अर्थात-कोई मनुष्य अपने घर पुत्र न होने के कारण मन में घूरता रहता है, किसी के पुत्र भी होते हैं, तो हो हो कर मर जाते हैं, जीवित नहीं रहने पाते। किसी के पुत्र जीते भी है तो वे कुपुत्र निकल जाते हैं। इस कारण लेशमात्र भी सुख प्राप्त नहीं होता। जिन मनुष्यों के पुण्य कर्म के उदय से कुछ सुख साधन मिल जाते हैं उनको भी सदा सुख नहीं रहता, अशुभ कर्म का उदय आते भी देर नहीं लगती जिससे कि फिर कोई न कोई दुःख उस पर आ टूटता है। इस प्रकार संसार की परिस्थिति पर विचार किया जावे तो निराकुल तथा स्थायी सुख संसार में कहीं पर नहीं है।
अंत में कवि निचोड़ रखता है-
यदि इस संसार में सुख होता तो तीर्थंकर देव अपने निष्कंटन राज्य का तथा प्रिय परिवार का त्याग क्यों करते और किस लिये निग्र्रन्थ तपस्वी बन कर संयम से प्रेम करके वन पर्वतों में संसार से मुक्त होने का प्रयत्न करते।
इस प्रकार संसार का स्वरूप चित्तवन करके संसार से भयभीत होना तथा धर्म एवं धर्म के फल से अनुराग करना संवेग भावना है।