चार घातिया कर्म-रहित अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत बल (वीर्य) संयुक्त जीवन्मुक्त अर्हन्त परमेष्ठी होते हैं उन अर्हन्त परमेष्ठी की भक्ति करना अर्हन्त भक्ति भावना है।
यदि सूर्य न हो तो संसार में अंधकार बना रहे, प्रकाश न हो। इसी तरह यदि अर्हन्त भगवान् न हों तो संसार में ज्ञान का प्रकाश न हो, और अज्ञान अंधकार मोह अंधकार संसारी जीवों के आत्मा से दूर न हो सके। अर्हन्त भगवान् ने अपने तपोबल से आत्मा के सब से अधिक अहित करने वाले घातिया कर्मों को क्षय किया, तभी वे पूर्णज्ञानी, पूर्ण सुखी अंत शक्तिशाली और पूर्ण वीतरागी बन गये। उस समय उन्होंने समस्त तत्वज्ञान, आत्मा केा संसार जाल से छूटने का उपाय प्रतिपादन किया। सिद्ध भगवान आत्मशुद्धि में अधिक हैं किंतु लोक-कल्याण में उनसे अधिक अर्हन्त हैं अतः वे पहले परमेष्ठी हैं।
वे पूर्ण ज्ञानी थे, इसलिए उनके जानने में कुछ गलती न थी और उनको रंचमात्र भी किसी के साथ न राग था, न द्वेष था, इस कारण निःस्पृह भाव से दिये गये उनके उपदेश में कुछ विकार न था।
वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी होने के कारण वे समस्त संसार के पूज्य देव बन गये। ये तीनों विशेषताएँ संसार के किसी अन्य देव मे नहीं पाई जाती। इसी कारण कोई पुरूष-प्रेमवश अपने साथ स्त्री रखता है और कोई अपने शत्रु को मारने के लिये अपने साथ तलवार, भाला, गदा, धनुष आदि हथियार लिये हुए हैं। ऐसे देवों की आराधना से आत्मा में राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, भय आदि की शिक्षा आराधक को मिल सकती है। राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि भाव संसार चक्र ही डाले रखते हैं। अतः संसार से छूटकर अजर अमर बनने के लिये तो वैसा ही देव उपयोगी हो सकता है जो राग, द्वेष, क्रोध आदि से मुक्त हो, ऐसे देव तो अर्हन्त ही हैं। अतः जो संसार जाल से छूटकर अजर अमर बनना चाहे वह अर्हन्त भगवान् की आराधना करें।
श्री रामचन्द्रजी ने संसार से विरक्त होकर ‘जिनेन्द्र‘ (अर्हन्त) की तरह अपनी आत्मा में शांति पाने की इच्छा प्रकट की, यह बात योगवशिष्ठ के निम्नलिखित श्लोक से प्रगट होती हैं।
इसके सिवाय संसार के जितने भी अन्य देव हैं वे अपने भक्त (सेवक) को सदा सेवक ही बनाये रखते हैं कभ्ज्ञी अपने समान नहीं बनाते। परंतु अर्हन्त भगवान् की जो व्यक्ति सेवा भक्ति करता है वह कुछ समय बाद खुद अर्हन्त परमात्मा बना जाता है। यानी-अर्हन्त देव अपने भक्त को अपने-जैसा भगवान बना देता है।
इसमें भी विशेषता यह है कि अर्हन्त देव स्वयं ऐसा करता नहीं। यदि कोई मनुष्य अर्हन्त भगवान की निंदा करे तो उससे अप्रसन्न (नाराज) होकर उस निन्दक की कुछ अहित (बुरा) नहीं करता और न अपनी भक्ति पूजा स्तुति करने वाले पर प्रसन्न होकर उसको कुछ पारितोषित देता है क्यांेकि वह तो पूर्ण वीतरागी है। ऐसा होते हुये भी अर्हनत भगवान् की निंदा करने वाला व्यक्ति अपने बुरे परिणामों से अशुभ कर्म बांध लेता है, जिससे उसको महान् संकट दुःख प्राप्त होता है और भक्ति करने वाला शुभ कर्म का उपार्जन करता है, इस कारण उसको सब तरह की सुख सामग्री स्वयमेव मिल जाती है। ऐसा अपूर्व महत्व संसार में औश्र किसी देव में नहीं मिलता।
इस कारण सुख प्राप्त करने के लिये अर्हन्त भगवान् की भक्ति अवश्य करनी चाहिये क्योंकि जो जैसा बनना चाहता है वह वैसे ही व्यक्ति की सेवा भक्ति करता है और भक्ति करते-करते वैसा ही बन जाता है। विद्या लेने के लिये विद्यागुरु की भक्ति की जाती है और जौहरी बनने के लिये जौहरी की सेवा की जाती है तदनुसार अनंत सुखी, अनंत ज्ञानी बनने के लिए अर्हन्त भगवान् की भक्ति आवश्यक है।
जैसे सिंह का ज्ञान करनो के लिए सिंह की मूर्ति से काम लिया जाता है, उसकी मूर्ति से बच्चों को सिंह की सारी बातें बतला दी जाती हैं, इसी तरह अर्हन्त भगवान् के पूर्णमुक्त (सिद्ध) हो जाने पर अर्हन्त भगवान् का बोध उनकी प्रतिमा से होता है। अर्हन्त भगवान जिस तरह पूर्ण शांत वीतराग थे ठीक वही बात उनकी प्रतिमा से प्रगट होती है। अर्हन्त प्रतिमा के मुख और नेत्रों से यह बात प्रगट होती है कि न इसको किसी पर क्रोध है, न अभिमान। अर्हन्त जिस तरह निर्भय निर्विकार वीतरागी थे, वही मूक शिक्षा अर्हन्त भगवान् की मूर्ति से प्राप्त होती है। धीरता गंभीरता का प्रभाव भी अर्हन्त की मूर्ति के दर्शन से आत्मा पर पड़ता है।
सारांश यह है कि अर्हन्त भगवान् की मूर्ति पर न कुछ आभूषण हैं, न वस्त्र है, न कोई शस्त्र। स्वात्मलीनता तथा संसार से विरक्ति उस मूर्ति से झलकती हैं, दर्शन करते ही आत्मा में शांति की छाया पड़ती है, अतः निरंजन निर्विकार निर्भय बनने के लिये अर्हन्त प्रतिमा का दर्शन करना चाहिये।
जिस तरह किसी वेश्या का चित्र देखते ही आत्मा मे कामवासना जाग उठती है और किसी वीर पहलवान शूर योद्धा की मूर्ति देखते ही वीरता के भाव जाग्रत हो उठते हैं। देशभक्त धर्मात्मा का चित्र देखने पर मन में देशभक्ति और धर्म आचरण की लहर लहराने लगती हैं। इसी तरह अर्हन्त भगवान् की मूर्ति का दर्शन करने से वीतराग, शांत भावना जाग्रत हो उठती है। संसार की मोहमाया से विराग भाव पैदा होने लगता है।
सिनेमा में स्त्री पुरुषों के नाटक के चित्र हैं, इस तरह फिल्म जड़ अचेतन वस्तु है किंतु उसको देखने से दर्शकों के हुदय पर उसी अजीब जड़ चित्र का कैसा गहरा असर पड़ता है। देखने वालों का चित्त कभी करुणा से भर जाता है, कभी सिनेमा देखने वाले स्त्री पुरुष उन जड़ चित्रों को देखकर रोने लगते हैं, तो कभी हास्यजनक दृश्य से हँसने लगते हैं। सिनेमा देखकर ही लड़ना, भिड़ना, चोरी करना आदि भी सीख लेते हैं।
इसी तरह अर्हन्त भगवान् की प्रतिमा वास्तव में अजीव जड़ पदार्थ होते हुए भी अपने दर्शक के हृदय पर अपनी शांत वीतरागता की छाप लगा ही देती है।
अर्हन्त भगवान के दर्शन पूजन भक्ति से शांति वैराग्य प्राप्त होता है, आत्मा को आनंद और तृप्ति इसी से मिला करती है, इसके साथ अतिशय पुण्य कर्म का समागम भी होता है जिससे कि स्वर्ग, राज्य आदि सांसारिक विभूति स्वयं मिल जाती है। इस कारण अर्हन्त भगवान की भक्ति करके सांसारिक वस्तु की इच्छा नहीं करनी चाहिये।
अर्हन्त भगवान् की भक्ति से तो अनंत अविनाशी मुक्ति सुख पाने का उद्देश्य रखना चाहिये। संसार सुख तो अपने आप मिल ही जाता है। इस तरह अर्हन्त प्रतिमा को साक्षात् अर्हन्त भगवान् मानकर दर्शन पूजन भक्ति बड़े उत्साह के साथ सदा करना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिये। यह अर्हन्त भक्ति हैं।
इस युग की अपेक्षा श्री ऋषभनाथ भगवान् सबसे पहले अर्हन्त भगवान् हुए हैं, उन्होंने ही कैवल्य प्राप्त करके अर्हन्त अवस्था में सबसे प्रथम संसार के प्राणियों को मुक्ति मार्ग का उपदेश दिया था।
वैष्णव सम्प्रदाय में ईश्वर के २४ अवतार माने गये हैं उनमें से भगवान् ऋषभनाथ को छठे अवतार के रूप में माना गया है। भागवत् पुराण में भगवान् ऋषभनाथ का वृतान्त जैन ग्रन्थों से मिलता जुलता लिखा हुआ है।
वैष्णव सम्प्रदाय में एक बाल ब्रह्मचारी, परम तपस्वी, नग्न दिगम्बर, ‘शुकदेव‘ जी, नामक साधु हुए हैं, उन्होंने ईश्वर के २४ अवतारों में से केवल ‘ऋषभ अवतार‘ को नमस्कार किया है।
जब लोगों ने श्री शुकदेव जी से इसका कारण पूछा कि आप अन्य अवतारों को नमस्कार क्यों नहीं करते ? तब उन्होंने बड़ी गंभीरता के साथ उत्तर दिया कि-
‘अन्य अवतारों ने संसार का मार्ग चलाया ऋषभदेव जी ने मुक्ति का मार्ग चलाया है। इसलिये मुक्ति की इच्छा से ऋषभदेव जी को नमस्कार करता हूँ। जो स्त्री पुरुष संसार सागर से पार होना चाहते हैं। कर्म बंधन काट कर सदा के लिये पूर्ण स्वतंत्र होना चाहते हैं, उनको संसार साग से पारगामी, घाति कर्म बंधन से मुक्त, मुक्तिमार्ग के प्रदर्शक, परमशुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानंद अर्हन्त परमात्मा का श्रद्धालु भक्त बनना चाहिये।
इस कारण अर्हन्त भगवान् की भक्ति क्रमशः भक्त को एक दिन भगवान् बनाने का सुगम साधन है। उसके द्वारा तीर्थंकर बंध-बंध जावे, इसमें तो आश्चर्य ही क्या है ?