इससे हेलाचार्य का समय यदि उनके शिष्य प्रशिष्यादि के समय क्रम में कम से कम एक शताब्दी और पच्चीस वर्ष पूर्व माना जाय, जो अधिक नहीं है,तो हेलाचार्य के ग्रन्थ का रचना काल शक सं. ७३६ (८१४ ई.) हो सकता है।
(८) मल्लिषेण अजितसेन की शिष्य परम्परा में हुए हैं। अजितसेन के शिष्य कनकसेन हुए हैं। यह कनकसेन अजितसेन आचार्य के शिष्य थे, जो गंगवंशीय नरेश राचमल्ल और उनके मंत्री एवं सेनापति चामुण्डराय के गुरू थे। गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने उनका भुवनगुरू नाम से उल्लेख किया है। कनकसेन के शिष्य जिनसेन और जिनसेन के शिष्य मल्लिषेण थे। उन्होंने जिनसेन के अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेन का भी गुरु रूप से उल्लेख किया है। जैसा कि कहा है कि-
वादिराज ने भी न्यायविनिश्चय की प्रशस्ति में कनकसेन और नरेन्द्रसेन का स्मरण किया है।१६ इससे वादिराज भी मल्लिषेण के समकालीन जान पड़ते हैं और उनके द्वारा स्मृत कनकसेन और नरेन्द्रसेन भी वही ज्ञात होते हैं। मल्लिषेण भी वादिराज के समान मठपति ज्ञात होते हैं क्योंकि इनके मंत्र-तंत्रविषयक ग्रन्थों में स्तम्भन, मोहन, वशीकरण और अंगनाकर्षण आदि के प्रयोग पाये जाते हैं। ये उभय भाषा कवि चक्रवर्ती (प्राकृत और संस्कृत भाषा के विद्वान) कविशेखर, गारुड़ मंत्रवादवेदी आदि पदवियों से अलंकृत थे। जैसा कि कहा है-
उन्होंने अपने को सकलागम में निपुण,लक्षणवेदी और तर्कवेदी तथा मंत्रवाद में कुशल सूचित किया है, सो लिखा है कि-
वे गृहस्थ शिष्यों के कल्याण के लिए मंत्र-तंत्र और रोगोपचार की प्रवृत्ति भी करते थे। वे उच्च श्रेणी के कवि भी थे। भैरव पद्मावती कल्प के अनुसार उनके सामने संस्कृत,प्राकृत का कोई भी कवि अपनी कविता का अभिमान नहीं कर सकता था। जैसा कि उनके बारे में कहा है कि-
विविध विषयों के विद्वान होते हुए भी मंत्रवादी के रूप में ही उनकी विशेष ख्याति थी। यह विक्रम की ग्यारहवीं सदी के अन्त और बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे क्योंकि इन्होंने अपना महापुराण शक सं. ८६८ सन् (वि.सं. ११०४) में ज्येष्ठ सुदी ५ (श्रुतपंचमी) मूलगुन्द नामक नगर के जैन मन्दिर में रहकर पूरा किया था। ऐसा महापुराण की प्रशस्ति में लिखा है कि-
यह मुलगुन्द नगर धारवाड़ जिले की गदक तहसील से १२ मील दक्षिण पश्चिम की ओर है। यहाँ जैन मंदिर में रहते हुए इन्होंने महापुराण की रचना की थी। उसका कवि ने तीर्थरूप में उल्लेख किया है। इस समय भी वहाँ चार जैन मन्दिर हैं। इन मंदिरों में शक सं. ८२४, ८२५, ९७५,११९६,१२७५,१५९७ के शिलालेख अंकित हैं। मुनि मल्लिषेण की निम्नलिखित ६ रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनका परिचय निम्न प्रकार है-महापुराण, नागकुमार काव्य, भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती मंत्र कल्प, ज्वालामालिनीकल्प और कामचाण्डाली कल्प। भैरव पद्मावती कल्प-यह चार सौ श्लोकों का मंत्रशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें दश अधिकार हैं। यह बंधुषेण की संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। इसकी राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में १५ से अधिक प्रतियाँ उपलब्ध हैं। सरस्वती कल्प-यह मंत्र शास्त्र का छोटा सा ग्रंथ है। इसके पद्यों की संख्या ७५ है एवं यह भैरव पद्मावती कल्प के साथ प्रकाशित हो चुका है। ज्वालामालिनी कल्प- इसकी सं.१५६२ की लिखी हुई एक १४ पत्रात्मक प्रति स्व. सेठ माणिकचंद जी के ग्रन्थ भण्डार में मौजूद है। कामचाण्डाली कल्प- इसकी प्रति ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, ब्यावर में मौजूद है।
(९) इन्द्रनन्दी (ज्वालामालिनी ग्रन्थ के कर्ता)
प्रस्तुत इन्द्रनन्दी योगीन्द्र वे हैं जो मंत्र शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे। यह वासवनन्दी के प्रशिष्य और बप्पनन्दी के शिष्य थे। उन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थ को लेकर ‘ज्वालामालिनी कल्प’ नाम के मंत्रशास्त्र की रचना की है। इस ग्रन्थ में मन्त्र, ग्रहमुद्रा मण्डल, कटु, तैल, वश्यमंत्र, तन्त्र, वपन विधि, नीराजनविधि और साधन विधि नाम के दस अधिकारों द्वारा मंत्रशास्त्र विषय के महत्व का कथन दिया हुआ है। इस ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति के २२वें पद्य में ग्रन्थ रचना का पूरा इतिवृत दिया हुआ है और बतलाया गया है कि देवी के आदेश से ‘ज्वालामालिनी मत’ नाम का ग्रन्थ हेलाचार्य ने बनाया था। उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और वीजाब हुए। आर्यिका क्षांतिरसव्वा और विरूवद्र नाम के क्षुल्लक हुए। इस तरह गुरु परिपाटी और अविच्छिन्न सम्प्रदाय से आया हुआ। उसे कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दी नामक मुनि के लिए व्याख्यान किया और उपदेश दिया। उनके समीप उन दोनों ने उस शास्त्र को ग्रन्थत:और अर्थत: इन्द्रनन्दी मुनि के प्रति भले प्रकार कहा। तब इन्द्रनन्दी ने पहले क्लिष्ट प्रोक्त शास्त्र को हृदय में धारण कर ललित आर्या और गीतादिक में हेलाचार्य के उक्त अर्थ को ग्रन्थ परिवर्तन के साथ सम्पूर्ण जगत को विस्मय करने वाला जनहित कर ग्रन्थ रचा। अतएव प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम की दसवीं शताब्दी के उपान्त्य समय के विद्वान है क्योंकि इन्होंने ज्वालामालिनी कल्प की रचना शक सं. ८६१ सन् ९३९ (वि.सं.९९६) में बनाकर समाप्त किया था। जैसा कि कहा है कि-
इस प्रकार दिगम्बर जैन अनेक आचार्य अध्यात्मवादी होने के साथ-साथ क्रियावादी भी रहे हैं और जिनशासन की प्रभावना के लिए कृतसंकल्प भी हुए हैं। उन्होंने समय-समय पर जिनशासन की प्रभावना करके उसकी वैजयन्तिका को फहराया है जिससे जिनशासन का उत्थान हुआ है। वर्तमान में अज्ञानी लोग बिना स्वाध्याय, अध्ययन किये,बिना सोचे समझे बेबाक होकर अनर्गल शब्दों का उच्चारण करके जिनशासन को कलंकित करके उत्साहित हो रहे हैं। यह एक विचारणीय बात है। हमने कई जगह धर्म की, साधुओं की निंदा करने के रुचिवान लोगो को यद्वा तद्वा बोलते देखा है और विशेषकर आज यंत्र, मंत्र, तंत्र पर विशेष टीका टिप्पणी करते देखा है। कहते हुए सुना है कि जैन साधु को यंत्र, मंत्र, तंत्र नहीं करना चाहिए परन्तु हमने देखा है कि हिमालय समान वाक्यों को बोलने वाले लोग ही मिथ्यात्व के पोषक होते हैं और वे स्वयं जैन होने के बावजूद भी अन्य मिथ्यादृष्टि देवी-देवताओं को पूजने जाते हैं। यह कैसा और कौन सा न्याय है। हमारे यहाँ तो चौदह पूर्व जिनेन्द्र भगवान की वाणी से निरूपित हैं। जिसमें एक विद्यानुवादपूर्व भी है, जो जिनेन्द्र वाक्य है, उसमें सर्वज्ञ भगवान के अनुसार ही यंत्र, तंत्र, मंत्र आदि विद्याओं का निर्देशन है। फिर भी बिना विवेक के कुछ भी कहते हैं। उन्हें जिनागम का पूरी तरह से ज्ञान करना चाहिए और सभी विषयों पर अधिकार रखना चाहिए। हमारा जैनशासन अगर देखा जाय तो मंत्र से ही प्रारम्भ होता है जिसका नाम है ‘णमोकार मंत्र’। अगर मंत्र का स्थान जिनागम में नहीं है तो फिर इस मंत्र का उच्चारण भी नहीं होना चाहिए। वास्तव में अगर देखा जाय तो यही मंत्र सभी मंत्रों का जन्मदाता है।