|| मार्ग-प्रभावना ||
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जैनधर्म का प्रभाव समस्त जनता में फैलाने का उद्यम करना मार्ग प्रभावना नामक पन्द्रहवीं भावना है।

संसार में सबसे अधिक प्रभावशाली पदार्थ आत्मा है। वैसे तो जड़ पदार्थों में भी अनंत शक्ति पाई जाती हैं, परंतु आत्मा की चैतन्य-शक्ति के सामने जड़ पदार्थों की शक्तियां निष्प्रभ (फीकी) दीखती है। किन्तु आत्मा की वह प्रभावशाली शक्ति कर्म आवरण से छिपी हुई है जिस तरह बादलों के पटल से सूर्य का प्रकाश छिप जाता है। आत्मा ज्यों-ज्यों उस कर्म पटल को आत्मा से हटाता जाता है त्यों-त्यों आत्मा का प्रभाव भी प्रगट होता जाता है।

दीवान अमरचन्द्र जी को जयपुर नरेश ने अपने साथ शिकार खेलने के लिये चलने का आग्रह किया। दीवारन अमरचन्द्र जी ने बहुत निषेध (इंकार) किया कि मैं अहिंसा धर्म का अनुयायी हूँ, मैं कैसे हिंसक कार्य में भाग ले सकता हूँ, मुझे अपने साथ न ले चलिये।‘ परंतु राजा ने कुछ न मानी। अंत में लाचार होकर दीवान जी को राजा के साथ शिकार खेलने के लिये जाना पड़ा।

नगर से बाहर जाकर जंगल में हिरनों का झुंड दिखाई दिया। हिरनों के पीछे राजा ने अपना घोड़ा दौड़ाया, हिरन अपने प्राण बचाने के लिये बहुत जोर से भागे। हिरनों को भागता हुआ देखकर दीवान अमरचन्द्र जी ने उच्च स्वर में हिरनों को पुकार कर कहा कि-

‘हिरनों! तुम कहाँ भागे जा रहे हो, जबकि तुम्हारा रक्षक राजा ही तुम्हारे प्राण लेना चाहता है तब तुम भाग कर कहाँ जाओगे ?‘

दीवान अमरचन्द्र जी की वाणी में अहिंसा भाव का वह अद्भुत प्रभाव था कि हिरण सुनकर चुपचार खड़े हो गये। तब अमरचन्द्र जी ने राजा को कहा कि राजन्! लीजिये हिरन आपके सामने खड़े हैं जिसका चाहें उसका शिकार कर सकते हैं।

यह देखकर राजा बहुत लज्जित हुआ और उसने फिर शिकार खेलना छोड़ दिया।

इसी तरह वन में तपस्या करने वाले ऋषियों के पास आकर सिंह आदि हिंसक पशु अपनी निर्दय हिंसा वृत्ति छोड़ देते हैं और पास में हिरन, गाय के साथ प्रेम से बैठे रहते हैं।

इस प्रकार अपने गुणों से आत्मा को प्रभावशाली बनाना चाहिए। तपस्या तथा सच्चारित्र के आचरण से आत्मा में प्रभाव प्रकट होता है। अतः जैनधर्म की प्रभावना के लिये सबसे प्रथम तो अपने आत्मा में जैनधर्म को उतार कर अपने आपको प्रभावशाली बनाना चाहिए।

इसके बाद अपना ज्ञान गुण अच्छा विकसित करना चाहिए। जैन सिद्धांत तथा अन्य सिद्धांतों का और न्यायशास्त्र का परिज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जिसेस कि अन्य जिज्ञासु (सत्य धर्म जानने के इच्छुक) व्यक्तियों के हृदय में जैनधर्म का महत्व अनेक सुंदर युक्तियों के साथ प्रगट किया जा सके। स्वामी समन्तभद्राचार्य संस्कृत भाषा, दर्शन, न्याय, साहित्य के बहुत बड़े विद्वान थे, साथ ही वे बड़े भारी वक्ता, वाग्मी और वादी (शास्त्रार्थ करने वाले) थे। उन्होंने अपने समय में जैनधर्म की बहुत अधिक प्रभावना की है।

पटना, मालवा, सिंधुप्रांत, ढाका (बंगाल), कर्नाटक, भेलसा आदि प्रांतों में जाकर वहां के बड़े-बडे़ नगरों में पहुँचकर डंके की चोट पर अन्य मती विद्वानों को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा और अकेले ही उनके साथ शास्त्रार्थ करके हराकर जैनधर्म का भारतवर्ष में सर्वत्र प्रभाव फैलाया।

श्री अकलंक दवे ने बालब्रह्मचारी रह कर, ऊपर से बौद्ध बन कर बौद्ध विद्यालय में अनेक संकट सहते हुए विद्या प्राप्त की, फिर बौद्ध विद्वान संघश्री आदि के साथ राजा हितशीतल आदि की राजसभाओं में बड़े-बड़े शास्त्रार्थ किये। एक बार तो बौद्ध विद्वान द्वारा घड़े में स्थापित बौद्धदेवी ‘तारा‘ के साथ छह मास तक शास्त्रार्थ करते रहे। अकलंक देव ने सभी शास्त्रार्थों में अच्छी विजय पाकर उस समय सर्वत्र फैले हुये बौद्धधर्म का प्रभाव क्षीण करते हुए जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना की। इसके लिये उनको अपने लघु भ्राता का भी बलिदान करना पड़ा।

श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने समयसार, पंचास्तिकाय आदि आध्यात्मिक ग्रन्थ निर्माण करके जैनधर्म की ऐसी सुंदर प्रभावन की है कि अब तक हजारों अन्यमत अनुयायी निष्पक्ष विद्वानों ने उनका स्वाध्याय करके जैनधर्म स्वीकार किया है। भविष्य में जो व्यक्ति समयसार आदि का स्वाध्याय करेगा वह भी प्रभावित हुए बिना न रहेगा।

स्वामी विद्यानंद कट्टर वैदिक विद्वान थे, श्री समन्तभद्राचार्य विरचित आप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र) को सुनकर जैन सिद्धांत की सत्यका का अनुभव करके जैन धर्मानुयायी स्वयं बन गये, तदनन्तर अपने आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्री आदि जैनधर्म के प्रभावशाली अनेक तार्किक ग्रन्थों की रचना की।

इस प्रकार अपने ज्ञान के प्रभाव से उपदेश देकर, शास्त्रार्थ करके तथा ग्रंथ द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करनी चाहिये।

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इसके सिवाय लोक उपकारक कार्य करके जैनधर्म का प्रभाव साधारण जनता में फैलाना चाहिये जिस तरह कि जयपुर के दीवान अमरचन्द्र जी ने प्रजा के अनेक मनुष्यों के प्राण बचाने के लिये अंग्रेज अफसर को भ्रमवश लोगों द्वारा मार डालने का अपराध अपने ऊपर ले लिया और अपने प्राण देकर अन्य सैकड़ों मनुष्यों के प्राण बचाये।

इसी तरह ज्ञान, महान् उत्सव करके, दर्शनीय भव्य मंदिर बनवाकर, प्रचार करके आदि अनेक साधनों से जैनधर्म की प्रभावना संसार में फैलनी चाहिये। जिससे अन्य मतानुयायी जनता जैनधर्म की ओर स्वयं खिंच कर आवे।

दीन-दुखी दरिद्र जनता की सेवा करके उनके हृदय में जैनधर्म का प्रभाव उत्पन्न करना चाहिए। असहाय विधवाओं, अनाथ बच्चों की रक्षा करके उनको जैनधर्म का कल्याणकारी उपदेश देना चाहिये।

शारीरिक बल द्वारा पराक्रम दिखाकर भी प्रभावना की जा सकती है जैसे कि राजा खरवेल, चामुण्डराय आदि ने बड़े-बड़े युद्धों में विजय प्राप्त करके जैनधर्म को राजधर्म बनाया था। चामुण्डराय ने बड़ा धन खर्च करके श्रवणबेलगोला में ५७ फीट ऊँची बाहुबली की मनोज्ञ प्रतिमा का निर्माण करा कर जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना की है।

इसी तरह यंत्र मंत्र द्वारा श्री मानतुंग, वादिराज, कुमुन्दचन्द्र आदि आचार्यों ने तथा ग्वालियर, उदयपुर आदि के अनेक भट्टाराकों ने अपने-अपने समय में जैनधर्म की प्रभावना की थी, वैसी अब भी की जा सकती है।

सारांश यह है कि ‘सर्व-जगत् का कल्याण करने वाला जैनधर्म संसार में सब जगह फैले‘ इसके लिये जो भी अच्छे उपाय हो उनको काम में लेना चाहिये। तीर्थंकर प्रकृति बंध की कारणभूत यह मार्ग-प्रभावना नामक पन्द्रहवीं भावना है।

आत्म प्रभावशाली दृढ़ निष्ठा, निर्मलज्ञान तथा पवित्र आचरण के द्वारा बना करता है, जो मनुष्य अटल श्रद्धालु, ज्ञानवान, सदाचारी होते हैं उनके मुख पर आत्मतेज झलकता है, उनकी वाणी में महान् बल होता है, उनका एक-एक शब्द अन्य व्यक्तियों के हृदय पर अंकित हो जाता है। उनका हृदय अनुपम शक्ति का केन्द्र बन जाता है, अतः ऐसे व्यक्तियों को संसार में कोई अन्य व्यक्ति महान् बनाने के लिये नहीं आया करते, वे स्वयं संसार में महान् बन जाया करते हैं। उस दशा में वे धार्मिक प्रभावना का केन्द्र हो जाते हैं। प्रभावना सदा उनके चारों और घूमती रहती हैं।

इसी बात को लक्ष्य मे रख कर श्री अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ में ‘प्रभावना‘ के विषय में लिखा है-

आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेघ।
दान तपो जिन पूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः।।
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