राजा के मुख से ऐसे वचन सुनकर कि कल चलेंगे दर्शन करने, जैन सभसद बड़ा चिन्तित हुआ। विचारने लगा कि अब क्या करना चाहिए? मरे गुरूजी तो वास्तव में कोढ़ी हैं।उसी समय विपिन में जाता है वादिराज मुनि के पास और जाकर चरणों में गिर जाता है। रोने लगता है, व्याकुल हो रहा है। मुनिराज ने कहा-आज क्या आपत्ति आ गयी तुम्हारे ऊपर? जैन सभासद् बोला-स्वामिन्! आज मेरी लाज उाके हाथ में है, मैंने राजा से प्रसंगवश यह कह दिया कि मेरे गुरू की काया निर्मल है। उन्हें कोई रोग नहीं है। अब मेरी लाज आपके हाथ में है, अगर आपकी काया रोग रहित नहीं हुई तो मेरा जीना कठिन ही है। मुनिराज ने आशीर्वाद देते हुए काह - कोई बात की चिंता मत करो, जाओ अपने घर आनन्द से।
उसी दिन, रात्रि के समय आचार्य वादिराज ने भगवान की भक्ति में लीन होकर एकीभाव स्त्रोत की रचान की। भक्ति में तन्मय होकर चतुर्थ पद्य में इस प्रकार कहने लगे -
प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्य-पुण्यात्, पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम्। ध्यानद्वारं मम रूचिकरं, स्वान्तगेहं प्रविष्टः, तत्किं चित्रं जिनवपुरिदं यत्त्सुवणर््ी करोषि।।4।।
अर्थात -हे जिनेन्द्र, निर्मल मूति! जब आपने अंतिम जन्म लिया तब माता के उदर में आने से पूर्व ही आपके प्रभाव से यह पृथ्वीमण्डल सुनहरा, रत्न वर्षा से पवित्र, सुन्दर हो गया था, यदि ध्यान के द्वारा मैं आपकेो अपने हृदय में बिठा लूं तो क्या यह मेरा शरीर सुनहरा नहीं हो जायगा? अवश्य हो जाना चाहिए।
इस श्लोक को बोलते ही आचार्य वादिराज का कोढ़ क्षणभर में दूर हो गया, काया स्वर्ण के समान पवित्र, सुंदर बन गयी। समस्त प्रजा के साथ प्रातः राजा मुनिदर्शन करने आया, देखा तो उनके शरीर में किसी प्रकार की कोई व्याधि नहीं थी। तब राजा अपने मंत्री पर कुपित हुआ और सभासद् को सत्यवादी जान उस पर प्रसन्न हुआ।
इस तरह जब भगवान की भक्ति में लीन हो जाता है श्रावक अथवा साधु, तो भूल जाता है सिद्धांत को, क्योंकि भक्ति के समय भगवान में अनुराग प्रधान होता है, सिद्धांत नहीं। अनुराग के बिना भक्तिभाव, पूजन, स्तवन, विनय गुण चिन्तन हनीं बन जाते। इसलिए सच्चे देव का पूजन, भक्ति, उनके गुणों का चिन्तन, मनन हमको प्रत्येक दिन करना चाहिए, क्योंकि भक्ति के बिना मुक्ति भी नहीं मिलती। ‘वन्दे तद्गुणलब्धये’ इस सूत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में उनके गुणों की प्राप्ति के लिए ही उनकी वन्दना अर्चना, भक्ति की जाती है। जिनेन्द्रपूज6न-भक्ति के विषय में कई आचार्यों ने भी अनेक प्रकार से लिखा है।
जिनवर भक्त् िजो कर, मन वच तन कर लीन। इस भव में दुख ना लहे, ना भव धरे नवीन।।
प्रज्ञापारमितः स एव ीागवन्! पारं स एवं श्रुत- स्कन्धाब्धेर्गुणरत्नभूषण इति श्लाध्यः स एव ध्रुवम्।ं नीयन्ते जि! येन कर्णहृदयालंकारतां त्वद्गुणाः, संसारहिृविषापहार-मणयस्त्रैलोक्यचूड़ामणेः ।।7।। (जिनचतु0)
भावार्थ - हे त्रैलोक्य तिलक! यह बात सत्य है कि संसाररूपी सर्प के विष को दूर करने के लिए मन्त्र के समान आपके गुणों को अपने कानों से जिसने सुना है, हृदय से धारण किया है, वही मनुष्य इस जगत में महाविद्धान है, वही शास्त्र रूपी सिन्धु को अनायास ही तरने वाला है, गुण रत्नों से विभूषित है, वही प्रशंसनीय है।
इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने स्तुति-विधा नामक ग्रन्थ में कहा है -
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते, हस्तावंजलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि सम्प्रेक्षते। सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नातिपरं सेवेदृशी येन ते, तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृतिस्तेनैव तेजः पतेः।।
भावार्थ - हे तेजपुंज अथिपति! मैं आपकी श्रद्धा में डूबा रहूं, आपका अर्चनमात्र याद रहे, शेष सभी बात मैं भूल जाऊं, मेरे कर अंजलि बद्ध होकर आपके समक्ष मेरी अकिंचन भक्ति का नैवेद्य लिये रहें, कानों से आपकी पवित्र कथा सदैव सुनाई देती रहे, और आंखें त्राटक सिद्ध होरक अनिमेषवृत्ति से आपके दर्शन का लाभ लेती रहे, हे देव! मुझ में किसी प्रकार से व्यसन न हों अगर हो तो आपकी स्तुति करने का, भक्ति करने का व्यसन रहे एवं यह मस्तक आपके चरणों में सदैव झुकता रहे; ये मेरी सभी भावनायें चरितार्थ हों। मैं आपके प्रताप से तेजस्वी, सृजन और पुण्यवान् हूं।
इसी प्रकार महान आचार्य श्री कुन्द कुन्द देव अपने रयणसार ग्रन्थ में लिखते हैं-
पूयाफलेण तिलोए सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो। दाणफलेण तिलोए सारसुहं भुंजदे णियदं।।24।।
अर्थात जो मुनष्य शुद्ध भावों से श्रद्धापूर्वक भगवान जिनेन्द का पूजन करता है वह पूजन का फल से त्रिलोक के अधीश तथा देवताओं व इन्द्र से भी पूज्य हो जाता है। जो सुपात्र में चार प्रकार का दान देता है वह दान के फल से त्रिलोक में सारभूत उत्तम सुखों को भोगता है।
श्री समन्तभद्राचार्य ने भी रत्नकरण्ड - श्रावकाचार में इस प्रकार लिखा है -
देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम्। कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादादृतोनित्यम्।।222।
भावार्थ - भगवान जिनेन्द्र देव जी पूजा से इच्छित फलों की प्राप्ति और दुखाों का नाश होता है इसलिये अपना हित चाहने वाले श्रावकों को भक्ति भावना से भगवान की पूजा अवश्य करनी चाहिय।
आचार्य शिरोमणि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने ‘अष्टपाहुड’ ग्रन्थ के ‘बोधपाहुड’ में इस प्रकार लिखा है -
सो देवों जो अत्थं कामं सुदेइ णाणं च। सो देई जस्स अत्थि धम्मों य पव्वज्जा।।