।। जैन धर्म में आहार ।।
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आहार को संतों ने, पूर्वाचार्यों ने, तीन भागों में विभाजित किया है।

1. तामसिक भोजन

2. राजसिक भोजन

3. सात्विक भोजन

‘जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन‘
‘अच्छा होवे मन तब बन जाओ भगवन‘

आचार्यों के अनुसार सात्विक भोजन बनाने में हिंसा की संभावना नहीं रहती । ये भोजन उदर पूर्ति हेतु इहलोक और परलोक सुधारने के अर्थ तैयार किया जाता है। ऐसे भोजन से विचारों में निर्मलता अवेगी जो घर परिवार व सुदृढ़ समाज में शान्ति स्थापित करेगी। इसलिए आचार्यों ने तामसिक एवं राजसिक आहार को छोड़कर सात्विक आहार को ग्रहण करने का बताया है।

तप एवं व्रत सात्विक भोज

विदुषीरत्न आर्यिका 105 विशुद्धमती माताजी

तप धर्म की महंता सर्वोपरि है। स्वार्थ सिद्धी में पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि ‘‘कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तप‘‘ अर्थात कर्म क्षय के लिये जो तपा जाता है उसे तप कहते हैं। ‘‘अनशन नाम अशन-त्यागः‘‘ अर्थात भोजन त्याग करने का नाम अनशन तप है। चेतन वृतियों को भोजन आदि के विकल्पों से मुक्त करने के लिए अथवा क्षुधा वेदनादि के समय भी साम्यरस में लीन रहकर आत्मिक बल की वृद्धि के लिये अनशन तप किया जाता है। अतः अनशन, तप, मोक्ष मार्ग में सहयोगी है। अर्थात जो पुरूष मन और इन्द्रियांे को जीतता है, निरन्तर स्वाध्याय में तत्पर रहता है वह कर्मों की निर्जरा हेतु आहार त्याग करता है। उसके अनशन तप होता है।

यह अनशन तप दो प्रकार का है

1. प्रोषध: दिन में एक बार भोजन करने को

2. उपवासः भोजन का सर्वथा त्याग

उपवास दो प्रकार के होते हैं

1. अवघृत ;नियतद्ध कालीन अनशन तप

एक दिन में भोजन की दो बेला होती है। चार भोजन बेला के त्याग को चतुर्थ अर्थात एक उपवास कहते हैं। जैसे सप्तमी और नवमी को एक बार भोजन तथा अष्टमी का उपवास, इस प्रकार एक उपवास मंे चार बेला भोजन का त्याग, दो उपवास में छः बेला त्याग, तीन उपवास में आठ बेला त्याग होता है। इसी प्रकार दशम्, द्वादश, मास, कनकावली, एकावली मुरज तथा मद्य विमान आदि जो जितने भेद है। वे सब अवघृत काल अनशन तप के अंतर्गत ही है।

2. अनवघृत ;सर्वासन त्याग तपद्ध

जीवन पर्यन्त के लिये भोजन का त्याग। यह संलेखना के समय ही किया जाता है।

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ब्राह्म तप:-         तप के भेद

1. अनशन         उपवास करना

2. उनोदर         भूख से कम खाना

3. वृति परिसंख्यान         भोजन को जाते हुए अटपटी प्रतिज्ञा लेना।

4. रस परित्याग        छः रस या कोई रस छोड़ना।

5. विविक्त शंयासन         एकांत स्थान में सोना।

6. काय क्लेश        सर्दी गर्मी आदि शारीरिक कष्ट सहन करना।

आंतरिक तप:-

1. प्रायश्चित         दोषों का दण्ड लेता

2. विनय धारण करना आदर करना

3. वैयावृत         रोगी या साधु की सेवा करना

4. स्वाध्याय        शास्त्र पढ़ना, पढ़ाना, विचारना

5. वयुत्सर्ग        शरीर से मोह छोड़ना

6. ध्यान         तत्परता से आत्म स्वभाव में लीन होना।

व्रत गुरू के पास लिये जाते हैं। यदि गुरू न हो तो जिनेन्द्र देव के सम्मुख निम्न संकल्प पढ़कर व्रत ग्रहण करना चाहिए।

ओम् अद्य भगवन्तो महापुरूषस्य ब्राह्मणें मते मासानां मासोत्तम मासे...........पक्षे.......तिथौ.......वासरे जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे.........प्रान्ते..........नगरे.........एतत् अवसर्पिणी - कालावसान - चतुर्दश - प्राभृत - मानिमानित-सकल-लोक-व्यवहारे श्री गौतमस्वामि-श्रेणिक-महामण्डलेश्वर-समाचरित-सन्मार्गविशेषे...........वीर निर्वाण-संवत्सरे अष्टमहाप्रातिहार्यदि-शोभित-श्रीमदर्हत्परमेश्वर-प्रतिमा-सन्निधौ अहम् ..........व्रतस्य संकल्पं करिष्ये। अस्य व्रतस्य समाप्ति-पर्यन्तं में सावद्य-त्यागः गृहस्थाश्रम-जन्यारंभ-परिग्रहादीनामपि त्यागः।

सामान्यतः व्रतों के नौ भेद है:-

सावधि, निरवधि, देवसिक, नैशिक ;रात्रिकद्ध, मासावधि, वर्षावधि, काम्य ;कामना पूर्वकद्ध अकाम्य एवं उŸामार्थ। इन उपर्युक्त नौ भेदों के अंर्तगत आनेवाले व्रतों में से कुछ व्रतों का विवेचन किया जा रहा है। इस प्रकार इन व्रतों को अथवा अन्य भी और व्रतों को पूर्ण विधि विधान पूर्वक करना चाहिए। यहाॅं उपयुक्त व्रतों की विधि संक्षिप्त लिखी गई है। अतः कोई भी व्रत ग्रहण करने से पूर्व उसकी पूर्ण विधि गुरूमुख से समझ लेना चाहिए। अथवा व्रता विधान संग्रह, वर्धमान पुराण, हरिवंश पुराण, किशनसिंह क्रिया कोष एवं व्रत तिथि निर्णय आदि ग्रंथों मंे देख लेना चाहिए।

व्रतों के दिनों में अभिषेक, पूजन, आरती, स्तोत्र पाठ, स्वाध्याय, जाप एवं आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा यथाशक्य आरंभ-परिग्रह का त्याग भोगोपभोग की वस्तुओं का प्रमाण एवं रात्रि जागरण करना चाहिए। आत्म परिणामों को निर्मल एवं विशुद्ध रखने का प्रयास भी अतिआवश्यक है। व्रत पूर्ण हो जाने के बाद उद्यापन अवश्य करना चाहिए। अर्थात मण्डल विधान का पूजन करना, शक्त्यानुसार मंदिर बनवाना, प्रतिष्ठा कराना, जिर्णोद्धार कराना, शास्त्र प्रकाशित कराना, चारों प्रकार का दान देना, साधर्मीयों को भोजन कराना एवं गरीब अनाथ विधवाओं को भोजन वस्त्र तथा औषधी आदि देना चाहिए। उद्यापन के बाद निम्न लिखित संकल्प पूर्वक व्रत का समापन करना चाहिए।

ओम् आद्यानाम् आद्ये जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे शुभे.....मासे....पक्षे......अद्य.....तिथौ श्री मदर्हत्प्रतिमा-सेन्निद्यौ पूर्व यद् व्रतं गृहीतं परिसमाप्ति करिषये-अहम् प्रमादाज्ञान-वशात् व्रते जायमान-दोषाः शान्तिमुपयाान्ति। ओम् ह्रीं क्ष्वीं स्वाहा। श्री मज्जिनेन्द्रचरणेषु आनंदभक्तिः सदास्तु, समाधिमरणं भवतु पाप विनाशम् भवतु। ओम् ह्रीं अ सि आ उ साय नमः सर्वशांति-र्भवतु स्वाहा।

यह संकल्प पढ़कर श्री फल, सुपारी, अथवा अन्य कोई फल जिनेन्द्र भगवान या गुरू के समक्ष चढ़ाकर नमस्कार करें और नौ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करें।