।। जैनों की मूल मान्यता ।।
jain temple307

1. यह लोक अनादि अनंत तथा अकृत्रिम है। चेतन अचेतन छः द्रव्यों से भरा हुआ है। अनन्तानन्त है। अनन्तानन्त परमाणु जड है।

2.लोक के सर्व ही द्रव्य स्वभाव से नित्य है, परन्तु अवस्था के बदलने की अपेक्षा अनित्य है।

3. संसारी जीव प्रवाह की अपेक्षा अनादि से जड, पाप-पुण्यमय कर्मों के शरीर से संयोग से पाये हुए है।

4. हर एक संसारी जीव स्वतंत्रता से अपने अशुद्ध भावों द्वारा कर्म बांधता है और वही अपने शुद्ध कर्म नाश कर मुक्त हो सकता है।

5. जैसे किया हुआ भोजन पान स्थूल शरीर में स्वयं रखकर रूधिर, वीर्य बनकर अपने फल को दिया पापपुण्यमय सूक्ष्म शरीर स्वयं पाप पुण्य फल प्रकट करके आत्मा में क्रोध व दुःख सुख झलकाया करता किसी को दुःख सुख नहीं देता।

6. मुक्त जीव या परमात्मा अनन्त है उन सबकी सत्ता भिन्न-भिन्न है कोई किसी में मिलता नहीं सब स्वात्मानंद का भोग किया करते हैं तथा फिर भी संसार अवस्था में नहीं आते।

7. साधक गृहस्थ या साधुजन मुक्ति-प्राप्त परमात्माओं की भक्ति व आराधना अपने परिणामों की शुद्धि उनकों प्रसन्न उनसें फल पाने के लिए नहीं है।

8. मुक्ति का साक्षात् साधन अपने ही आत्मा की परमात्मा के मान शुद्ध गुण वाला जानकर-श्रद्धान प्रकार का राग, द्वेष, मोह कर्म बांधता है। इसके लिए भावमयी आत्म समाधि से कर्मझड ;नाश होद्ध जाते है।

9. अहिंसा परमधर्म है। साधु इसको पूर्णता से पालते है। गृहस्थ यथाशक्ति अपने-अपने पद के अनुसार नाम पर मांसाहार, शिकार, शौक आदि व्यर्थ कार्यों के लिए जीवों की हत्या नहीं करते।

10. भोजन शुद्ध, ताजा ;मांस, मदिरा, मधु रहितद्ध व पानी छना हुआ लेना उचित है।

11.. क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार आत्मा के शत्रु है, इसलिए इनको दूर करना चाहिए।

12. साधु के नित्य छः कर्म ये है- सामायिक या ध्यान, प्रतिक्रमण ;पिछले दोषों की निंदाद्ध , प्रत्याख्यान ;दोष त्याग की भावनाद्ध, स्तुति, वंदना, कार्योत्सर्ग ;शरीर की ममता को त्यागनाद्ध।

13. गृहस्थों के नित्य छः कर्म ये हैं-देव, पूजा, गुरू-भक्ति, शास्त्र पठन, संयम तप और दान।

14. साधु नग्न होते हैं, वह परिग्रह व आरम्भ नहीं रखते। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहम्चर्य, परिग्रह-त्याग, महाव्रतों को पूर्ण रूप से पालते है।

15. गृहस्थों के आठ मूल है-मदिरा, मांस, मधु का त्याग तथा एक देश यथाशक्ति अहिंसा, सत्य, असत्य, परिग्रह-प्रमाण, इन पांच अणुव्रतों को पालना।

जैन धर्म में सोला-सोलह प्रकार की शुद्धि

द्रव्य शुद्धि

1. अन्न शुद्धि - खाद्य सामग्री सडी गली, घुनी एवं अभक्ष्य न हो।

2. जल शुद्धि - जल जिवानी किया हुआ हो, प्रासुक हो, नल का न हो।

3. अग्नि शुद्धि - ईंधन देकर, शोधकर, उपयोग किया गया हो।

4. कत्र्ता शुद्धि - भोजन बनाने वाला स्वस्थ हो, तथा नहा धोकर साफ कपउे पहने हो,

नाखून बडे न हो, अंगुली वगैरह कट जाने पर खून का स्पर्श खाद्य वस्तु से न हों, गर्मी में पसीने का स्पर्श न हो, या पसीना खाद्य वस्तु में ना गिरे।

क्षेत्र शुद्धि

1. प्रकाश शुद्धि - रसोई घर में समुचित सूर्य का प्रकाश रहता हो।

2. वायु शुद्धि - रसोई घर में शुद्ध हवा का आना जाना हो।

3. स्थान शुद्धि - आवागमन का सार्वजनिक स्थान न हो एवं अधिक अंधेरे वाला स्थान न हों।

4. दुर्गंधता से रहित - हिंसादिक कार्य न होता हो, गंदगी से दूर हो।

काल शुद्धि

1. ग्रहण काल - चन्द्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण का काल न हो।

2. शोक काल - शोक, दुःख अथवा मरण का काल न हो।

3. रात्रि काल - रात्रि का समय न हो।

4. प्रभावना काल - धर्म प्रभावना अर्थात् उत्सव का काल न हो।

भाव शुद्धि

1. वात्सल्य भाव - पात्र और धर्म के प्रति वात्सल्य होना।

2. करूणा भाव - सब जीवों एवं पात्र के ऊपर दया का भाव।

3. विनय का भाव - पात्र के प्रति विनय भाव का होना।

4. दान का भाव - कषाय रहित हर्ष सहित भक्ति पूर्वक दान करने का भाव होना चाहिए।

जैन धर्म में ध्यान

पूजा करने के लिए मंदिर की आवश्यकता पडती है, किन्तु पूज्य बनने के लिए मंदिर की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञानी बनने के लिए मात्र शास्त्रों और ग्रन्थों की आवश्यकता नहीं हैं। ज्ञान तो आत्मा का धर्म है। अपने परिणामों को निर्मल करें, यही धर्म है। जब शुभ कर्म करेंगे, तो देव गति का बन्ध होगा और अशुभ कर्म करेंगे, तो नरक और तिर्यच गति का बन्ध होगा। जबकि शुद्धोपयोग से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः निज में निज का रमण यह निग्र्रन्थ योगी की दशा है, अतएव उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आर्किचन्य और ब्रहम्चर्य के लिए किसी बाहरी तत्व की आवश्यकता नहीं होती, यह तो जीव का स्वभाव है और यही धर्म है। अतः राग, द्वेष और मोह को छोड निज आत्मा का ध्यान करना चाहिए।

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