आठों कर्मों में ‘तीर्थंकर‘ नाम कर्म सबसे अधिक पुण्यकर्म है। यह पुण्यकर्म करोड़ों मनुष्यों में से कोई एक व्यक्ति ही उपार्जन कर पाता है। जिस मनुष्य को ऐसी उत्कृष्ट भावना हो कि ‘मैं त्रिलोकवर्ती समस्त प्राणियों का उद्धार करूं‘ उस भावना के साथ जिस के १६ अन्य भावनाओं में से दर्शन विशुद्धि भावना के साथ कोई एक, तीन आदि और भी भावना हों उस महान् जगत् हितैषी पवित्र व्यक्ति के तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है।
तीर्थंकर प्रकृति वाला जीव नरक में भी अन्य नारकी जीवों से अच्छा रहता है। जिस समय वह जीव माता के गर्भ में आता है उससे भी छह महीने पहले से माता के घर पर तीर्थंकर के जन्म होने तक स्वर्ग से आकर कुबेरइन्द्र रत्नों की वर्षा करता हैं, गर्भ से आते ही देव देवियां वहां आकर उत्सव मनाते हैं। ५६ कुमारिया, अष्ट देवियाँ माता की सेवा करती हैं। तीर्थंकर के जन्म समय देवों द्वारा महान् अद्भुत उत्सव होता है सुमेरु पर्वत पर उनका देवों द्वारा अभिषेक होता है। तीर्थंकर का ज्ञान, शरीर का सौन्दर्य, बल पराक्रम जन्म से ही असाधारण होते हैं, उनको मल मूत्र नहीं होता, उनका रक्त दूध के समान सफेद होता है, उनके शरीर मे पसीना नहीं आता, शरीर में सुगंधी आती है, शरीर में १॰॰८ शुभ लक्षण होते हैं। इत्यादि अनेक विशेषताएं उनके जन्म से ही होती हैं।
तीर्थंकर को जिस समय संसार, शरीर और विषय भोगों से विरक्ति होती हैं, उस समय देव इन्द्र आकर महान् उत्सव करते हैं। लोकान्तिक देव सर्व प्रथम उनके वैराग्य भाव की प्रशंसा करके उनको वैराग्य की और अधिक प्रेरणा करते हैं, इतना करर्य करके जब वे चले जाते हैं तब शेष देव इन्द्र उनको बड़े उत्सव से तीर्थंकर को वन में ले जाते हैं जहां पर तीर्थंकर अपने समस्त वस्त्र आभूषण उतार कर पांच मुट्ठियों से अपने सिर के बालों को लोंच करते हैं (तीर्थंकर के दाढ़ी मूछ नहीं होती) फिर सिद्धों को नमस्कार करके आत्मध्यान में मग्न हो जाते हैं। सौधर्म इन्द्र उनके लुंचित केश को क्षीर सागर समुद्र में क्षेपण कर आता है।
कुछ समय तक तपस्या करने पर तीर्थंकर को जब चार घात्तिकर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) से मुक्ति मिल जाती है तब उनको कैवल्य पद प्राप्त होता है; केवल ज्ञान द्वारा वे समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष जानते हैं। उस समय देव आकर महान उत्सव करते हैं और तीर्थंकर भगवान का सर्वहितकर प्रभावशाली उपदेश कराने के लिए महान् विशाल समवशरण नामक एक सुंदर व्याख्यान सभा बनाते हैं उनमें गंधकुटी नामक उच्च स्थान पर विराजमान होकर बिना किसी इच्छा के स्वयं उनकी दिव्यवाणी निकलती है जिसको समवशरण में बैठे समस्त देव देवियाँ, स्त्री पुरुष, साधु आर्यिका, पशु पक्षी अपनी-अपनी भाषा में सुनकर महान् आत्मलाभ करते हैं। तीर्थंकर प्रकृति का उदय इसी समय होता हैं, उसी के कारण जगत् उद्धारक तीर्थंकर का उपदेश होता है, इकसे पहले छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अवस्था में वे उपदेश नहीं दिया करते। अनेक देशों में विहार करके वे धर्म का प्रचार किया करते हैं। वे जहाँ कहीं भी पहुँचते हैं वहीं पर देवों द्वारा तत्काल समवशरण की रचना होती रहती है। इसी महान धर्म-प्रचार के कारण उनका तीर्थंकर (धर्म तीर्थ के करने वाले) नाम सार्थक होता है।
उनकी आयु जब बहुत ही अल्प रह जाती है, तब उनका विहार बंद हो जाता है, दिव्यध्वनि बंद हो जाती है, शारीरिक क्रिया बंद हो जाती है। पूर्ण रूप से योग निरोध होने पर उनके शेष चार अघाति कर्म (वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र) भी नष्ट हो जाते हैं, उस समय वे पूर्ण मुक्त होकर सिद्धालय में विराजमान हो जाते हैं। तीर्थंकर के मुक्त हो जाने पर भी देव इन्द्र मध्यलोक में तीर्थंकर के मुक्तिस्थान पर आकर महान् उत्सव करते हैं, अग्नि कुमार देव आकर दाह-संस्कार करते हैं।
इस प्रकार तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, केवल ज्ञान और मुक्ति के समय देवों के द्वारा महान् उत्सव होता है, उस उत्सव को देखकर बहुत से देवों, मनुष्यों पशु पक्षियों को सम्यग्दर्शन (आत्मश्रद्धा) होता है, आनंद होता है, इस लोक कल्याण के कारण उन उत्सवों को कल्याणक कहा जाता है।
भरत, ऐरावत क्षेत्रों में तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं, परंतु विदेह क्षेत्र में जो पूर्व भव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके आते हैं, उनके ५ कल्याणक होते हैं। जो गृहस्थ अवस्था में उसी भव में तीर्थंकर उपार्जन करते हैं, उनके तप, ज्ञान, निर्वाण ये तीन कल्याणक होते हैं, और मुनि अवस्था में जिनके तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है उनके ज्ञान और मोक्ष ये दो कल्याणक ही होते हैं।
उस तीर्थंकर प्रकृति के बंध की कारणभूत १६ भावनाएं हैं इस कारण उनका नाम ‘षोडश (सोलह) कारण भावना‘ है। उनके नाम ये हैं-
1. दर्शन विशुद्धि
2. विनय सम्पन्नता
3. शीलव्रतेष्वनतीचार
4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग
5. संवेग
6. शक्तिततस्त्यागं
7. शक्तिस्तप
8. साधुसमाधि
9. वैयावृत्य
10. अर्हद्भक्ति
11. आचार्यभक्ति
12. बहुश्रुतभक्ति
13. प्रवचनभक्ति
14. आवश्यकापरिहारिणी
15. मार्गप्रभावना
16. प्रवचनवात्सल्य