।। जैन शब्दकोष ।।

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अकृत्रिम चैत्यालय ः अनादिनिघन मंदिर।

आर्यिका ः दिगम्बर जैन साध्वी।

अभिषेक ः भगवान का प्रक्षाल करना अभिषेक है।

अन्तराय : जो किसी कार्य में विघ्न अथवा रूकावट डाले उसे अन्तराय कहते है। ये पाॅंच प्रकार के होते है:- 1. दानान्तराय 2. लाभान्तराय 3. भोगान्तराय 4. उपभोगान्तराय 5. वीर्यान्तराय।

अनेकान्त : अनेकान्तवाद का सिद्धांत सभी गुणांे ;धर्मोंद्ध का मेल करके वस्तु का असली रूप बताने में सहायक है।

अवधिज्ञान : वह ज्ञान जिस में तीनों लोकों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तथा यह आत्मा से सम्बन्ध रखता है।

अतिशय क्षेत्र : वह स्थान जहाॅं पर दैवी शक्तियों द्वारा चमत्कार किया गया हैं, जैसे-महावीर जी, पद्मपुराजी।

अलोकाकाश : लोक से बाहर के आकाश को अलोकाकाश कहते हैं।

आचार्य ः जो मुनियों के संघ का संचालन करते हैं।

आस्त्रन ः क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायों के कारण कर्मों का आना आस्त्रव है।

आहार ः विधिपूर्वक मुनियों-साधुओं को ;आहारद्ध भोजन दान देना।

उदासीन आश्रम : वह स्थान या आश्रम जहाॅं पर श्रावक अपने संसार से विरक्त होकर धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करता है।

उपसर्ग : धार्मिक अनुष्ठानों एवं तपस्या में संकट आना अथवा बाधा आना उपसर्ग है।

ऊध्र्वलोक : जहाॅं पर देवताओं का निवास है।

एकासन : दिन में एक स्थान पर बैठ कर एक बार भोजन करना एकासन है।

ऐलक : लंगोट धारण करते हैं तथा इनकी शेष वर्या मुनियों के समान होती है।

कल्याणक : जहाॅं से तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप एवं ज्ञान कल्याणक हुये है।

कृत्रिम चैत्यालय : मनुष्यों द्वारा बनाये गये मन्दिर।

कोड़ा-कोड़ी : एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, वह कोड़ा-कोड़ी होती है।

केवलज्ञान : तपस्या एवं ध्यान से चार कर्मो को नष्ट कर जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह केवलज्ञान है।

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खड्गासन : कायोत्सर्ग आसन, खड़ी अवस्था को खड्गासन कहते हैं।

ग्ंाधकुटी : तीर्थंकरों को छोड़कर केवलज्ञानियांे की सभा।

गन्धोदक : भगवान अर्हन्त की प्रतिमा के अभिषेक से जो जल प्राप्त होता है, वह गन्धोदक कहलाता है।

गणधर : जो भगवान की दिव्यध्वनि को ग्रहण करके प्राणियों को उनकी ही भाषा में उपदेश देने के लिए पहुॅंचता है।

चरण : भगवान के चरण ;तलवाद्ध चिन्ह जैसे कि श्री सम्मेदशिखरजी में चरण चिन्ह निर्मित है।

जंबूद्वीप : मध्यलोक का प्रथम द्वीप।

जनेऊ : वह धागा जो धर्मानुसार गले में धारण किया जाता है व जो रत्नत्रय का सूचक श्रावक का चिन्ह है।

जीव : जिसमें चेतन शक्ति है जैसे मनुष्य, शेर, गाय इत्यादि।

तीर्थंकर : जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त करके प्राप्त करके मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया।

तीर्थक्षेत्र : जहाॅं से तीर्थंकरों और मुनियों ने पंचकल्याण एवं निर्वाण प्राप्त किया।

देव : देव सम्यक् तथा मिथ्या दृष्टि दोनों प्रकार के होते हैं। इन सब की अनेक जानियाॅं होती है और इन सब को वैक्रियक शरीर प्राप्त होता है जिससे ये अपने शरीर को घटा बढ़ा सकते हैं। ये चार प्रकार के होते है 1. भवनवासी 2. व्यन्तर 3. ज्योतिष 4. वैमानिक

दिव्यध्वनि : तीर्थंकरों की अलौकिक अनक्षरी वाणी।

नय : वस्तु को थोड़ा-थोड़ा करके जानना नया है, इसे दो भेद हैं निश्चय नय, व्यवहार नय।

नरक : बुरे कर्मों के कारण जीव नरक गति में जन्म लेता है जहाॅं अनन्त कष्ट भोगता है।

नंदीश्वर : यह मध्यलोक में जंबूद्वीप से आठवाॅं द्वीप है। इसमें 52 जैन मन्दिर है। जिनमें अर्हृत देवों की प्रतिमाऐं हैं।

नारायण : बलभद्रों के छोटे भाई जो नव है। जैसे कृष्ण, लक्ष्मण आदि।

निक्षेप : शब्द को कहाॅं किस अर्थ में प्रयोग किया गया है इस बात का बतलाना निक्षेप है। इसके चार भेद है:- 1. नाम 2. स्थापना 3. द्रव्य 4. भाव।

निर्जरा : कर्मों का नष्ट होना अर्थात् क्षय होना निर्जरा है।

निर्वाण : जब जीव मोक्ष को प्राप्त करता है तो उसको निर्वाण कहते हैं।

श्रावक : अष्टमूलगुणधारी गृहस्थ जो धर्मानुसार आचरण करता है।

श्रुतज्ञान : मतिज्ञानपूर्वक अर्थात् शास्त्रों द्वारा होनेा वाला विशेष ज्ञान।

पंचकल्याणक : भगवान के पाॅंच कल्याणक गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष के उत्सव मनाने को पंचकल्याणक कहते हैं।

पद्यासन : बैठक की स्थिति जिसमें दोनों चरणतल ऊपर होते हैं दाॅंया पैर बायें के ऊपर होता है।

प्रतिनारायण : नारायणों के शत्रु। इनका वध नारायण के द्वारा होता है।

प्रतिमा : अर्हतों और सिद्धों की विधिपूर्वक स्थापना की गई मूर्ति।

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