|| आश्वयकापरिहाणी ||

समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग ये ६ आवश्यक साधुओं के होते हैं। इस दैनिक कार्यों में लेशमात्र भी कमी न आने देना, यथासमय यथाविधि प्रत्येक आवश्यक का करना आवश्यकापरिहाणि भावना है।

समता

आत्मा में क्षोभ, राग और द्वेष के कारण हुआ करता है। किसी अन्य वस्तु को अपनी प्रिय वस्तु मान कर उसके साथ मोही आत्मा राग भाव करता है और किसी पदाथ को अपने लिये हानिकारक कल्पना करके उस पदार्थ के साथ द्वेष या घृणा करता है। वास्तव में देखा जावे तो संसार में न कोई पदार्थ अच्छा है, न बुरा। सब अपने-अपने रूप से परिणमन कर रहे हैं।

सूर्य उदय होता है सब संसार में प्रकाश हो जाता है; कमल आदि अनेक पुष्प खिलते हैं समस्त पुरुष स्त्री अपने अपने कार्य में लग जाते हैं, किन्तु सूर्य का प्रकाश चमगादड़, उल्लू, चोरों को नहीं सुहाता, उनको बुरा लगता है। अब विचार कीजिये सूर्य का उदय होना या सूर्य का प्रकाश अच्छा है या बुरा ?

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ऐसी ही बात संसार के सभी पदार्थों की है। अतः किसी से प्रेम करना, किसी से द्वेष करना आत्मा की अपनी गलत धारणा का परिणाम हैं। इसलिए राग, द्वेष से आत्मा को परतंत्र बनाने वाला कर्मबंध होता है। अतः आत्मा यदि स्वतंत्र होना चाहे तो उसको अपने राग द्वेष पर नियंत्रण (कन्ट्रोल) करके समता ( न किसी से प्रेम, न किसी से द्वेष) भाव लाना पड़ेगा। इसी समता भाव के लाने की क्रिया का दूसरा नाम सामायिक है।

तदनुसार मुनिजन प्रतिदिन प्रातः दोपहर तथा संध्या को संसार के समस्त पदार्थों से राग द्वेष का त्याग करके एक अचल आसन से आत्मचिंतन करते हैं। यह समता या सामायिक नाम का आवश्यक है।

भगवान् जिनेन्द्र देव परमशुद्ध परमात्मा है, मुनिगण के लिए तथा समस्त विश्व के लिये परम आदर्श है। मुनिगण की तपस्या का उद्देश्य अपने आपको कर्म-कषाय विजेता ‘जिनेन्द्र‘ बनाना है। इसलिये वे प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान् को परम आराध्य देव मानकर उसको हाथ जोड़कर सिर झुकाते हुए विनय भाव के साथ नमस्कार करते हैं यह वंदना नामक आवश्यक है।

अपने पूज्य व्यक्ति के गुणों को भक्ति के साथ कहना स्तुति या स्तवन है। साधुगण प्रतिदिन श्री जिनेन्द्रदेव की बड़े विनय और भक्ति के साथ स्तुति किया करते हैं। यह साधुओं का स्तुति नामक तीसरा आवश्यक कर्म हैं।

भोजन करने में मल-मूत्र विसर्जन करने में, आने-जाने में बातचीत करने में जो अन्य जीवों को बाधा या कुछ सावद्य योग हो जाया करता हैं उससे शुद्ध होने के लिए मुनिजन जो प्रतिदिन मिच्छामी दुक्कडं‘ यानी मेरा दुष्कृत (परजीवों को बाधाकारक कार्य) मिथ्या हो जावे, मेरे साथ न रहें, छूट जावे। इस तरह पाठ करते हुए अपनी मनोवृत्ति का परिमार्जन (संशोधन) करते हैं उसको प्रतिक्रमण कहते हैं।

अपना ज्ञान विकसित करने के लिए शास्त्रों का अभ्यास, शंका समाधान, पाठ करना मनन करना, पढ़ना-पढ़ाना आदि आवश्यक हैं, क्योंकि बिना अभ्यास के ज्ञान की चमक फीकी हो जाती है। अतः मुनिराज प्रतिदिन शास्त्रों का स्वाध्याय किया करते हैं। शास्त्र चर्चा करते हैं, उपदेश देते हैं, पाठ करते हैं, पढ़ाते हैं। अनेक विषयों का चिन्तवन करते हैं। यह मुनियों का स्वाध्याय नामक आवश्यक कर्म है।

शरीर से मोह ममता दूर करने के लिए तथा आत्म-शुद्धि के लिए खड़े होकर जो आत्मध्यान करते हें उसे कायोत्सर्ग कहते हैं। अन्य वस्तुओं से ममता छोड़ देना तो फिर भी सरल है किंतु अपने शरीर से मोह ममता छूटना बहुत कठिन है। परंतु जब तक शरीर का मोह न छूटेगा तब तक आत्म-शुद्धि होना असंभव है। इसी शरीर की ममता को दूर करने के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है।

इन छह आवश्यक कार्यों को प्रतिदिन यथाविधि यथासमय करना उनमें लेशमात्र भी कमी न होने देना आवश्यकापरिहाणि भावना है।

श्रावक के भी दैनिक ६ आवश्यक धर्म हैं-१ देव पूजा २ गुरु उपासना ३ स्वाध्याय ४ संयम ५ तप ६ दान।

जिनेन्द्र देव की बड़ी भक्ति से विधि अनुसार अष्ट द्रव्य से पूजन करना, अभिषेक करना, अर्घ देना देव पूजा है।

आचार्य, उपाध्याय, साधु धर्म-गुरु हैं, उनकी भक्ति-पूजन करना, स्तुति करना गुरु उपासना है। यदि गुरु साक्षात् उपस्थित न हों तो बड़े आदर के साथ उनकी स्तुति विनती पढ़ते हुए आह्लादचित्त होना चाहिए।

शास्त्रों का पढ़ना, शास्त्र सुनाना, शास्त्र सुनना, धर्म चर्चा करना, शंका समाधान करना, शास्त्रीय विषय अभ्यास (याद) करना आदि कार्य स्वाध्याय है।

इन्द्रियों के विषय भोगों की ओर से हटाकर अपने वश में करना, जीव रक्षा में सावधान रहना संयम है।

विषय - भोगों की इच्छाओं को रोक कर उपवास, एकाशन आदि करना तप है। मुनि आदि पात्रों को भक्ति के साथ तथा दीन-दुखियों को करुणा के साथ भोजन आदि देना दान है। श्रावक को प्रतिदिन ये ६ कार्य अवश्य करना चाहिये।

मनुष्य जिस प्रकार सांसारिक कार्यों को परम आवश्यक समझ कर उनके लिये अपने जीवन का अमूल्य समय लगा देता है, परिवार के पालन-पोषण में, अपने शरीर के श्रृंगार करने में, इन्द्रियों को विविध विषय-भोगों द्वारा तृप्त करने में तथा अने उपायों द्वारा धन संचय करने में अपनी आयु का प्रायः समस्त भाग खपा डालता है। किंतु उससे लाभ क्या उठाता है- नरक तिर्यंच आदि दुर्गतियों में ले जाने वाला पाप कर्मों का संचय। जिससे कि आत्मा को अनेक तरह की वेदनाएं भोगनी पड़ती हैं। यदि यह सांसारिक कार्यों के समान आध्यात्मिक कार्यों को भी आवश्यक समझ ले और उन्हें भी यथासमय प्रतिदिन अवश्य करता रहे उनमें भी कमी न आने दे तो इसका कर्मभार हल्का होता जावे पाप संच की जड़ सूखती जावे, आत्मा प्रगतिशील, सुखी हो जावे। किंतु खेद है कि अधिक लाभ देने वाली जिस आध्यात्मिक वार्ता की ओर इसे अधिक रुचि रखनी चाहिये उधर ही यह ध्यान नहीं देता। अतः बुद्धिमान मनुष्य वह है जो अपने आत्मा को सुखी सन्तोषी बनाने को अपने दैनिक धर्म आचरण के लिये यथेष्ट समय निकालता है तथा उन धार्मिक कार्योंं को खूब मन लगा कर करता है।

दर्शन, पूजा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान आदि धार्मिक कार्यों को करने के सिवाय पुत्र, स्त्री, माता, पिता आदि के पालन-पोषण, सेवा, शुश्रुषा करते समय भी हृदय में यह श्रद्धा रखनी चाहिये कि मेरे नहीं हैं, दैवयोग से कुछ दिनों के लिये उनका मेरे साथ सहयोग हो गया हैं, कुछ दिनों में यह विघट जायेगा, मेरा पिता मर कर मेरा पुत्र भी हो सकता है, माता मर कर पुत्री बन सकती है, ऐसा विचार करके उनसे गाढा स्नेह न करे, उनसे ममता भाव थोड़ा रक्खे।

इसी तरह शरीर की सेवा केवल इतनी करे जिससे शरीर स्वस्थ बना रहे, धार्मिक तथा व्यावहारिक कार्य करने योग्य शरीर में बल तथा स्फूर्ति बनी रहे। इन्द्रियों को भी विषय-भोगों के साथ इतना ही सम्पर्क जोड़ने दे जिससे वे अपने नियंत्रण से बाहर न जाने पावें, निरंकुश होकर आत्मा के लिये आफत न बनाने पावें।

धन संचय करते समय सदा यह ध्यान रखना चाहिये कि जिस तरह मधुमक्खी फूलों से रस लेते समय फूलों को कुछ नष्ट नहीं देती, इसी तरह मैं भी धन नीति, न्याय तथा दया के साथ संचय करूं जिससे न तो मेरे मन में कोई दुर्भावना उत्पन्न हो, न किसी अन्य व्यक्ति को दुःख पहुँचे। झूठ, धोखा, चोरी, बेईमानी आदि न करना पड़े, किसी से विश्वासघात न करना पड़े।

इसके अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री-पुरुष को प्रतिदिन आत्मशुद्धि भी करते रहना चाहिये, जिस तरह शरीर का मैल उतारने के लिये प्रतिदिन स्नान करते हैं, इसी तरह मन का मैल दूर करने के लिये प्रतिदिन भगवान् के सामने आलोचना पाठ पढ़कर अपने दोषों की आलोचना करें एकांत में बैठकर दिन भर किये हुए पापों का पाश्चाताप करें और आगामी जीवन में वैसा पाप न करने का संकल्प करे। ऐसा करने से मनुष्य का हृदय स्वच्छ होता रहता है, उसका मैल धुलता रहता है और वह भगवान् को अपने भीतर बिठाने योग्य बनता रहता है।