प्रक्षाल : अर्हन्तादि की प्रतिमाओं का न्वहन करने को प्रक्षाल कहते हैं।
पाण्डुक्शिला : सुमेरू पर्वत पर स्थित वह स्थान जहाॅं पर इन्द्र और देवता तीर्थंकर के जन्म के पश्चात् क्षीरसागर से जल लेकर जन्माभिषेक करते हैं।
पाताल लोक : मध्यलोक के नीचे की भूमि जहाॅं नारकी रहते हैं।
पूजा : अष्ट द्रव्यों से अर्हतों की पूजा करना।
बंध : जो भी शुभ-अशुभ कर्म आये हैं उनका रूकना बन्ध है।
बलभद्र : नारायणों के भाई-ये तद्भव मोक्षभागी है जैसे रामचंद्र जी इत्यादि।
भव्य पुरूष : जिसको शास्त्र ज्ञान हो अथवा उस पर आचारण करके मोक्ष जाने की योग्यता रखता हो।
भट्टारक : वे ब्रह्मचारी जो तीर्थ क्षेत्र एवं अतिशय क्षेत्रों के पट्टाधीश होते हैं इन्हें मठाधीश भी कहते हैं।
भरत क्षेत्र : जंबूद्वीप में स्थित पहला क्षेत्र भरतक्षेत्र है।
भामण्डल : जो तीर्थंकरों और तपस्वियांे की तपस्या से आत्मज्ञानरूपी लौकिक, आध्यात्मिक ज्योति अथवा प्रदीप्त होता है, उसे भामण्डल कहते हैं।
मध्यलोक : मनुष्यों और अन्य जीवों की निवास भूमि।
मतिज्ञान : पाॅचों इन्द्रियों एवं मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान।
मनु : तृतीयकाल की समाप्ति में जब कुछ समय रह गया तब क्रमशः 14 मनु हुए जिन को कुलधर भी कहते हैं।
मनःपर्याय ज्ञान : अपने आत्मिक ज्ञान से दूसरे के मन में स्थित वस्तुओं को जान लेना।
मुनि : निग्र्रन्थ दिगम्बर साधु।
मिथ्यादृष्टि : जो सत्य तŸव को न पहिचाने।
सम्यकृदृष्टि : जो सत्य तŸव को पहिचाने।
मुमुक्षु : जो ज्ञान और तपस्या के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना चाहता है।
मोक्ष : केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् जन्ममरण के चक्कर से मुक्त होना मोक्ष है।
लेाकाकाश : जहाॅंतक जीव पुद्गल द्रव्य पाये जावें वह लोकाकाश है इसमें गुरूत्वाकर्षण होता है।
वेदी : मूर्तियों को विराजमान करने का स्थान।
विग्रहगति : एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्ति के लिए गमन करना।
विदेहक्षेत्र : यह शाश्वत कर्मभूमि है, जहाॅं बीस तीर्थंकर विराजमान रहते हैं।
विधान : किसी विशेष पूजा को विधान कहते हैं, जैसे - सिद्धचक्र विधान, पंचपरमेष्ठी विधान आदि।
वैक्रियक शरीर : ऐसी शक्ति जिससे शरीर को छोटा बड़ा, एक अनेक तथा विविध प्रकार का बनाया जा सकें।
वैयातृत्य : मुनियों, साधु संघों की सेवा करना, उनको आहार देना वैयावृत्य है।
सल्लेखना : जब व्यक्ति धर्मपालन करने में असमर्थ होने लगता है तो वह सल्लेखना धारण करता है और धर्मांनुसार शैनेः शैनेः शरीर को त्याग देता है, ऐसे नियम को सल्लेखना कहते हैं।
सुमेरू पर्वत : जहाॅं पर इन्द्र बालक तीर्थंकर का क्षीर सागर से जल लाकर न्वहन करते हैं।
समवशरण : इन्द्र और कुबेर द्वारा निर्मित सभा स्थल जहाॅं पर तीर्थंकरों की वाणी खिरती है।
क्षीर सागर : लवण समुद्र में यह पांचवा समुद्र है जहाॅं से तीर्थंकरों के न्वहन के लिए इन्द्रादि जल लाते है।
क्षुल्लक : वे त्यागी जो लंगोट और चादर धारण करते हैं तथा इनकी चर्या मुनि समान होती है।
क्षेत्रपाल : तीर्थक्षेत्रों की रक्षा करने वाले लौकिक देव।