अर्थात् - निर्मल रत्नत्रय (सम्यक् श्रद्धा, सम्यगा्न तथा सम्यक् आचरण) द्वारा आत्मा का सदा प्रभाव बढ़ना चाहिये। और दीन दुखी जनता का दुःख दूर करने के लिये महान् आवश्यक दान देकर, यथेष्ट प्रभावशाली तपश्चरण करके, उत्कृष्ट भक्ति भाव से स्वर, ताल, भाव भंगिमा के साथ जिनेन्द्र देव का पूजन करके तथा शास्त्रार्थ, व्याख्यान आदि द्वारा अपने प्रखर ज्ञान से एवं मंत्रों के चमत्कार दिखलाकर इस जगत् में जैनधर्म की प्रभावना प्रकट करनी चाहिये।
अतः प्रभावना का मूल आधार सबसे प्रथम अपनी आत्मा है।
अर्हन्त भगवान का शरीर तथा उनकी वाणी इसी कारण प्रभावशाली होते हैं कि उनकी आत्मा सर्वोच्च सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का भंडार होती है। उनके दर्शन करते ही बिना किसी प्रेरणा के मनुष्यों के हृदय निर्मल हो जाते हैं, मस्तक उनके चरणों में झुक जाता हैं। और पार्पाक्रपा से घृणा हो जाती है। तथा उनका उपदेश सुनकर असंख्य प्राणी आत्म श्रद्धालु बनकर उच्च-आचार आचरण करके मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। एवं उन अर्हन्त भगवान् की प्रतिमा के दर्शन, पूजन, चिन्तवन से भी असंख्य नर-नारी आत्म-बोध प्राप्त करते हैं। इस तरह अर्हन्त देव संसार में सबसे अधिक प्रभावना करते हैं। उनसे कम उनके पद-चिन्हों पर चलने वाले अनेक अतिशय ज्ञान ध्यानि महाव्रती साधु अपने सदाचार तथा प्रचार द्वारा धार्मिक प्रभावना करते हैं।
उनसे भी कम प्रभावना गृहस्थ श्रावकों के द्वारा होती है क्योंकि उनकी श्रद्धा, ज्ञान आचरण महाव्रती साधुओं की अपेक्षा थोड़ा होता है तथा गृहस्थाश्रम के कार्यों में रत रहने के कारण उनको उतना समय भी नहीं मिलता। फिर भी जैन गृहस्थ को अपना खान-पान लेन-देन, रहन-सहन, व्यवहार बहुत शुद्ध रखना चाहिये। जिससे दूसरे मनुष्य उसको देखकर प्रभावित हों।
इसके सिवाय गृहस्थों को समय-समय पर जनता में अच्छा दान करते रहना चाहिये। बड़ी-बड़ी सभाओं की योजना करके जैनधर्म के प्रभावशाली भाषण कराने चाहिये, प्रभावशाली साहित्य-वितरण करना चाहिये इत्यादि।