|| वैयावृत्य ||
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रोगग्रस्त, वृद्ध, थके हुये, बालक, मुनि, त्यागी व्रती की सेवा करना वैयावृत्य है

मन में धर्म अनुराग जाग्रत होता है, अहिंसा और करुणा भाव जब लहराने लगता है, तब आत्मा किसी साधु मुनि आदि व्रती त्यागी की सेवा शुश्रुषा करने के लिये तत्पर होता हैं उस समय यह उत्कृष्ट भावना होती है कि ‘यह व्याधिग्रस्त व्रती स्वस्थ हो जावे‘ ऐसी पवित्र भावना के साथ सेवा में तत्पर होता हैं।

वैसे सेवावृत्ति प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि उसमें सेवा करके उसके बदले में रुपया पैसा वस्त्र आदि कोई पदार्थ लिया जाता है, वहाँ उपकार बुद्धि न होकर लोभमयी स्वार्थ बुद्धि काम करती है। इसीलिये लोभी डाक्टर किसी को चिकित्सा करके रोगी की कुछ सेवा तो करता है परंतु उसका ध्यान अपनी फीस की तरफ अधिक होता है। अनेक लोभी डाक्टर तो यहाँ तक विचार करते रहते हैं कि संसार में रोग बीमारियाँ खूब फैलें जिससे हमारा व्यावार चलें। कई डाक्टर तो इलाज करते हुए यह भावना करते हैं कि यह रोगी जल्दी स्वस्थ (तंदरुस्त) न हो जिससे कि अधिक दिनों तक मेरा स्वार्थ सधता रहे। इस स्वार्थ भावना के कारण उस डाक्टर की वह सेवा ‘सेवावृत्ति है, ‘सेवाधर्म‘ नहीं है।

अपने छोटे बच्चों की टट्टी माता भी उठाती है और मेहतर भी टट्टी साफ करता है, इस तरह टट्टी साफ करने की क्रिया दोनों की एक जैसी है किंतु माता की सेवा पवित्र सेवाधर्म है, जबकि भंगी की सेवा सेवावृत्ति है। माता की सेवा अमूल्य है, चिरस्मरणीय है, प्रशंसनीय है, जबकि मेहतर अपनी सेवा का मूल्य लेकर प्रशंसता नहीं पाता।

इसका कारण यही है कि सेवा धर्म में परिणाम बहुत निर्मल उदार और निःस्पृह होते हैं जबकि सेवावृत्ति नौकरी के रूप में की जाती है। सेवा का उत्तम फल प्राप्त करने के लिये सेवा निःस्वार्थ भाव से करनी चाहिये, जिस सेवा में जरा भी स्वार्थ की भावना प्रगट हुई कि उस सेवा का महत्व जाता रहा।

तदनुसार यदि कोई व्रती, त्यागी मुनि बीमार हो जाय तो उनकी प्रासुक चिकित्सा कराने का तुरंत प्रबंध कर देना चाहिये। सेवा का जो कार्य स्वयं अपने हाथ से हो सकता हो उसे स्वयं अपने हाथ से करे, जो सेवा किसी अन्य वैद्य आदि के द्वारा कराई जा सकती हो उसको उसके द्वारा करावें, यदि औषधि देना आवश्यक हो तो वह शुद्ध रूप से आहार के साथ दे देवें। जो औषध शरीर में लगाने की हो उसे शरीर में लगावे। इसके सिवाय उनका सिर दबाने, पैर दबाने आदि की जो भी सेवा हो, उसे स्वयं अपने हाथ से बड़ी भक्ति के साथ करे जिससे उसकी व्याधि शांत हो जावे और वे अपने चारित्रपालन तथा धर्म प्रचार में तत्पर हो सके।

सेवा करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि ऐसा कोई कार्य न होना चाहिये जिससे उनकी चर्या में दूषण लगे, उनके व्रत, त्याग के अनुरूप ही उनकी चिकित्सा औषधि और सेवा होनी चाहिये।

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दीन दुखी की सेवा

बहुत से दीन दुःखी मनुष्य समय पर सहायता न मिलने से या अकाल में ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं अथवा पीड़ा से छटपटात रहते हैं, अथवा कोई बड़ा भारी अनर्थ कर डालते हैं।

कुत्ती जिस समय बच्चे को जन्म देती है उस समय उसको बहुत भारी भूख लगती है ‘यदि‘ उस समय उसको खाने के लिये रोटी न मिले तो वह अपने बच्चों को खा लेती है। इसी तरह भूखी माता अपने छोटे दुध मुँहे बच्चे को भी छोड़ कर भोजन की तलाश में चल देती है। ऐसे समय में सबसे बड़ी सेवा यहीं है, कि उसको भोजन दिया जावे।

यदि कोई गरीब आदमी सर्दी में ठिठुरता हो तो उस समय उसको कपड़ा दे देना उसकी ठंडक दूर करना बड़ी अमूल्य सेवा है। अगर कोई निर्धन व्यक्ति या उसका बच्चा, स्त्री बीमार हो तो दयालु धार्मिक पुरुष का कर्Ÿाव्य है कि उसको जाकर दवा देवें, वैद्य को दिखा दे, इसके सिवाय उसका दुःख दूर करने के लिये और भी जिस सेवा का आवश्यकता हो उनको स्वयं अपने हाथ से करें।

दीन दुखी व्यक्ति की सेवार करने के बराबर कोई अहिंसा धर्म नहीं है। दीन दुःखी जीव का जो शुभ आशीर्वाद होता है वह बड़ा महत्वपूर्ण होता है, इसलिये दीन दरिद्रों की सेवा करके उनकी आशीष लेनी चाहिए।

एक गरीब ब्राह्मण परविार को कठिनाई से तीसरे दिन भोजन मिला। वे सब तीन दिन के भूखे थे। जब भोजन करने को बैठे तो उसी समय एक ८ दिन का भूखा भिखारी आ गया। उसने दीन स्वर मंे कहा कि मैं ८ दिन का भूखा हूं मुझे कुछ खाने को भोजन दो। ब्राह्मण ने दया में आकर अपना भोजन उसको खिाला दिया कि भाई! हम तो केवल ३ ही दिन से भूखे हैं तू तो ८ दिन का भूखा है, तू खा लें। उसी समय उसके घर के सामने से एक न्योला निकला, तो ब्राह्मण के घर की कीचड़़ में जाने से ही उसके पेट के बाल सुनहरी हो गये। उसी समय वह न्यौला भाग कर उस नगर के राजा के यहां गया जहां कि राजा एक हजार ब्राह्मणों को भोजन करा रहा था। उसके महल के सामने वह न्यौला बिखेरे हुए पानी में बहुतेरा लेटा किंतु उसका एक बाल भी सुनहरा न हो पाया। तब उस न्यौले ने राजा से कहा कि तूने एक हजार ब्राह्मण को भी भोजन करा कर उतना पुण्य उपार्जन नहीं किया है। जितना कि उस गरीब ब्राह्मण ने केवल एक भिखारी की सेवा से पुण्य कमाया है।

कभी ऐसा अवसर भी होता है मनुष्य स्वयं सेवा करने योग्य नहीं होता; उस समय उसको दूसरे व्यक्ति को उत्साहित करके वह सेवा कार्य करा देना चाहिये। यदि किसी कारण से ऐसा भी न हो सकके तो अपने हृदय में उसके दुःख दूर होने की भावना करनी चाहिये।

सेवा केवल धन से या शरीर से ही नहीं होती मन और वचन से भी होती है। मीठे वचनों से दूसरे दुखी जीव को समझाना, उसको सांत्वना देना, उसका हृदय शांत करना, उसे दुःख छूटने का मार्ग बताना आदि भी अच्छी उपयोगी सेवा है। मन की सहानुभूति भी सेवा का एक अंग है।

इस तरह मन, वचन, काय तथा धन से दूसरों की सेवा करनी चाहिये, स्वयं न कर सके तो अन्य से करा देनी चाहिये, यदि ऐसा भी न हो सके तो अनुमोदना करनी चाहिए। यानी-जिस तरह भी हो, सेवा कार्य में हाथ बँटाना चाहिए। सेवा करके उसका बदला लेशमात्र भी न मांगना चािहये।

सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।

अर्थात्-सेवा धर्म बड़ा रहस्यमय गूढ़ है इसका पूरा रहस्य बड़े-बड़े योगियों को भी मालूम नहीं हो पाता।

कोई समय था जब कि दाता बहुत होते थे, दुखी जनता जिसकी सेवा की जावे, बहुत कम दिखाई देती थी। भरत चक्रवर्ती के पास छह खंड रूप समग्र भरत क्षेत्र विजय कर लेने के अनन्तर प्रचुर अपरिमित सम्पत्ति एकत्र हो गई, तब विरक्ति शाील भरत ने विचार किया कि ‘‘मैं इस सम्पत्ति का क्या सदुपयोग करूं? जो व्यक्ति घर, परिवार तथा विषय भोगों से विरक्त होकर साधु दीक्षा ले चुके हैं उनको तो धन-सम्पत्ति की कुछ आवश्यकता नहीं है, उनको तो केवल थोड़ा-सा भोजन चाहिये जो कि उनको सब कहीं गृहस्थों आवश्यकता नहीं है, उनको तो केवल थोड़ा-सा भोजन चाहिये जो कि उनको सब कहीं गृहस्थों के घर से मिल ही जाता है। और जो लोग गृहस्थ हैं वे अपनी-अपनी आजीविका के साधनों से धन-उपार्जन कर ही रहे हैं, कोई मनुष्य निकम्मा, दीन,दुःखी दरिद्री दिखाई नहीं देता, जिसको कि इस सम्पत्ति द्वारा कुछ सहायता प्रदान करूं। फिर इस संचित परिग्रह का क्या करूं?‘‘

तब चक्रवर्ती भरत सम्राट ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। उस वर्ण की आजीविका का प्रबंध अपनी (राज्य की) ओर से किया और उन ब्राह्मणों को धार्मिक प्रचार, विद्या प्रचाररूप जन-सेवा के कार्य पर नियुक्त कर दिया।

परंतु दुर्भाग्य से आज समय उससे उलटा हो गया है, इस युग मे दीन-दुखी स्त्री पुरुषों की संख्या इतनी अधिक हो गई हैं कि उनकी सहायता करने वाले दाता खोजने पर भी नहीं मिलते, जो मिलते हैं उनकी दान शक्ति बहुत सीमित होती है। इसके सिवाय बनावटी (कृत्रिम) दुखी व्यक्ति बहुत से निकल पड़े हैं जिन्होंने अनेक तरह से अपनी दयनीय दशा बनाकर अपनी ओर उदार दयालु चित्त व्यक्तियों का हृदय आकर्षित करने के लिये अपने अपके कुत्सित रूप बनाकर भिक्षा माँगना प्रारंभ कर दिया है कोई गोशाला के नाम से, कोई मंदिर के नाम पर तो कोई अनाथालय का नाम लेकर लोगों से द्रव्य एकत्र करने के लिये निकल पड़े हैं जिससे कि वास्तविक दुखी व्यक्ति का समझना बहुत कठिन हो गया है।

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