।। श्रावक के षट् अवश्यक कर्म : जिनेन्द्रदेव की पूजा ।।

विशेषार्थ - अर्थ, निधि, रत्न आदि को धन कहते हैं। धर्म का लक्षण चारित्र, दया, वस्तु-स्वभाव, आत्मोपलब्धि अथवा उत्तमक्षमा आदि है। काम का अर्थ अर्धमाण्डलिक, माण्डलिक-महामाण्डलिक, बलभद्र, नारायण चक्रवर्ती, इन्द्र धरणेन्द्र और तीर्थंकर के भोग हैं। ज्ञान का अर्थ केवल ज्ञान रूप ज्योति है। जो इन अर्थ, धर्म आदि को देता है वह देव है जसि मनुष्य के पास जो वस्तु होती है उसे ही वह देता है। अविद्यमान वस्तु को देने के लिए कोई समर्थ हो सकता है? इस तरह यह सिद्ध हुआ कि जिसके पास अर्थ-धन है वह अर्थ-धन देता है, जिसे पास प्रव्ज्या-दीक्षा है वह केवल ज्ञान की प्राप्ति में कारणभूत दीक्षा को देता है और जिसके पास सब सुख हैं वह सुख प्रदान करता है। जैसा कि गुणभद्राचार्य ने कहा है -

सर्वःप्रेप्सति।

अर्थात समस्त प्राणी शीघ्र ही समीचीन सुख प्राप्ति की इच्छा करते हैं, सुख की प्राप्ति समस्त कर्मों के क्षय से होती है, समस्त कर्मों का क्षय सद्वृत्त-सम्यक् चारित्र से होता है। सद्वृत-सम्यक्चारित्र ज्ञान के आधीन है, ज्ञान आगम से होता है, आगम श्रुति से होता है, श्रुति आप्त से होती है। आप्त (भगवान) समस्त दोषें से रहित होते हैं और दोष रागदिभाव हैं अतः सत्पुरूषों की लक्ष्मी े लिए युक्ति पूर्वक विचार कर सर्वसुखदायी उस आप्त (भगवान जिनेन्द्र) की उपासना सदैव करते रहें।

श्रीमद्वादीभ सिंह सूरि विचरित ‘क्षत्र-चूड़ामणि’ के मंगलाचरण में इस प्रकार लिखा है -

श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद भक्तानां वः समीहितम्।
यद्ीाक्तिः शुक्लत्तामेति, मुक्ति-कन्याकरग्रहे।।1।।

भावार्थ - जिस प्रकार किसी कन्या के साथ विवाह करने में पैसा सहायक होता है, ठीक उसी प्रकार जिन भगवान की भक्ति मुक्तिरूपी कन्या को प्राप्त करने में सहायक होती है। और भी कहा है -

जन्मजीर्णाटवीमध्ये, जनुषान्धस्य में सती।
सन्मार्गें भगवद्ीाक्तिर्भवतान्मुक्तदायिनी।।34।। क्ष.चू.

भावार्थ - जैसे किसी विशाल भयभीत जंगल में मार्गभ्रष्ट किसी जन्मान्ध पुरूष को किसी प्रकार यथार्थ राह मिल जाये, ततो वह अभीष्ट स्थान पर पहुंचकर बहुत सन्तुष्ट होता है, उसी प्रकार हे भगवन्! मैं भी सन्मार्ग को भूलकर अनादिकाल से इस दुःखद सागर में भटक रहा हूं। अब आपसे यही प्रार्थना है कि आपके प्रसाद से मुझे वह समीचीन भक्ति प्राप्त हो, जिससे मैं मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त होकर परम्परा से मुक्ति को प्राप्त कर सकूं और भी अनेक आचार्यों ने पूजन भक्ति के सम्बंध में अनेक शास्त्रों में लिखा हैं -

भव वन में भूले फिरें, मारग मिले न कोय।
जो जिनवर की शरण ले सहज मुक्ति-पथ जोय।।20।।

ज्योति ज्योति से ज्योति जगाओ,
बिखरे हुए मोतियों को माला में सजाओ।
समय निकलने पर फिर हाथ नहीं आता,
पुरूषार्थ करके जैसे भी हो इष्ट को पाओ।।

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