।। जैनों की मूल मान्यता ।।
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ध्यान के भेद

आत्र्त ध्यान
रौद्र ध्यान
धर्म ध्यान
शुक्ल ध्यान
इष्ट वियोगज आत्र्त ध्यान
ंिहंसानंद रौद्र ध्यान
आज्ञा विचय धर्म ध्यान
पुथकत्व विर्तक वीचार शुक्ल ध्यान
अनिष्ट वियोगज आत्र्त ध्यान
मृषानंद रौद्र ध्यान
अपाय विचय धर्म ध्यान
एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान
वेदना प्रभाव आत्र्त ध्यान
चैर्यानंद रौद्र ध्यान
विषाक विचय धर्म ध्यान
सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्ल ध्यान
निदान बंध आत्र्त ध्यान
परिग्रहानंद रौद्र ध्यान
संस्थान विचय धर्म ध्यान
व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान

‘‘जैन दर्शन‘‘ में ‘जीव‘ व ‘सजीव‘ की धारणा

जैन धर्मागमों में जीव एक क्लिष्ट अवधारणा है। निश्चय नय रूप से तो ‘चेतनालक्षणो जीवः‘ है, यानि जीव का लक्षण चेतना है। जीव अनन्त चतुष्टय की धारक है अर्थात् उसमंे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य व अनंत सुख का अस्तित्व है वह रूप, गंध, आकार व शब्द से विहीन है पर व्यवहार नये रूप में ‘जीव‘ का तात्पर्य ‘सजीव‘ से है जो जीव व पुद्गल का समवाय है। जीव पुद्गल में, जिसे काया अथवा देह भी कहते हैं कि पूरे प्रदेश में नीर-क्षीर जैसे व्याप्त रहता है। चाहे छोटी चींटी हो या एक हजार योजना का मत्स्य और चाहे स्थावर या तीर्थंकर, सभी में जीव साम्यता है। जो भेद हमें दृष्टिगत होता है वह पर्यायगत है, वास्तविक नहीं। पर्यायगत या कार्य भिन्नता अथवा देह में बाह्य इन्द्रियों की गणना के आधार पर जैनगमों में षट्कार्य जीवों का वर्णन हैं। पांच स्थावर व त्रय 5़1त्र6ण्

टेबल

1. त्रस जीव किसी जीव के स्पर्श व रसना होत है, किसी के स्पर्श, रसना, प्राण और किसी के स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कुछ में स्पर्श, रसना, घ्राण चक्षु के साथ कर्णेन्द्री भी होती है। इन त्रस जीवों में चेतना के उपरोक्त सभी लक्षणों के साथ हलन-चलन भी होता है। इसका तात्पर्य यह है कि छोटे कीडे-मकोडे, ंिसंह व मानव सभी त्रसों में एक समान जीव अधिष्ठित है।

2. स्थावर जीव पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु व वनस्पति एकेन्द्री जीव है। उनकी जीव का भी लक्षण वही चेतना है अतः वे भी ज्ञाता-दृष्टा का गुण रखते हैं, वे सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील हैं, हालांकि उनमें दुःख से बचने के लिए गति नहीं है। दुःख-सुख प्रकट करने हेतु ‘बाह्य इन्द्रियां‘ भी नहीं है। यह पर्यायगतध्देहगत भेद है। पर इनमें भी जीव समान है, समान गुणधर्म वाला, समान स्वभाव वाला। स्थावरों में चार प्राण है-इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्श्वास। छेदन-भेदन से जैसे त्रस जीव बचने की चेष्टा में हलन-चलन करते हैं ये साविर ऐसा नहीं कर पाते। ये दुःख संवेदन करते हुए भी इन्द्रिय के अभाव में भाग नहीं पाते। इनके केवल स्पर्श होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि खनन से पृथ्वी को ऐसा ही दुःख होता है जैसा हमें हमारे शरीर से मांस नोचने पर, जहरीले उत्सर्जन से वायुकाय वैसी ही घुटन महसूस करते हैं जैसे हम।

इस प्रकार जैनधर्म की व्याख्या अनुसार सभी जीव जीव है ‘णो हीणे णो अतिरिते। अतः व्यक्ति को सभी स्थावर हो अथवा त्रस जीवों के प्रति आत्मोपम्य, साम्यभाव रखना चाहिए।

जैन धर्म में अहिंसा

सामन्यतः ंिहंसा का अर्थ मारने, पीटने, सताने आदि से लिया जाता है और जीव को इन सबसे बचाना अहिंसा है पर यह अहिंसा का स्थूल अर्थ है। कुछ लोग अहिंसा का अर्थ जीव दया से भी लगाते हैं और पानी छानकर पीने व रात्रि भोजन त्याग को भी अहिंसा कहते है, पर अहिंसा इससे कहीं अधिक गहन अर्थ रखती है। अगर ये कहें कि अहिंसा की बात कई धर्मों में की गई है, पर मर्म इसका समझा जैनधर्म ने ही है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जैन अहिंसा का तात्पर्य है जीव साम्यता की स्वीकारोक्ति व आत्मोपम्य व्यवहार की अनुशंसा। अहिंसा जैन व्याख्या में ही अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रतिष्ठित हुई है, इसीलिए जैनधर्म को ‘अहिंसा धर्म‘ भी कहा जाता है; क्योंकि जैन धर्मोक्त अहिंसा में ही ‘सर्वमंगलमांगल्यं सर्व कल्याणकारकं‘ की भावना है और यह अहिंसा जैन धर्म का प्राण है। यही मानववाद के स्थान पर जीववाद का प्रतिष्ठापन है। केवल मानव स्वार्थ का नहीं, प्रत्येक जीव का हित चिंतन है जैन अहिंसा में।

अमृताचन्द्राचार्य देव ने अपने ग्रन्थ पुरूषार्थ सिद्धियुपाय में हिंसा की 8 भंगिमाओं को बताकर अहिंसा को और भी सूक्ष्मता से समझाया है। आचार्य श्री ये कहते हैं कि यथार्थ रीति से हिंसा, हिंस्य, हिंसक व हिंसाफल को जानकर यथाशक्ति हिंसा का त्याग करना चाहिए, इन्हें समझे बिना हिंसा त्याग कार्यकारी नहीं होता है,

ये भंगिमाऐं इस प्रकार है-

1. हिंसा करे एक भोगे अनेक

2. हिंसा करे अनेक भोगे एक

3. हिंसा करे थोडी भोग बहुत

4. करे समान भोगे न्यूनाधिक

5. करे बाद मे भोग पहले

6. करे कोई भरे कोई

7. बाह्य दया अंतरंग में हिंसा

8. बाह्य यत्नाचारव अंतरंग में दया

इस प्रकार जैन अहिंसा मन-वचन-कार्य तथा, कृत-कारित-मोदन के नौ संकल्पों से जुडी है।

जैन धर्म में हिंसा के भेद इस प्रकार बताए गए हैं-

संकल्पी हिंसा

आरम्भी हिंसा

विरोधी हिंसा

उद्योगी हिंसा

जैन अहिंसा के अनुसार जीवनयापन करने के लिए मानव का आरंभी हिंसा से पूर्णरूपेण वचना कठिन है। जैनागमों मे वर्णित पंद्रह खरकार्मों 13 की सूची में सभी उद्योग आ जाते हैं जो पर्यावरण प्रदूषित करने में प्रमुख योगदान देते है। ये सब खरकर्म हिंसावेष्टित वाणिज्य उद्योगादि है जो इस प्रकार हैं-

1. अंगार कर्म , 2. वनकर्म , 3. शकट कर्म , 4. भाट कर्म , 5. स्फोटक कर्म , 6. दंत वाणिज्य , 7. लाक्षा वणिज्य , 8. रस वाणिज्य , 9. केश वाणिज्य , 10. विष वाणिज्य

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