देव शास्त्र गुरू पूजते, निर्मल बनते भाव। पूजा से प्रभु निज मिलें, चूक न जाना दाव।।17।।
जितनी पूजायें करनी हों उतनी सब करने के पश्चात् शाांतिपाठ बोलना चाहिए तदनन्तर पूजन-क्रिया की समाप्ति पर विसर्जन करना चाहिए।
यह पूजन वह पूजन है जो एक दिन भक्त से भगवान बना देती है यदि सच्ची पूजा की जाये। कुछ भाई तो मन्दिरजी में आकर मात्र भगवान का अभिषेक करते हैं, उन्हें भगवान का पूजन अवश्य करना चाहिए। अगर हमारे पास समय न हो तो मात्र एक ही देव-शास्त्र-गुरू का पूजन करके घर चले जायें, परंतु पूजन अवश्य करें। प्रातः काल पूजन-भक्ति करने से हमारा मन पवित्र हो जाता है। दैनिक चर्या सुलभ हो जाती है। हमारे सामने किनी ही विकट समस्यायें क्यों न आयें, सब हल हो जाती हैं। परंतु करें हम सच्चे मन से तीन लोक के नाथ का पूजन, दर्शन स्तुति, वन्दनादि। जब भगवान की भक्ति में, स्तुति में लीन हो जाता है यह मन, तब यह ध्यान नहीं रहता कि भगवान क्या है और मैं क्या हूं। उस समय तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान से मैं साक्षात् बातचीत ही कर रहा हूं। इसी भावुकता में आकर भक्त भगवान को अपने सभी दुःख सुनाना शुरू कर देता है और कहता है कि भगवान इन दुखों को दूर करने की सामथ्र्य आप में ही तो है। मैं क्या भटकूं आपको छोड़कर इधर-उधर, अर्थातआपकी अनुभव मूर्ति को देखकर पुरूषार्थ स्वाभाविक जाग उठता है।
भक्ति की शक्ति बढ़ी, निज गुण दे प्रगटाय। लौकिक की तो बात क्या, शिव सुख दे दर्शाय।।
महाकवि धनंजय एक दिन मंदिरजी में भगवान जिनेन्द्र का पूजन कर रहे थे। करते भी क्यों नहीं? वे श्रावक थे और पूजा करना श्रावक का सर्वप्रथम कर्तव्य है। उसी समय उनके इकलौते, लाडले-पुत्र को एक महान विषैले भुजंग (सर्प) ने काट लिया, तत्काल नौकर ने पुत्र की मां को आवाज लगाते हुए कहा-जल्दी आओ माताजी! आपके पुत्र को सांप ने काट लिया। इतना सुनते ही छोड़ दिया सब काम-काज और दौड़ी जल्दी से अपने लाडत्रले पुत्र को देखने। पुत्र के सारे अंग में जहर फैला देखा। माता का हृदय कांप उठा और नौकर से कहा-जल्दी से सेठजी को लाओ बुलाकर, मंदिरजी में पूजन कर रहा है।
सेवक जाता है दौड़ता हुआ मंदिरजी में और तेजी से आवाज लगाकर बोलता है धनंजय कवि से कि जल्दी चलिये, आपके पुत्र को विषधर ने डस लिया है; परंतु कविराज तो भगवान की भक्ति में लीन थे, उन्होंने नौकर की ओर नजर उठाकर भी नहीं झांका। वह बेचारा वपिस लौट आया। कविराज की धर्मपत्नी ने फिरसे भेजा, परंतु वहां सुनता कौन? कविराज तो लीन थे भगवान के पूजन में, भक्ति में, उनके गुणगान में।
सेवक फिर से लौट आया घर की ओर, और उदास होकर कहने लगा कि वे किसी की नहीं सुनते, अपनी धुन में मस्त हैं, इतना सुनते ही स्वाभाविक था कविराज की पत्नी को गुस्सा आना। उसने रोष में आकर उठाया अपने लाडले को और मंदिरजी में जाकर, जहां कविराज भगवान की पूजन में लीन थे, उसी जगह उनके चरणों में पटक दिया बालक को और कई खरी-खोटी सुनाने लगी। मंदिर में पूजन करने वाले करीब-करीब सभी पूजक व दर्शनार्थी एकत्र हो गये, परंतु अभी तक वि के दिन पर इस बात का कोई असर नहीं था। कुछ ही समय पश्चात कविराज का ध्यान बदला तो देखा कि उनका इकलौता पुत्र बेहोश पड़ा है उनके चरणों मेंै महाकवि धनंजय ने उसी समय विषापहार-स्त्रोत की रचना की और स्तवन करते हुए भगवान से इस प्रकार कहने लगे -
विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रंसमुद्दिश्य रसायनं च। भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति, स्मरन्ति पर्यायनामानि तवैव तानि।।
अर्थात् - शरीर का विष उतारने के लिए लोग मणि, औषधि, मन्त्र-तन्त्र को ढूंढने दौड़ते-फिरते हैं, उनको यह नहीं मालूम कि ये सब आपके ही दूसरे नाम हैं अर्थात् विष उतारने वाली तो सभी कुछ औषधि आप ही हैं भगवान।
भक्ति का यह प्रभाव हुआ कि कविराज का इकलौता पुत्र इस तरह से उठ खड़ा हुआ, मानों सोते से जाग उठा हो। धनंजय फिर भी भगवान की स्तुति में लीन रहे और विषापहार स्त्रोत के 16 पद्यों की रचना फिर भी की। पूजन-विसर्जन करफिर सानन्द पुत्र, पत्नी को साथ लेकर घर आ गये।
एक समय श्री आचार्य मानतुंग जी के साथ भी ऐसी ही एक घटना घटी थी। जब राजा ने पण्डितों के बहकावे में आकर उनकी परीक्षा लेने हेु शक्ति देखने के लिए आचार्यश्री को बन्दी घर (जेल) में बंद कर दिया था, उस समय सनातन धर्म का चमत्कार दिखाने के लिए भगवान की भक्ति करते हुए एक महाप्रभावशाली भक्तामर स्त्रोत की रचना की। और 46 वे पद्य में भगवान से वे इस प्रकार कहने लगे -
आपादकण्ठमुरू श्रृंखल-वेष्टितांगाः गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः। त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरनतः, सद्यः स्वयं विगतबंध भयाः भवन्ति।।41।।
अर्थात कोई मनुष्य पैर से लेकर गर्दन तक जंजीरों से बंधा, जकड़ा बन्दीगृह में पड़ा हो, कठोर लोहे की बेडि़यों से उस अधीर की जांघें छिल गयी हों, किंतु यदि वह आपके पवित्र नाम का हृदय (मन) से स्मरण करे तो उसके समस्त बंधन क्षणभर में ही स्वयं टूट कर गिर जाते हैं।
भक्तामर के इस श्लोक को बोलते ही समस्त बंधन-ताले स्वतः ही टूटकर पृथ्वी पर आ पड़े और आचार्यश्री उसी समय बाहर आ खड़े हुए।
इस प्रकार वादिराज मुनि के शरीर को कोढ़ रोग ने वेष्टित कर लिया था। एक समय राजसभा में राजा के ब्राह्मण मंत्री ने एक जैन सभासद् की मजाक उड़ते हुए राजा से कहा इसके गुरू कोढ़ी हैं।
यह बात आचार्य वादिराज के भक्त को बहुत बुरी लगी और भवुकता के वश कह बैठा कि नहीं, कौन कहता है - मेरे गुरू कोढ़ी हैं, उनकी काया तो स्वर्ण के समान दीप्तिमान हैं। राजा ने दोनों को शांति देते हुए कहा कि अच्छा, कल सबेरे तुम्हारे गुरू के दर्शनार्थ चलेंगे, तब अपने आप मालूम हो जायेगा कि कौन सत्य बोलता है और कौन झूठ?