जिनवाणी के प्रतिपादक शास्त्रों की भक्ति करना प्रवचन भक्ति है।
अर्थात् - केवलज्ञान द्वारा जितना कुछ तीर्थंकर जानते हैं, उनके अनन्तवें भाग उनको ध्वनि से प्रतिपादन होता है और जितना उनकी दिव्यध्वनि से कहा जाता है, उसके अनन्तवें भाग विषय द्वादशांग श्रुत में गूथा जाता है। यानी-द्वादशांग से अनंतगुणा पदार्थ केवल ज्ञान द्वारा जाना जाता है। तीर्थंकर की ध्वनि जाने हुये समस्त पदार्थ केवल ज्ञान द्वारा जाना जाता है। तीर्थंकर की ध्वनि जाने हुये समस्त पदार्थ को नहीं कह सकती, उसके अनन्तवें भाग को ही कह सकती है। और जितनी दिव्यध्वनि द्वारा कहा जाता है वह सब का सब द्वादशांग श्रुत में नहीं रचा जाता, अनन्तवें भाग प्रमाण ही श्रुत रचना में आता है।
द्वादशांग श्रुतज्ञान पहले कुछ समय तक मौखिक रूप से गुरु शिष्य परम्परा द्वारा चलता रहता है। गुरु अपने शिष्यों को मौखिक पढ़ा देते हैं और शिष्य उसको याद कर लेते हैं। लिखकर याद करने की पद्धति नहीं होती।
परंतु जब क्रमशः मनुष्यों की स्मरण शक्ति, धारणा शक्ति क्षीण हो जाती है, पढ़ाया हुआ समस्त याद नहीं हो पाता, उस समय द्वादशांग श्रुत का कुछ भाग किसी को स्मरण रहता है, कुछ किसी को पूर्ण श्रुतज्ञान किसी को स्मरण नहीं रहता। उसका सारांश स्मरण रहता है। इस तरह बहुत सा श्रुत स्मरण शक्ति की निर्बलता के कारण विस्तृत (भूल) हो जाता है।
तीर्थंकर के मुख कमल से उदित, गणधर देव द्वारा द्वादश अंगों में गुम्फित, गुरु-शिष्य परम्परा से प्रवाहित जिनवाणी सर्वथा नष्ट न हो जावे, आगामी समय में भी जनता का हित सम्पादन करती रहे, इस पुनीत भावना से शेष बचे हुये श्रुतज्ञान को वे मुनिराज शास्त्रों के रूप में लिखा देते हैं। उन्हीं शास्त्रों को प्रवचन कहते हैं।
संसार में अन्य भी बहुत से शास्त्र हैं और वे भी अपने आप को ईश्वर की वाणी बतलाते हैं। परंतु उनकी निष्पक्ष रूप से देखने पर उन ग्रन्थों के मानने वालों को भी मान्यता यही होती है कि ये ग्रन्थ ईश्वर की वाणी नहीं है। वैदिक सम्प्रदाय वेदों की ईश्वरीय वाणी कहता हैं किंन्तु वेद यदि सचमुच ईश्वर प्ररूप शास्त्र होते तो उनमें अपने शत्रुओं को माने का, घोड़े आदि जीवों को मार कर अश्वमेघ आदि यज्ञ करने का विधान न होता, क्योंकि ईश्वर तो सबका पिता कहा जाता है। गाय, घोड़े तथा शत्रु समझे जाने वाले मनुष्य आदि सभी उसके पुत्र तुल्य हैं फिर उनको मारने का उपदेश वह कैसे दे सकते हैं। सोऽहं शर्मा ने इस विषय में बहुत खुलासा लिखा है। लाला लाजपतराय आदि अनेक विद्वान भी वेदों को ईश्वरीय वाणी नहीं मानते। स्थानाभाव से हम इस विषय पर उल्लिखित प्रमाण यहां नहीं दे रहे हैं।
ईसाई इंजील को ईश्वरीय पुस्तक मानते हैं यह मानना भी गलत हैं क्योंकि इंजील में भी सिर्फ मनुष्य की रक्षा का उपदेश है। जानवरों की रक्षा का उपदेश वहां भी नहीं है। मुर्गी आदि जानवरों को मार कर ईश्वर को भेंट करने की बात वहां भी मिलती है। इस लिये इंजील का गोड (ईश्वर) कम से कम जानवरों का हितैषी पिता तो नहीं माना जा सकता।
मुसलमान लोग कुरान को खुदा का कलाम (ईश्वर का वचन) बतलाते हैं परंतु कुरान में काफिरों (नास्तिकों-कुरान को न मानने वालों) को कत्ल कर देना अच्छा काम बतलाया गया है। खुदा के नाम पर बकरा गाय आदि की कुर्बानी (मार कर भेंट) का विधान किया है। तो क्या कुरान का खुदा केवल मुसलमानों का ही खुदा (परमपिता ईश्वर) है जो मुसलमानों के सिवाय हिन्दू, जैन, बौद्ध ईसाइयों का रक्षक खुदा नहीं है अन्यथा काफिरों को मारने की अनुमति (इजाजत) अपने कलाम में क्यों देता ?
जिनवाणी रूप जैनशास्त्र इस कारण ईश्वर की यथार्थ वाणी कहलाने के अधिकारी हैं कि उन में कहीं भी किसी भी जीव को, वह चाहे जैन हो या जैनेतर, मनुष्य हो या पशु, छोटा हो या बड़ा, एकेन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय-मारने कूटने, सताने या मानसिक शारीरिक कोई भी कष्ट देने का रंचमात्र भी उपदेश, आदेश या विधान नहीं है, जगत् के प्राणीमात्र की रक्षा करने का हित उपदेश उनमें सब जगह दिया गया है।
जैन शास्त्र में कहीं भी परस्पर विरोधी कथन नहीं मिलता है। जैन सिद्धांत की कोई भी बात युक्ति से खण्डित नहीं होती। स्याद्वाद सिद्धांत द्वारा पदार्थों का सत्य निर्णय किया जाता है। इस कारण जैन शास्त्र ही सर्वहितकारी यथार्थ में ईश्वर-वाणी माने जा सकते हैं।
जिनवाणी का कोई व्यक्ति स्वाध्याय करे, पढ़े, पढ़ावे, मनन करे उसके हृदय में शुभ विचार उत्पन्न होते हैं, हिंसक भावना, द्वेष भावना, अन्य व्यक्तियों से घृणा करने के परिणाम पैदा नहीं होते। इसीलिए जैन शास्त्रों के सुनने सुनाने से सबका कल्याण होता है।
शास्त्रों को विनय - पूर्वक, शुद्ध होकर चैकी आदि पर विराजमान करके स्वाध्याय करना चाहिये। सूतक पातक में अशुद्धि के समय शास्त्रों को स्पर्श न करना चाहिए। शास्त्रों का गत्ता-पुट्ठा, बेठन आदि अच्छी तरह बांधकर सावधानी से अलमानी में विराजमान करना चािहये और समय समय पर उनको धूप दिखानी चाहिए जिससे उनको सील न लगने पावे। शास्त्रों के स्वाध्याय से ज्ञान के पर्दे खुल जाते हैं, बिना गुरु से पढ़े स्वाध्याय करने पर सिद्धांत का ज्ञान हो जाता है। इस कारण प्रवचन भक्ति (शास्त्र भक्ति) बहुत उपयोगी भावना है।
जिनवाणी को चार भागों में विभक्त किया गया है-(१) प्रथमानुयोग, (२) करणानुयोग, (३) चरणानुयोग, (४) द्रव्यानुयोग।
जिन ग्रन्थों में २४ तीर्थंकरों, १२ चक्रवर्तियों, ९ बलभद्रों, ९ नारायणों, ९ प्रतिनारायणों इन ६३ शलाका पुरुषों तथा नारद, कामदेव आदि अन्य विशेष पुरुषों का ऐतिहासिक वर्णन होता है जिसके द्वारा पुण्यकर्म, पापकर्म के परिणाम पर प्रकाश पड़ता है। शुद्धोपयोग द्वारा आत्मसिद्धि करके मुक्ति प्राप्त करने वालों का विवरण जिनमें पाया जाता है तथा प्रसंगानुसार जिनमें अन्य अनुयोगों की बातें भी पाई जाती हैं वे ग्रन्थ प्रथमानयोग के हैं। जैसे-आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंश पुराण, पद्मपुराण, पाण्डव पुराण, नेमिपुराण, पाश्र्वपुराण, महावीर-पुराण, प्रद्युम्नचरित, जीवन्धर चरित्र आदि कथाग्रंथ।
करण शब्द के दो अर्थ हैं-१ परिणाम, २ लोकस्थिति तथा कालपरिवर्तन। जिन ग्रन्थों मे गुणस्थानों के अनुसार जीव के परिणामों का वर्णन है जैसे लब्धिसार, क्षपणासार आदि वे करणानुयोग के ग्रन्थ हैं तथा तिलोयपण्णति-त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ भी करणानुयोग (श्री समन्तभद्र आचार्य के मतानुसार) के हैं। इनके स्वाध्याय से जीव के परिणामों के विषय में तथा लोकाकाश के विषय में, कालचक्र के परिवर्तन के विषय मे परिज्ञान होता है।
जिन ग्रन्थों में मुनि आचार का, उपाध्याय, आचार्य परमेष्ठी की क्रियाओं का विस्तृत विवरण है, पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक श्रावकों, उनकी ११ प्रतिमाओं के आचरण का विवरण दिया गया है वे ग्रन्थ चरणानुयोग के हैं। जैसे मूलाचार, भगवती आराधना, आचारसार, चारित्रसार, रत्नकरण्ड-श्रावकाचार, वसुनन्दि श्रावकाचार आदि ग्रन्थ।
जिन ग्रन्थों में ६ द्रव्य, ५ अस्तिकाय, ९ पदार्थ, ७ तत्व, ६ काय आदि का वर्णन होता है, वे ग्रन्थ द्रव्यानुयोग के हैं, जैसे षट्खण्डागम, तत्वार्थसूत्र (इसमें अन्य अनुयोग भी हैं) तत्वार्थसार समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, द्रव्यसंग्रह आदि ग्रन्थ।
प्रत्येक आत्म - हितैषी की चारों अनुयोगों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जिन व्यक्तियों को सिद्धांत का ज्ञान नहीं है, उन्हें प्रथमानुयोग के ग्रन्थों का स्वाध्याय प्रारंभ करना चाहिये।
बिदुशी भूरीबाई शास्त्रों का स्वाध्याय करते-करते जैन सिद्धांत में बहुत विदुषी बन गई थीं।
इस कारण प्रवचन भक्ति द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपना ज्ञान विकसित करना चाहिये। ज्ञान ही ऐसा महत्वशाली प्रकाश है जिससे स्व-पर पदार्थ स्पष्ट ज्ञान हो जाते हैं।