।। सूर्यग्रह अरिष्ट निवारक ।।

jain temple339

(अब निम्न पद्य पढद्यकर मंडल पर श्रीफल सहित अघ्र्य चढ़ावें।)
तर्ज-चन्दा प्रभु के दर्शन करने................
पद्मप्रभ तीर्थंकर की, पूजा सब पाप नशाएगी।
रविग्रह से होने वाली ग्रह-बाधा तुरंत भग जाएगी।।
जल चन्दन अक्षत पुष्प और, नैवेद्य दीप वर धूप लिया।
फल आादि आठ द्रव्यों से युत, ‘‘चन्दना’’ अघ्र्य का थाल लिया।।
प्रभु चरणों में अर्पण करते ही, आश मेरी फल जाएगी।
रविग्रह से होने वाली ग्रह-बाधा तुरंत भग जाएगी।।11।।
ऊँ ह्मीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र मण्डलस्योपरि प्रथम कोष्ठकमध्ये महाघ्र्यम्ं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जयमाला

-शेर छंद-

श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र सूर्य ताप को हरें।
श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र रोग शाोक परिहरें।
श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र तन में स्वस्थाता भरें।।1।।

माता के गर्भ में तुम्हारे आने से पहले।
की रत्नवृष्टि धनद ने तुम मात के महले।।
तब से धरा वसुन्धरा बन धन्य हुई है।
माता पिता के संग प्रजा धन्य हुई है।।2।।

थी लाल कमल के समान काया आपकी।
सुकुमारता सौन्दर्य में तुलना न आपकी।।
देवेन्द्र सदा सेवा में प्रस्तुत रहा करता।
किंकर समान भक्ति के ही शब्द उचरता।।3।।

जैसे कमल खिलाने में सूरज निमित्त है।
प्रभु मनकमल खिलाने में रवि के ही सदृश हैं।।
मैंने सुना है आपने कितनों को है तारा।
कितने ही भक्तों का प्रभों! संकट है निवारा।।4।।

बस आज मैंने इसलिए तुम शुरा लही है।
मुझ मन में तेरी भक्ति की गंगा जो बही है।।
तुम सम मुझे भी स्वस्थ तन की प्राप्ति हो जावे।
मुझ ‘‘चन्दनामती’’ की व्याधि शांत हो जावे।।5।।
ऊँ ह्मीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र जयमाता पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांलिः।

पद्मप्रभु की अर्चना, हरती मन सन्ताप।
चरणकमल की वन्दना, हरे ‘‘चन्दना’’ पाप।।1।।

इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।

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