जैन प्रतीक चिन्ह कई मूल भावनाओं को अपने में समाहित करता है। इस प्रतीक चिन्ह का रूप जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है। इसका निचला भाग अधोलोक, बीच का भाग मध्य लोक एवं ऊपर का भाग उध्र्वलोक का प्रतीक है। इसके सबसे ऊपर भाग में चंद्राकार सिद्ध शिला है। अतंतान्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान इस सिद्ध शिला पर अनन्त काल से अनन्त काल तक के लिए विराजमान है। चिन्ह के निचले भाग में प्रदर्शित हाथ अभय का प्रतीक है और लोक के सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव रखने का प्रतीक है। हाथ के बीच में 24 आरों वाला चक्र चैबीस तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत जिन धर्म को दर्शाता है, जिसका मूल भाव अहिंसा है, ऊपरी भाग में प्रदर्शित स्वस्तिक की चार भुजाऐं चार गतियों नरक, त्रियंच, मनुष्य उवं देव गति की द्योतक है। प्रत्येक संसारी प्राणी जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त होना चाहता है। स्वास्तिक के ऊपर प्रदर्शित तीन बिन्दु सम्यक रत्नत्रय, सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र को दर्शाते है और संदेश देते हैं कि सम्यक रत्नत्रय के बिना प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। सम्यक रत्नत्रय की उपलब्धता जैनागम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए परम आवश्यक है। सबसे नीचे लिखे गए सूत्र परस्परोपग्रहो जीवानाम् का अर्थ प्रत्येक जीवन परस्पर एक दूसरे का उपकार करें, यही जीवन का लक्षण है। संक्षेप में जैन प्रतीक चिन्ह संसारी प्राणी मात्र की वर्तमान दशा एवं इससे मुक्त होकर सिद्ध शिला तक पहुॅंचने का मार्ग दर्शाता है।