जिसकी जैनधर्म की प्रभावना के कार्यों में रुचि है,उसके हाथ में मुक्ति है,ऐसा जिनागम सूत्र का कथन है।
जो जिनशासन की प्रभावना करता है उससे यह जगत् शोभायमान होता है। धार्मिक लोग उस महापुरुष के चरणकमलों को अपने मस्तक पर रखते हैं, अर्थात् उसको प्रणामांजलि अर्पित करते हैं। सम्यक्त्वी जीव धर्मप्राण रहता है, इससे वह सदा धर्म की अभिवृद्धि चाहता है तथा इस कार्य हेतु सदा तत्पर रहता है। धर्म पर विपत्ति आने पर वह पूर्ण शक्ति लगाकर धर्मरक्षण हेतु प्रयत्नशील रहता है। गुणभद्र स्वामी कहते हैं-
धर्म के नाश होने पर सज्जनों का नाश होता है। इससे जो धर्मद्रोही,पापियों का निवारण करते हैं, ऐसे सत्पुरुषों के द्वारा सज्जनों के जगत् का रक्षण होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान जिनेश्वर के सर्वोदय तीर्थ की प्रवृत्ति हेतु जो व्यक्ति विशिष्ट साधना में संलग्न रहता है तथा उपलब्धि होने पर उस विशिष्ट सिद्धि द्वारा प्रसिद्धि का विचार छोड़कर अहिंसा धर्म की महिमा जनमानस में प्रतिष्ठित करता है, वह व्यक्ति जिनेन्द्र भक्तों द्वारा सर्वदा वंदना का पात्र है। इसलिए हर तरह से दिगम्बर साधुओं को जिनशासन की प्रभावना करने में संलग्न रहना चाहिए। चाहे वह तप के द्वारा हो, तन्त्र के द्वारा हो या फिर मंत्र के द्वारा हो। वर्तमान में जैन गृहस्थ ही धर्मगुरुओं की निन्दा करने का दृढ़संकल्प लेकर तरह-तरह की बातें मुँह से निकालकर बेबाक होकर निन्दा करते-करते थकते नहीं जबकि आगम में साधुओं को मंत्र और व्रत दान करने की आज्ञा है। जैसा कि कहा है कि धर्मप्रभावना,परोपकार आदि की इच्छा से दे सकते हैं। मुनिराज ने ही मैनासुन्दरी के पति का कष्ट दूर होने हेतु सिद्धचक्र विधान,जाप्य आदि का अनुष्ठान बताया था। सभी व्रतों की कथाओं में भी मुनियों के द्वारा ही व्रत दिये जाने का विधान है। यदि श्रावक बिना गुरू के कोई व्रत लेते हैं तो उसका फल नहीं कहा है। मूलाचार और मूलाराधना में धर्मप्रभावना आदि के हेतु स्वयं भी मंत्रादि कर सकते हैं ऐसा कहा है। जैसा कि कंदर्पी आदि भावनाओं के वर्णन में बताया जा चुका है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबलि मुनियों की योग्यता की परीक्षा हेतु मंत्र जपने को दिया था। यदि कोई साधु किसी को मिथ्यात्व से छुड़ाकर धर्म में लगाते हैं,सच्चे मंत्रादि द्वारा उसे कार्यसिद्धि का प्रलोभन देकर कुदेव आदि की भक्ति से निवृत्त करते हैं तो कोई दोष नहीं है।
आगम में उल्लेखित विभिन्न विद्याओं की सिद्धि एवं प्रयोगों का एक अवलोकन:—
(१) इतिहास की दृष्टि से युगप्रसिद्ध प्रवर्तक आदिनाथ परमेश्वर के सम्बन्धी (साला) नमि, विनमि ने धरणेन्द्र के कथन से विद्या सिद्ध की थी। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के शासनकाल में त्रिखण्डाधिपति रावण ने विद्याएं सिद्ध की थीं जिसका वर्णन पद्मपुराण में है।आदिसम्राट भरत चक्रवर्ती ने दिग्विजयकाल में अनेक देवी-देवताओं की आराधना सिद्धि की थी।
(२) श्रेष्ठी जिनदत्त को भी विभिन्न प्रकार की विद्यायें प्राप्त थीं। जिनदत्त को ये विद्यायें विद्याधर द्वारा दहेज में प्राप्त हुईं थीं।
(३) महाबली तद्भवमोक्षगामी चरमशरीरी हनुमानजी ने विद्याबल के प्रभाव से ही लंकादहन में सफलता प्राप्त की थी।
(४) भगवान पार्श्वनाथ पर तपस्या करते समय कमठ ने जिस प्रकार भयानक उपसर्ग किया था उसका निवारण धरणेन्द्र पद्मावती ने किया था। उन्हीं धरणेन्द्र पद्मावती की बाद में पूजा होने लगी और मंत्रों द्वारा उनकी साधना की जाने लगी। यहीं से अर्थात् भगवान महावीर के पूर्व ही अलिखित मंत्रशास्त्र प्रारम्भ हो गया। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् मंत्रों द्वारा चमत्कार की ग्रन्थों में अनेक कहानियाँ अथवा उदाहरण मिलते हैं।
(५) आचार्य कुन्दकुन्द की प्रसिद्धि एवं गणना युग संस्थापक रूप में मानी जाती है। उनके नाम से ही उत्तरवर्ती परम्परा कुन्दकुन्द आम्नाय के नाम से प्रसिद्ध है, कहते हैं कि एक बार गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बरों के साथ उनका विवाद हो गया। उन्होंने वहाँ अम्बिकादेवी के मुख से यह कहलवाया था कि ‘‘दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है।’’ उक्त कथन से ज्ञात होता है कि समयसार, प्रवचनसार जैसे महान अध्यात्म ग्रन्थों के निर्माता भी मंत्रशास्त्र के ज्ञाता ही नहीं, साधक भी थे।
(६) आचार्य मानतुंग के भक्तामर स्तोत्र की सर्वत्र प्रसिद्धि के प्रभाव से आचार्य मानतुंग को ४८ तालों से मुक्ति मिली थी। पूरा भक्तामर स्तोत्र चमत्कारपूर्ण आख्यान से जुडा हुआ है। उनके द्वारा रचित पूरा भक्तामर स्तोत्र ही मंत्र रूप है। किसी मंत्रवादी विद्वान ने भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक के पृथक-पृथक यंत्र तथा मंत्र व्याकरण के अनुसार बना दिये। भक्तामर स्तोत्र के अतिरिक्त कल्याण मन्दिर,एकीभाव आदि स्तोत्र भी चमत्कारपूर्ण आख्यानों से जुड़े हुए हैं।
(७) आचार्य अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे। राष्ट्रकूटी राजा सहस्रतुंग की सभा में उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानों को पराजित किया था। अकलंक पर कूष्मांडिनी देवी प्रसन्न थीं जिससे ज्ञात होता है कि अकलंक भी मंत्रशास्त्र के ज्ञाता ही नहीं साधक भी थे। उन्होंने कूष्मांडिनी देवी को सिद्ध कर लिया था। उनके बारे में लिखा है कि—
मल्लिषेण की प्रशस्ति से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि अकलंक ने हिम-शीतल राजा की सभा में शास्त्रार्थ कर तारादेवी को परास्त किया था। यह द्रविड संघ के अधिपति और द्रविडगण के मुनियों में मुख्य थे और जिनागम की क्रियाओं का विधिपूर्वक पालन करते थे। पंच महाव्रत,पंच समिति और तीन गुप्तियों सें संरक्षित थे-
उनका विधिपूर्वक आचरण करते थे। ऐसा संस्कृत में निम्न श्लोक उल्लेखित है:-
यह आचार्य मलयदेश में स्थित ‘हेम’ग्राम के निवासी थे। एक बार उनकी शिष्या कमलश्री को,जो समस्त शास्त्रज्ञ और श्रुत देवी के समान विदुषी थीं, कर्मवश ब्रह्म राक्षस लग गया। ऐसा विवेचन संस्कृत के ज्वालामालिनी कल्प की प्रशस्ति में आया है कि-
उसकी पीड़ा को देखकर हेलाचार्य नीलगिरी के शिखर पर गए। वहाँ उन्होंने ज्वालामालिनी देवी की विधिपूर्वक साधना की। सात दिन में देवी ने उपस्थित होकर पूछा कि क्या चाहते हो? तब मुनि ने कहा, मैं कुछ नहीं चाहता। सिर्प कमलश्री को ग्रहमुक्त कर दीजिए तब देवी ने एक लोहे के पत्र पर एक मंत्र लिखकर दिया और उसकी विधि बतला दी। इससे उनकी शिष्या ग्रहमुक्त हो गई। फिर देवी के आदेश से उन्होंने ‘ज्वालामालिनी कल्प’ नाम ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ की रचना राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय की संरक्षकता में शक् सं. ८६९ (९४७ ई.) में की जैसा कि निम्न उल्लेख है-