।। श्रावक के षट् अवश्यक कर्म : जिनेन्द्रदेव की पूजा ।।

पूजन प्रारम्भ

अभिषेक करने के पश्चात् अष्ट द्रव्य का थाल सजाकर चैकी पर रखना चाहिए। एक दूसरे खाली थाल में केसर-चन्दन से स्वस्तिक (सांथिया) बनाकर सामग्री चढ़ाने के लिए रखना चाहिए। एकठोने पर भी स्वास्तिक बनाकर उसे थल से आगे रखना चाहिए। एक या दो पात्र जल, चन्दन चढ़ाने के लिए भी रखना चाहिए।

यह सब साधन जुटाने के बाद णमोकार मंत्र पूर्वक स्वस्ति मंगल विधान (श्री वृषभो नः स्वस्तिः तथा ‘स्वस्ति क्रियासु परमर्षयो नः’ इत्यादि पाठ तक) करना चाहिए। स्वस्ति मंगल-विधान कर लेने पर देव, शास्त्र गुरू, विदेह क्षेत्रस्थ वर्तमान बीस तीर्थंकर सिद्ध परमेष्ठी आदि का पूजन प्रारम्भ करनेसे प्रथम ठोने में उस पूजन सम्बंधी आहृान, स्थापना, सन्निधिकरण करना चाहिए। तत्पश्चात् लीन हो जायं भगवान के गुणों में और उठती हुई भक्ति लहरों में। प्रत्येक द्रव्य भगवान के समक्ष अर्पित करते हुए मन रूपी सागर में निम्न प्रकार भक्ति की लहरें उठनी चाहिए अर्थात् यह भावना भानी चाहिए-

जल चढ़ाते समय
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हे नाथ! इस तृप्ति कर अतुल शांति में विश्राम करते हुए आप तो जन्म, जरा, मरण से अतीत क्षण-क्षण में वर्तने वाले दाहोत्पादक विकल्पों की दाह से दूर स्वयं एक शीतल सागर, निर्मल ज्योति हो। मुझे भी शतीलता प्राप्त हो। इन विकल्पों से मेरी भी रक्षा हो, प्रभु! मैं हूं मुक्ति का इच्छुक, आपका दास; अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए, अलौकिक पवित्रता पाने की जिज्ञासा लिये लौकिक पचित्रता का प्रतीक यह जल लाया हूं आपके चरणों में च्ढ़ाने। एसेी भावना भाते हुए भगवान के चरण-कमलों में जल समर्पित करें।

चन्दन चढ़ाते समय

हे शीतल-सिन्धु! इस शीतल शांत सरोवर में वास करके आपने भव संता पके दाह का नाश कर दयिा है। मुझ संतप्त का दाह भी नष्ट हो, प्रभु! बड़ा खेदखिन्न हो रहा हूं चिन्ताओं का ताप नहीं सहा जा रहा है, अब इच्छाओं की ज्वाला में जल रहा हूं। मेरी भी इच्छा रूपी दाह शांत हो। हे प्रभु! अलौकिक शीतलता की इच्छा लेकर, लौकिक दाह विनाशक यह शीतल चन्दन लाया हूं आपके चरणों में अर्पित करने; ऐसा चिन्तवन करते हुए मंत्र पूर्वक भगवान के सामने चन्दन चढ़ाना चाहिए।

अक्षत चढ़ाते समय

हे अक्षय शांति सागर! हे अतुल निधान! क्षय कर डाली हैं, भग्न कर डाली हैं सब व्याकुलतायें आपने, मोहादि शत्रुओं को परास्त कर अक्षय पद को प्राप्त किया है आने। स्वामी यह अक्षय सुख, शांति मुझे भी मुझ में प्राप्त हो। इसलिये यह अक्षत (बिना टूटे हुए मुक्ताफल अथवा चावल) लेकर आया हूं आपके चरणें में भेंट करने, भावों से समर्पित करने। ऐसा मनन करते हुए इन्हीं भावों के साथ मन्त्र पूर्वक भगवान के समक्ष अक्षत चढ़ाये ंतो हमें निश्चित ही अक्षय पद की प्राप्ति होगी।

पुष्प चढ़ाते समय

हे काम विजयी! शांति-रानी का कम-कमल ग्रहण कर, विश्व-विजयी बनकर इस कामवासना को सदा के लिए परस्त कर दिया है आपने। अब आपके निकट आने की ताकत कहां उसमें? परंतु आप से पराजित हुआ काम आपने क्रोध की ज्वाला में हम जैसे तुच्छ प्राणियों ाके भस्म किये दे रहा है यहां कोई नहीं है बचाने वला । प्रभु! रक्षा हो मेरी, इस काम दुष्ट से। आपकी शरण के सिवाय और किसी की ऐसी शरण नहीं है जहां इसका साया न दिखे। इसलिये इस काम को जीतने की इच्छा से, आपकी शांति का कोमल स्पर्श करने व इसकी सुगन्धित श्वास में अपने को खो जाने की इच्छा लेकर ही यह लौकिक कोमलता व सुगन्धि के प्रतीक पुष्प लाया हूं आपके चरणों में चढ़ाने। इन्हीं भावनाओं के साथ सामने रखी हुई थाली में पुष्प-क्षेपण करें।

नैवेद्य चढ़ाते समय

हे क्षुधा विनाशक! धूल सरीखे इन आकर्षक पर-पदार्थों की अनादि काल से लगी भूख को, शांत कर लिय है आपने। जीत लिया है क्षुधारोग को आपने। मैं भी इसी क्षुधारोग से पीडि़त हूं। तीन लोक की सम्पत्ति का भोग करके भी जो आज तक तृप्त नहीं हुई हैं, ऐसी मेरी भूख भी शांत हो जाये प्रभु! इस अनादिकाल से लगे क्षुधारोग को नष्ट करने की इच्छा से ही यह लौकिक क्षुधा निवारक, स्वादिष्ट, सुन्दर नैवेद्य लाया हूं। आपके चरणों की भेंट करने भगवान! ऐसे भाव जगाते हुए नैवेद्य चढ़ाये ंतो शीघ्रातिशीघ्र हमारे क्षुधारोग की शांति हो जायेगी।

दपी चढ़ाते समय
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हे ज्ञानज्योति! त्रिलोकप्रकाश! आंतरिक अज्ञान अंधकार का विनाश कर अतुल तेज जागृत किया है आपने। कोटि जिहृाओं से भी महिमा नहीं गाई जा सकती - उस तेज, की उस अतुल प्रकाश केवल-ज्योति की, जिस में तीन लोक, तीन कालवर्ती सर्व पदार्थ हाथ पर रखे आंवले की तरह प्रतिभास हो रहे हैं आपको। पर पदार्थों में ही रस लेने में अंधा हुआ आज मैं आपने को भी देखने में समर्थ नहीं हूं। यह प्रकाश मुझे भी प्राप्त हो, ताकि मैं अपने को जान सकूं, मोहान्धकार को नाश कर सकूं, इसलिये केवल ज्योति जगाने के लिए, अपने को प्रकाश में लाने के लिए, लौकिक उजाला करने का प्रतीक यह दीपक आपके पदकमलों में समर्पण करता हूं। इन विचारों के साथ्ज्ञ चढ़ाया हुआ दीपक वास्तव में मुक्तिपथ को प्रकाशित करेगा।

धूप चढ़ाते समय

हे रिपुविजयी! दहन कर दिया है समस्त कर्मकलंकों को आपने, जला दिया हे तप रूपी अग्नि से आपने समस्त विभावपरिणति को। मेरी ओर भी देखों भगवान्! मैं आया हूं आपकी शरण में आपके अनन्त ज्ञान से ज्ञान प्राप्त कर अपने दोष नशाने, कर्मकलंक को जलाने, विभाव परिणति को हटाने। इसलिये यह सुगन्धित धूप चढ़ाने आया हूं आपके चरणों में। इस प्रकार से की हुई भावना के साथ जो धूप होमी जाये तो कर्म कलंक कैसे जले? यह ज्ञान क्षण में ही हो जायेगा।

फल चढ़ाते समय

हे इष्ट फल-प्रदायक! आपको तो आपका लक्ष्यबिन्दु जो शांति, सुख, आनन्द था, उस लक्ष्य की प्राप्ति हो चुकी है, अविनाशी मुक्ति-रूपी फल को प्राप्त कर आप तो उसके स्वाद में मन्न हो रहे हैं कुछ मेरी ओर भी निहारिये प्रभु! मैं भी आपका सेवक हूं, चरणों का दस हूं, मोक्ष फल का भिखारी हूं। इस मोक्षफल की इच्छा लिये दर-दर की ठोकरें खाता रहा, परंतु इसे अभी तक प्राप्त न कर सका। आज आया हूं, आपके द्वार पर, आपने जिस फल को अपने पुरूषाथ्र के बल पर प्राप्त कर लिया है उसे ही पाने के लिए। भगवान! उस अक्ष्य फल की प्राप्ति के लिए ही यह लौकिक फल आपके चरणों में चढ़ाने आया हूं, किसी प्रकार के सांसारिक फल की इच्छा नहीं है प्रभु! मुक्ति फल, बस मुझे प्राप्त हो प्रभु यही मेरी अंतिम भावना है।

द्रव्य पूजन

प्रत्येक द्रव्य समय जो भाव बतायें, अगर उन भावों से पूजन करें तो निश्चित ही भक्त से भगवान बन जायेंगे, संसारी से मुक्त बन जायेंगे, अतः पूजन भावों के साथ ही करें। इसी प्रकार की अनेक उठने वाली अंतरंग की मुध-मधुर कल्पनाओं पर बैठकर ऊंची-2 उ़ाने भरते हुए मानो प्रभु के साथ तन्मय ही हाने जा रहा हूं। इन बाहृ जलादि द्रव्यों से भगवान की अर्चना की जो यह क्रिया है, उसे कहते हैं द्रव्य पूजा, बाहृ पूजा।अंतरंग व बाहृ दोनों अंगों में गंुथी यह है वास्तविक देव पूजा, जो एक शांति-सुख का उपासक, शांति-सुख के आदर्श अपने देव के प्रति करता है। पूजा देव के लिए नहीं, बल्कि अपनी शांति आस्वादन के लिए ही होती है। यह उद्गार तो स्वतः ही प्रवाहित हो उठते हैं। भगवान कर्ता या दाता हनीं हैं - उनके गुणों में अनुराग-भक्ति से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं, पर भक्त भक्ति के प्रवाह में मांग बैठता है उनसे सब कुछ।

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