।। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ।।

jain temple319

मंगल महोत्सव

पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में दिखाई जाने वाली घटनाएॅं काल्पनिक नहीं, प्रतीकात्मक हैं।

तीर्थंकर एक सत्य, एक प्रकाश है जो मानव की भावभूमि प्रकाशित करता रहा है। तीर्थंकर की वाणी को एक क्षण मात्र के लिए भूल कर देखिए, जीवन शून्य हो जाएगा, सभ्यता के सारे ताने-बाने नष्ट हो जाएॅंगे।

पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के आप प्रत्यक्षदर्शी न हांे पर अपने हृदय में उसकी भावनात्मक कल्पना अवश्य कीजिए। तीर्थंकर आपके हृदय में विराजमान हो जाएॅंगे। फिर आपकी जीवन यात्रा अर्थपूर्ण और सत्य के अधिक निकट होगी। हे तीर्थंकर वाणी! हमारे हृदय में प्रवेश कर हमें अपने अज्ञान और पूर्वाग्रहों से मुक्त होने में सहायक हो।

पंच कल्याणक महोत्सव में कई रूपक बताए जाते हैं, जैसे गर्भ के नाटकीय दृश्य, 16 स्वप्न, तीर्थंकर का जन्मोत्सव, सुमेरू पर्वत पर अभिषेक, तीर्थंकर बालक का पालना झुलाना, तीर्थंकर बालक की बालक्रीड़ा, वैराग्य, दीक्षा संस्कार, तीर्थंकर महामुनि की आहारचर्या, केवल ज्ञान संस्कार, समवशरण, दिव्यध्वनि का गुंजन, मोक्षगमन, नाटकीय वेशभूषा में भगवान के माता-पिता बनाना, सौधर्म इन्द्र बनाना, यज्ञ नायक बनाना, धनपति कुबेर बनाना आदि। ऐसा लगता है जैसे कोई नाटक के पात्र हों। किन्तु सचेत रहे ये नाटक के पात्र नहीं हैं। तीर्थंकर के पूर्वभव व उनके जीवनकाल में जो महत्वपूर्ण घटनाऐं हुई, उन्हें स्मरण करने का यही तरीका है। उन घटनाओं को रोचक ढंग से जनसमूह में फैलाने का तरीका है। हमारी मुख्य दृष्टि तो उस महामानव की आत्मा के विकास क्रम पर रहना चाहिए जो तीर्थंकरत्व में बदल जाती है। जैनागमों में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवनकाल में पाॅंच प्रसिद्ध घटनाओं-अवसरों का उल्लेख मिलता है।

सदैव स्मरण करते रहें कि आत्मा को परमात्मा बनने के लिए कई पड़ावों से होकर गुजरना पड़ता है। कोई आत्मा तब तक परमात्मा नहीं बन सकती जब तक उसे संसार से विरक्ति न हो, केवल ज्ञान न उत्पन्न हो तब तक वह परमात्मा बनने का अधिकारी नहीं है। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होने का बावजूद, तीर्थंकर की आत्मा को त्याग-तपस्या का मार्ग अपनाना ही पडता है। सांसारिक प्राणी के सामने इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराया जाए ताकि, जैन दर्शन के मूल सिद्धांतों को वह सफलता से समझ जाए। जो जिनदेव, गर्भावतार काल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केवल ज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाण समय, इन पाॅंचों स्थानों ;कालोंद्ध से पाॅंच महाकल्याण को प्राप्त कर महाऋषि युक्त सुरेन्द्र इन्द्रों से पूजित है।

पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव जैन समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण नैमित्तिक महोत्सव है। यह आत्मा से परमात्मा की प्रक्रिया का महोत्सव है। पौराणिक पुरूषों के जीवन का संदेश घर-घर पहुंचाने के लिए इन महोत्सवों में पात्रों का अवलंबन लेकर सक्षम जीवन यात्रा को रेखांकित किया जाता है। थोडा इसे विस्तार से समझने का प्रयत्न करते हैं।

गर्भ कल्याणक

jain temple320

भगवान के गर्भ में आने से छह माह पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त 15 मास तक उनके जन्म स्थान में कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती है। यह भगवान के पूर्व अर्जित कर्मों का शुभ परिणाम हैं। दिक्ककुमारी देवियाॅं माता की परिचर्या व गर्भशोधन करती हैं। यह भी पुण्य योग है। गर्भ वाले दिन से पूर्व रात्रि को माता को 16 उत्तम स्वप्न दिखते हैं। जिन पर भगवान का अवतरण मानकर माता-पिता प्रसन्न होते हैं। इन स्वप्नों के बारे में विधानाचार्य आपको बताएॅंगे ही। इस कल्याणक को आपको इस प्रकार दिखाया जाएगा। सबसे पहले मंत्रोच्चार पूर्वक उस स्थान को जल से शुद्ध किया जाएगा। यह जल घटयात्रापूर्वक शुद्धि स्थल तक लाया जाएगा।

सोलह स्वप्नों का अवलोकन करती माता

तीर्थंकर की माता त्रिशला के सोलह स्वप्न एवं फल

शुद्धि के पश्चात उचित स्थल पर घटस्थापना होंगी। उसके पश्चात जैन-ध्वज को लहराया जाएगा। जैन ध्वज, जैन दर्शन, ज्ञान और चरित्र की विजय पताका है। यह तीर्थंकरों की विजय पताका नहीं है। किसी राजा या राष्ट्र् की विजय पताका नहीं है। यह चिंतन, मनन, त्याग, तपस्या व अंतिम सत्य को पालने वाले मोक्षगामियों की विजय पताका है। इस भाव का ग्रहण करना आवश्यक है। दिग्दिगंत में लहराने वाला यह ध्वज प्रतीक है उस संदेश का जो तीर्थंकरों, आचार्यों, मुनियों के चिंतन-मनन व आचरण से परिष्कृत है। ध्वजारोहण की एकमात्र आकांक्षा यही होती है कि प्राणिमात्र को अभय देने वाला जैन धर्म की स्वर लहरी तीनों लोको में गॅूंजे। इस ध्वजा के फहराने का भी अधिकार उसे ही है जिसकी पूर्ण आस्था जैन जीवन शैली पर हो। जैन ध्वज के पाॅंच रंग होते हैं - क्रमशः सफेद, लाल, पीला, हरा और नीला। पंडित नाथूलालजी शास्त्री के अनुसार इन रंगों को गृहस्थी के पंचाणुव्रत का सूचक भी माना गया है। इस ध्वजारोहण के साथ ही पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का शुभारम्भ हो जाता है।

पंच कल्याणक में गर्भ कल्याणक के साथ संस्कारों की चर्चा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। व्यक्ति के जीवन की संपूर्ण शुभ और अशुभवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है जिनमें से कुछ वह पूर्व भव से अपने साथ लाता है व कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदि के प्रीााव से उत्पन्न करता है। इसीलिए गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करने के लिए विधान बताया गया है। जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाण का भाजन हो जाता है, जिनेन्द्रवर्णी पंचास्तिकाय, सिद्धिविनिश्यच, मूलाचार, धवला, महापुराण आदि ग्रंथों में संस्कारों पर बहुत कुछ लिखा गया है। पंचकल्याणक के शुभ संयोग से यदि संस्कारों के बारे में अधिक गहराई से विचार करेंगे तो उन्नत जीवन का हमारा नजरिया अधिक तर्किक हो जाएगा।

जन्म कल्याणक

भगवान होने वाली आत्मा का जब सांसारिक जन्म होता है तो देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घंटे बजने लगते हैं और इंद्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं। यह सूचना होती है इस घटना की कि भगवान की सांसारिक अवतरण हो गया है। सभी इन्द्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने पृथ्वी पर आते हैं। बालक का जन्म और जन्मोत्सव आज भी घर-घर में प्रचलित है, किन्तु सुमेरू पर्वत पर भगवान का अभिषेक एक अलग प्रकार की घटना बताई जाती है।

फोटो फोटो

तीर्थंकर के मामले में ऐसा गौरवशाली अभिषेक उनके पूर्वजन्मों के अर्जित पुण्यों का परिणाम होता है किन्तु प्रत्येक जन्म लेने वाले मानव का अभिषेक होता ही है। देवता न आते हों किन्तु घर या अस्पताल मंे जन्म लिए बालक के स्वास्थ्य के लिए व गर्भावास की गंदगियों को दूर करने के लिए स्नान ;अभिषेकद्ध आवश्यक होता है। तीर्थंकर चूॅंकि विशेष शक्ति संपनन होते हैं, अतः पांडुक वन में सुमेरू पर्वत पर क्षीरसागर से लिए 1008 कलशों से उनका जन्माभिषेक शायद कीज्ञी अवास्तविक लगे। हो सकता है इसमें भावना का उद्रेक व अपने पूज्य को महिमामंडित करने का भाव हो लेकिन संस्कारों की सीमा से परे नहीं है। एक तुरन्त प्रसव पाए बालक की अस्पताल में दिनचर्या को देखने पर यह काल्पनिक नहीं लगेगा। देवों द्वारा प्रसन्नता व्यक्त करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। पुत्र जन्म पर खुशियाॅं मनाते, मिठाई बाॅंटते हम सभी लोगांे को देखते हैंै। फिर तीर्थंकर तो पुरूषार्थी आत्मा होती है। जिन आचार्यों ने पंच कल्याणक क इस लौकिक रूप की रचना की उसको समझने में कोई त्रुटि न हो जाए, इसके लिए 2000 वर्ष पूर्व हुए आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति की गाथा में स्पष्ट किया है कि गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर जन्म स्थानों में सुखपूर्वक स्थित रहते हैं। यह गाथा अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि सांसारिक कार्यों में देवादि भाग नहीं लेते किन्तु तीर्थंकरत्व की आत्मा को सम्मान देने व अपना हर्ष प्रकट करने के लिए वे अपने उत्तर शरीर से उपस्थित होते हैं। इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति जन्म ले तो सब तरफ खुशियाॅं मनाना वास्तविक और तर्कसंगत है। यह आवश्यक नहीं कि तीर्थंकरों के जन्म लेते समय आम नागरिकांे ने देवों को देखा है। देवत्व एक पद है जिसका भावना से सीधा सम्बन्ध है।

3
2
1