उपासक विशेष रूप से हो गया है और इस धन लोभ की उग्रता ‘एकता‘ को भक्षण करती चली जा रही है। उपदेश एकता के दिये जा रहे हैं मगर वे एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने वाले ही एकता से नाराज हैं। देश में नाना प्रकार की पार्टियाँ बन रही हैं, सब को राज्यभोग की लिप्सा ने घेर लिया है और आज देश में एकता की हानी होती चली जा रही हैं। परस्पर मे एक पार्टी दूसरी पार्टी को पछाड़ देने की फिक्र में लगी हुई हैं। हाय धन, हाय धन की चैतरफा से आवाज उठ रही है। अब आप स्वयं ही सोच लेवे कि एकता का अर्थ भोजन पान की एकता है। या स्वार्थ त्याग की भावना का नाम एकता है। वस्तु के स्वरूप को समझे। अपने धर्म की रक्षा करते हुए उज्ज्वल परोपकार के भावों का धारण करना तथा यथायोग्य परोपकार करना ही एकता का मार्ग है खान पान की एकता, एकता का मार्ग नहीं है। इसका अर्थ किसी जीव से घृणा करना न अपमान करना नहीं है। मद्य, माँस के भक्षी के साथ खान-पान में यदि शामिल नहीं हौवे तो इसमें उसका अपमान नहीं है। किन्तु मद्य, माँस का त्याग तो सबको अवश्य ही करना चाहिए जब आप संसार के प्राणी मात्र से प्रीतिभाव करना चाहते हैं तो कम से कम उनका खाना तो अवश्य छोड़ देना चाहिए। किसी भी धर्म में किसी जीव को खाने का उपदेश नहीं है। जीवमात्र में दया करना असल में सच्ची प्रीति है।

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इस कथन से समझ में आ गया होगा कि प्रीति-वात्सल्य क्या वस्तु है। अब उसके तीन भेद जो बनते हैं वे बताये जाते हैं। संसार के प्राणी मात्र के हित की भावना बनाना, उनके दुःखों को दूर करने का भाव बनाना, दुःखी जीवों के प्रति दया भाव बनाना किसी जीव को नहीं सताना यह जीव मात्र के प्रति प्रथम प्रीति है। तथा अपने पूज्य गृहजनों में भक्ति धारण करना, अपने पूज्य गृहजनों की, कुटुम्बीजनों की, सेवा करना दूसरी व्यवहार प्रीति है। और जिन प्रवचन और चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव से लेकर ऊपर के गुणस्थानवर्ती तथा गुणस्थानातीत जीवों की भक्ति तथा धर्म, और धर्मायतनों की भक्ति तीसरी धार्मिक प्रीति है। यह रत्नत्रय के भेदों के तर तम भेद की अपेक्षा से नाना भेद रूप है।

यहाँ गृहस्थ जीव के तीनों प्रकार की ही प्रीति हो सकती है परंतु गृह त्यागी जीवों के प्रथम और तृतीय प्रीति होती है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि राग भाव मोहनी कर्म का कार्य हैं उसका उपदेश क्यों दिया गया है इसका ऐसा जवाब जानना कि राग भाव के २ भेद हैं। एक शुभ राग भाव दूसरा अशुभ रागभाव। यहाँ अशुभ रागभाव जो अनंत संसार का कारण है उसको छुड़ाने का ही प्रयोजन हैं इस प्रकार प्रीति किस में करनी चाहिए इसको बताते हैं।

सुख क्या है? सुख का मार्ग क्या है। इसको बताने वाले जिन प्रवचन (शास्त्र) ही हैं इस जीव का सच्चा कल्याण करने वाले जिन प्रवचन ही हैं। बुद्धिमान की बुद्धिमत्ता वास्तविक में यही है कि वह अपने कल्याण करने वाले जिन वचन का आश्रय लेवे और उसकी भक्ति-प्रीति हृदय में धारण कर कल्याण के मार्ग को अपनावे। संसार में सभी शास्त्र अपने को सच्चे शास्त्र कहते हैं, परंतु शास्त्र वे ही सच्चे हैं जो वीतराग देव की वाणी हैं। जिस ने जिनवाणी की भक्ति की हैं इसमें प्रीति धारण की है। उसने ही मोक्ष की प्राप्ति की है। इसलिए जिन वचन की भक्ति प्रीति सदा हृदय में धारण करनी चाहिए। इसी प्रकार संसार में धर्म तो बहुत हैं परंतु सच्चा धर्म भगवान् अर्हन्त देव का कहा हुवा ही है। अन्य धर्म संसार मे भ्रभावने वाले हैं, हिंसा मार्ग के पोषक हैं, आत्मा का हित करने वाला एक वीतराग धर्म ही है। इसलिये जिनधर्म में अटूट श्रद्धा भक्ति को धरण का हित करने वाला एक वीतराग धर्म ही है। इसलिये जिनधर्म में अटूट श्रद्धा भक्ति को धरण करना भव्य जीव का कर्तव्य है। और इसके साथ में ही जिनधर्मी जीवों के साथ प्रीति-भक्ति का होना परम श्रेय और परम कल्याणकारी है। तथा जिन धर्म आयतन मसलन कृत्रिम अकृतिम चैत्यालय, जिनालय, अर्हद् बिम्ब, सिद्धबिम्ब, आचार्यादि के बिम्ब तथा तीर्थक्षेत्र अतिशय क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र, निर्वाण क्षेत्र में सब परम पूज्य हैं। इनका दर्शन, चन्दन, स्तवन, गुण गायनादि अनुराग युत करना सब परम वात्सल्य है तथा सम्यग्दृष्टि जीव, अणुव्रती जीव, महाव्रती जीवों में परम अनुराग सहित भक्ति का होना परम कल्याणकारी वात्सल्य है।

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