मुनि तपवस्वियों पर आये हुए उपसर्ग का निवारण करना साधु समाधि है, अथवा समाधि से (धर्म ध्यान पूर्वक) शरीर का परित्याग करना साधु समाधि है।
महाव्रती साधु संसार के सबसे अधिक उपकारी महात्मा हैं, वे अपने लिये संसार से कुछ नहीं लेते। जिस प्रकार मधु मक्खी फूलों को बिना कुछ कष्ट पहूँचाये उनसे रस लिया करती हैं इसी प्रकार महाव्रती मुनि भी अपनी शरीर स्थिति के लिये थोड़ा सा रूखा शुद्ध भोजन दाता को बिना कुछ कष्ट दिये ग्रहण करते हैं और अपना समस्त समय आत्म-शोधन और लोक-कल्याण में व्यतीत करते हैं।
ऐसे साधुओं की जीवनचर्या जगत् के लिये बहुत लाभदायक हैं, अतः किसी कष्ट या उपसर्ग से उनको रक्षा करना धर्म प्रेमी सज्जन का मुख्य कर्तव्य है। संसार में अनेक दुष्ट पुरुष, ऐसे भी हुआ करते हैं जो आकरण ऐसे शांत निःस्पृह साधु महात्माओं को कष्ट पहुँचाते हैं, गालियाँ देते हैं, मारते हैं, उनके ऊपर प्राणनाशक उपद्रव करते हैं। जैसे कि प्राचीन समय में गजकुमार पर, पाँचों पाण्डव भ्राताओं, आदि पर दुष्ट निर्दय मनुष्यों ने उपसर्ग किये। आये हुए उपसर्ग को मुनि तो अपनी परीक्षा का समय समझ कर शांति, धीरता तथा क्षमा से सहन करते हैं। शक्ति रहते हुए भी मुनि उस उपसर्ग का निवारण नहीं करते, न जरा भी मन में क्रोध, क्षोम, क्लेश व विकार की भावना मन में नहीं आने देते हैं, अपितु उस समय आत्म ध्यान में निमग्न हो जाते हैं। इस तरह अविकार रूप से उपसर्ग सह कर थोड़े ही समय में वे ही बहुत भारी लाभ (मुक्ति, सर्वार्थसिद्धि आदि) प्राप्त कर लेते हैं, परंतु उपसर्ग के कारण उनका अवसान हो जाने के कारण संसार कोे जो उनसे लाभ होना चाहिए था वह नहीं हो पाता।
इस कारण समाज हितैषी धार्मिक सज्जनों का कर्तव्य है कि यदि कभी कहीं मुनिराजों पर उपसर्ग आवें तो उसको ठीक तरह से दूर करने की पूर्ण चेष्टा अवश्य करें। धर्म-गुरु से बढ़कर पूज्य व्यक्ति दूसरा नहीं होता इसलिये गुरु का उपसर्ग दूर करने के लिये तन मन धन सर्वस्व अर्पण कर देना चाहिए।
एक गुफा मे बैठे हुए आत्मलीन मुनिराज की गंध पाकर सिंह जब उनको भक्षण करने के लिए गुफा की ओर झपटा। तब वहीं बैठे हुए एक शूकर ने उस सिंह का अभिप्राय जान कर मुनि के प्राण बचाने के लिये सिंह को गुफा में जाने से रोका। सिंह अपने बल मद में चूर था अतः शूकर के रोकने पर भी गुफा में घुसने लगा, तब मुनि महाराज को जरा भी आँच न आने देने के अभिप्राय से सूअर सिंह के साथ भिड़ गया। इस तरह सिंह और सूअर का युद्ध आरंभ हो गया। सिंह अपने पंजों से सूअर को घायल करने लगा और सूअर अपने खीसों (बाहर निकले हुये दांतों) से सिंह का शरीर क्षत विक्षत करने लगा। इस तरह दोनों आपस में लडते भिडते मर गये। परंतु सूअर ने मुनि महाराज, की रक्षा के लिये प्राण त्यागे इस कारण वह मर कर देव हुआ और सिंह ने मुनि को मार कर खाने के भाव से प्राण को छोड़ा इस कारण वह मर कर नरक गया।
इस तरह रत्नत्रय के भंडार, शांति के पुंज, परम दयालु मुनि महाराज पर आये हुये उपसर्ग को मिटाने के लिये यदि अपने प्राण भी अर्पण करना पड़े तो धार्मिक पुरुष को उससे भी पीछे न हटना चाहिए। साधु समाधि का एक अभिप्राय तो यह है।
दूसरा तात्पर्य समाधिमरण है। वैसे तो यह शरीर संसार में सबसे अधिक घृणित अपवित्र पदार्थ है। रक्त, पीप, मांस, चर्बी, हड्डी, मल, मूत्र, कफ आदि सभी गंदे पदार्थ इस शरीर मे भरे हुये हैं। यदि शरीर पर चमकदार चमड़े की खाल न चढ़ी हो तो कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी इसकी ओर नहीं देख सकता। परंतु इसी अपवित्र घृणित शरीर में ज्ञान दर्शन सुख आदि गुणों की ध्वनि आत्मा में निवास करती हैं, इस कारण इस शरीर को संसार पूजता हैं, मानता हैं, इसका आदर सत्कार होता हैं, लोग इसको नमस्कार करते हैं।
शरीर पुद्गलिक है, पुद्गल का स्वभाव पूरण और गलत रूप है तदनुसार शरीर प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है। क्षीण होते-होते एक दिन ऐसा आता है कि शरीर का पूरा पतन हो जाता है उस समय आत्मा शरीर को अपने लिये अयोग्य समझ कर छोड़ देती है और नये बने हुये मकान में जा ठहरती है। उस आत्मा के बाहर निकलते ही शरीर अग्नि में भस्म कर दिया जाता है। क्योेंकि आत्मा के निकलते ही उसका रूप भयानक हो जाता है, उसमें से बहुत दुर्गन्ध आने लगती है।
इस तरह से कभी शरीर का जन्म होता है और कभी उसका मरण भी अवश्य होता है। शरीर की जीवित अवस्था मे आत्मा भगवान् के दर्शन, पूजन, स्तवन करके, गुरु-वंदना, गुरु उपदेश श्रवण करके, शास्त्र-स्वाध्याय करकेे, दान देकर, अनेक पुण्यकर्म उपार्जन करता है। अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रह्मचर्य, क्षमा, शांति, धैर्य आदि अनेक सद्गुणों का विकास करता है। सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र रूप रत्नत्रय का संचय करता है। शरीर छोड़ते समय आत्मा की यह सब निधि उससे न छूट जावे‘ इस बात का विचार विचारशील मनुष्य अवश्य किया करते हैं।
यदि किसी मकान में आग लगे तो पहले तो उस आग को बुझाने का उपाय किया जाता है। यदि आग बुझती है न दिखे तो उस समय मकान में रखा हुआ रत्न, सुवर्ण चांदी आदि निधि को सुरक्षित निकाल लेने का प्रयत्न किया जाता है जिससे वह धन भंडान अग्नि में नष्ट होने से बच जावे।
ठसी तरह जब किसी रोग ने शरीर को आ घेरा ही तब पहले तो उस रोग को शांत करने के लिये अनेक उपचार किये जाते हैं। यदि औषध चिकित्सा से शरीर बचता न दीखे, अथवा अकस्मात् (अचानक) पानी में डूबने, आग में जलने या अन्य किसी दुर्घटना से शरीर छूटता हुआ दीखे उस समय बुद्धिमान् पुरुष को शरीर की ओर से दृष्टि से हटाकर आत्मा की ओर ध्यान देना चाहिये। आत्मा में अशांति अकुलता, शोक, राग, मोह, ममता आदि के दुर्भाव विकास रूप परिणाम न जाग्रत होने पावें, शांति, क्षमा, ज्ञान, वैराग्य बना रहे मुख से भगवान् का नाम निकल रहा हो, मन में भी भगवान् का चिन्तवन हो रहा हो, ऐसी व्यवस्था बुद्धिमान् पुरुष बना लेता हैं।
इसका एक विशेष कारण यह है कि मृत्यु समय प्रायः आगामी भव की आयु बँध करती हैं, अतः ‘अंत मति सो गति‘ यानि-मरण समय जैसे भाव होंगे वैसी ही गति मिलेगी। यह कहावत सत्य है। इसलिए मरण के समय भोजन पान कम करते हुए अंत में सब कुछ खाना पीना छोड़ दे, शरीर, पुत्र, स्त्री, भ्राता, मित्र आदि से ममता तोड़कर तथा शत्रु से द्वेष भाव त्याग करके भगवान् का ध्यान करते हुए शांति के साथ शरीर छोड़ें जिससे अच्छी गति प्राप्त हो। इसी का नाम साधुसमाधि या समाधिमरण है।
वैसे तो संसार में अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अनेक मित्र बन जाते हैं परंतु सच्चा मित्र वही है जो कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग पर लगावे, अपने मित्र का अपयश न होने दे, अपने मित्र को पापपंक मंे न फंसने दे, अपने मित्र का पतन न होने दे, विपत्ति के समय अपने मित्र का साथ दे।
नीति शास्त्र में बतलाया है-
अर्थात-सच्चे मित्र के ये लक्षण हैं-जो अपने मित्र को पाप मार्ग से हटाता हो, हित मार्ग में लगाता हो, गुप्त बात को प्रगट न करें, मित्र के गुणों को प्रगट करें, आपत्ति के समय मित्र का साथ न छोड़े और आवश्यकता पड़ने पर सहायता प्रदान करें।
जीवित दशा में जबकि मनुष्य के हाथ पैर चलते हैं, शरीर काम करता है, उस समय कदाचित् मित्र की सहायता प्राप्त न होवे, तो उतनी हानि नहीं है जितनी कि मृत्यु निकट आने पर सहायता न मिलने से हानि होती है, अतः सच्चे मित्र को अपने मित्र के समाधिमरण में पूर्ण सहायता प्रदान करनी चाहिए। समाधि मरण कराने-जैसा उपकार जीव का और कोई नहीं है।