।। जैनों की मूल मान्यता ।।
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इन सभी खरकर्मों में हिंसा किसी-न-किसी रूप में छिपी है चाहे कृत है, चाहे कारित या अनुमोदित। जैन धर्मानुसार समवशकरण की अहिंसा भाव की कल्याणकारी तंरंगें जीवों के जन्मजात वैर को भी भुला देती है। अतः इस प्रकार जैनधर्म की ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्‘ का सूत्र भी जीवों के स्वाभाविक सम्बन्ध को ही रेखांकित करता है।

जैन धर्म में योग साधना

जैन आचार्यों ने योग पर बहुत ही चिंतन मनन किया है एवं योग पर विशद साहित्य है। जैन आगम को योगों के रूप् में ही जाना जाता है यथाः-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग। सब का लक्ष्य है कर्म कालिमा की अशुद्धि को हटाकर आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त करना। जैन आगम के परिप्रेक्ष्य में जैन आगम में योग शब्द का मुख्यता से दो अर्थों में प्रयोग किया गया है।

अ. आत्म प्रदेशों का परिस्पन्दन या संकोच विस्तारः-

1. सर्वार्थसिद्धि , 2. धवला

ब. ध्यान समाधिः-

1. सर्वार्थसिद्धि , 2. राजवार्तिक

जैन साहित्य में योग साहित्यिक विशिष्ठ रचनायें हैः- ज्ञानर्णव, ध्यानशतक, समाधितंत्र, तत्वानुशासन, योगमार्ग, योगामृत आदिपुराण, योग बिंदु, योगदृष्टि, समुच्चय, योग शतक, योग विशंतिका, योगसार प्राभृत आदि।

ऋषि मुनियों ने योग के 8ध्6 अंग बताये है। पतंजलि ऋषि के अनुसार ये हैं

1. यम अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रह्म्चर्य व अपरिग्रह रूप मन-वचन-काय का संयम जन्म पर्यन्त के लिए धारण करना यम कहलाता है

2. नियम इसके अन्तर्गत शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिध्यान को लिया है।

3. आसन शरीर को ध्यान हेतु स्थिर रखने की शारीरिक स्थिति होती है। आसन अनेकों प्रकार के होते है 84 प्रकार के योगिक ग्रंथों में बताये हैं। जैनाचार्यों ने ध्यान हेतु पद्यासन, सिद्धासन, सुखासन और कायोत्सर्गासन ;खडगासनद्ध वज्रासन, पर्यकासन अर्द्धपर्यकासन, कमलासन का प्रति पादन ज्ञाणार्णव में किया है। आसन अपनी शक्ति और शारिरिक क्षमता के अनुसार ऐसा ग्रहण करना चाहिए जिसमें सुखपूर्वक, अधिक समय तक स्थिर रह सकें।

4. सुखासन , 5. पद्यासन , 6. कायोत्सर्गासन , 7. सिद्धासन

8. प्राणायाम आसन में स्थिरता के बाद प्राणायाम किया जाता है। प्राणायाम रोग प्रतिरोधक एवं रोग निवारक है। योग शास्त्र में प्राणायाम मुख्य 8 प्रकार के बताये हैं। यथा-

1. पृरक , 2. कुम्भक , 3. रेचक , 4. स्वाघ्याय , 5. प्रत्याहार , 6. धारणा , 7. ध्यान , 8. ध्येय अध्यात्म साधना में चैतन्य ध्येय दो हैं।

1. सकल ध्येय , 2. निकल ध्येय

समाधिः योग का अंतिम अंग समाधि ही अध्यात्मक का लक्ष्य है। आसन और प्राणायाम मात्र ही योग नहीं है। योग विज्ञान का लक्ष्य है मान को शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रखकर अतीन्द्रित क्षमता का विकास करता जिससे आत्मा साक्षातकार हो सकें।

जैन धर्म में श्रावक धर्म

गृहस्थ जीवन के चार पुरूषार्थ बताए गए है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म गृहस्थ जीवन का पहला पुरूषार्थ है। गृहस्थ जीवन अर्थ और काम के बिना नहीं चल सकता लेकिन उस पर धर्म का नियंत्रण रखकर मोक्ष मार्ग पर चला जा सकता है। धर्म जीवन का मूल है। धर्म अर्थ व काम तीनों का सम्यक् समायोजन होना चाहिए तभी जीवन सार्थक है। यह शरीर अनित्य है, ऐश्वर्य नाशवान है अतः गृहस्थी को सम्यक् जीवन जीना चाहिए। एक अच्छे श्रावक के जीवन में किन बातों का समावेश होना चाहिए इसका वर्णन हम कर रहे हैं।

श्रावक

जो श्रद्धावन, विवेकवान एवं क्रियावन है वह श्रावक है। पंचपरमेष्ठी का भक्त, प्रधानता से दान देने वाला, पूजन करने वाला और मेदज्ञान रूपी अमृत को पीने की इच्छा रखने वाला श्रावक कहलाता है। श्रावक तीन प्रकार के होते हैः-

1. पाक्षिक श्रावक ः जो सम्यक्त्व सहित अष्ट मूल गुणों का अभ्यास करता है वह पाक्षिक श्रावक है।

2. नैष्टिक श्रावक ः जो यथा योग्य प्रतिमाओं का पालन कर विशुद्ध परिणामों से संयत स्थानों को छूता है वह नैष्टिक श्रावक है।

3. साधक श्रावक ः जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवन के अंत समय समाधिमरण करता है वह साधक श्रावक है।

श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं

श्रावक के आचरण की ग्यारह प्रतिमाएं मानी गई है। भोगो से राग घटाना, संयम को बढाना, कर्तव्य पालन की प्रतिक्षा करता प्रतिभा कहलाती है। इन प्रतिमाओं में अपनी-अपनी प्रतिमा से सम्बन्ध रखने वाले व्रत एवं पिछली प्रतिमाओं के संकल्प व अगली प्रतिमा धारण की भावना ये नियम जरूरी होते है।

1. दर्शन प्रतिमा ः सम्यक्तव को पालने वाला, संसार-शरीर और भोगों से विरक्त, पंचपरमेष्ठी की शरण को प्राप्त, अष्टमूल गुणों को पालने वाला और सप्त व्यसनों का न्यागी पहली प्रतिमा धारी है।

2. व्रत प्रतिमा ः जो निःशल्य भाव से निरतिचार, पंच अणुव्रत, सान शीलों को पालता है वह व्रत प्रतिमा का धारी है।

3. सामयिक प्रतिमा ः जो श्रावक प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवत्र्त और चार प्रणाम करने वाला, बाह् एवं अभ्यंतर परिगह से रहित, मन वचन और काय की शुद्धि सहित पांचों पापोें का त्याग कर तीनों संधि काल में आत्मचिंतन करना हो वह सामयिक प्रतिमा का धारी है।

4. प्रोषघोपवास प्रतिमा: प्रत्येक महिने की दो अष्टमी और चतुर्दशी को अपनी शक्ति को न छुपाते हुए आहार त्याग करना प्रोषघोपवास व्रत है।

5. संचित त्याग प्रतिमा: दया मूर्ति जीव को कच्चे फल, मूल, शाक, कोपल, कंद, फूल व बीजों को नहीं खाते संचित त्याग प्रतिमा पालते हैं।

6. रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा: जो नव कोटि ;मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदनद्ध से चारों प्रकार रात्रि आहार त्याग कर देता है वह रात्रि भुक्ति त्यागी है।

7. ब्रह्म्चर्य प्रतिमा ः मन, वचन, काम, कृत, कारित अनुमोदना से मैथुन का त्याग करना ब्रह्म्चर्य प्रतिमा है।

8. आरम्भ त्याग प्रतिमा: जीव हिंसा के कारण रूप नौकरी, खेती, व्यापार एवं गृहस्थी सम्बन्धी आरम्भ से विरक्त होना आरम्भ त्याग प्रतिमा है।

9. परिग्रह त्याग प्रतिमा: अंतरंग और बहिरंग परिग्रह को त्याग निर्ममत्व होता हुआ, मायाचार रहित, स्थिर चित्त वाला संतोषी श्रावक परिग्रह त्याग प्रतिमा का धारी है।

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