इस नवविधान में सर्वप्रथम, सोलहकारण के अघ्र्य दिया। जिनको भाकर प्रभु महावीर ने, तीर्थंकर पद प्राप्त किया।। जिन सोलह स्वप्नों के फल में, मां ने तीर्थंकर सुत पाया। उनका वर्णन भी है इसमें, फिर चैंतिस अतिशय दर्शाया।।9।। अठ प्रातिहार्य आनन्त्य चतुष्टय, गुण हैं जो प्रभु ने पाया। फिर दोष अठारह नाशक प्रभु को, अघ्र्य चढ़ा मन हरषाया।। बारह गण के बारह अघ्र्यों में, सिद्धशिाला तक पहुंच गये। इन सात वलय में इस सौ आठ, गुणों क अघ्र्य समप्र्य दिये।।10।। गुणमाला प्रभु के चरणों में, अर्पण कर निजगुण प्राप्त करूं। महावीर प्रभू के चरणों में, वन्दन कर सुख साम्राज्य वरूं।। अतिवीर वीर सन्मति भगवान्! मुझको सद्बुद्धि प्रदान करो। भक्ती में रत निज भक्तों को, संसारजलधि से पार करो।।11।। हो मनोकामना पूर्ण मेरी, रत्नत्रय मेरा सुदृढ़ बने। जब तक शिवपद की प्राप्ति न हो, सम्यक्त्व भी मेरा सुदृढ़ बने।। पूर्णाघ्र्य समर्पण करूं प्रभो! पूजन की इस जयमाला में। ‘‘चन्दनामती’’ भव भव में मुझको, जिनवर भक्ती मिला करे।।12।।
ऊँ ह्मीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय मनोवांिछतफलप्रदायश्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमला महाघ्र्य।
विर्नपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-शंभु छंद-
जो भव्य मनोकामनासिद्धि, महावीर विधान करें रूचि से। प्रभु जी के इक सौ आठ गुणों में, रमण करें तनम न शुचि से।। वे लौकिक सुख के साथ-साथ, आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त करें। ‘‘चन्दनामती’’ जिनवर भक्ती का, फल शिवपद भी प्राप्त करें।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।
प्रशस्ति
शंभु छनद
प्रभु महावीर को वन्दन कर, पूर्वाचार्यों को नम करूं। मां सरस्वती का कर अर्चन, श्रुत प्राप्ति हेतु भावना भरूं।। प्रभु महावीर की जन्मभूमि का, कण-कण पावन पूज्य कहां। यहां दो वर्षों का समय बिताकर, जीवन मेरा धन्य हुआ।।1।। प्रेरणा ज्ञानमति माताजी की, कई मंदिर निर्माण हुए। महावीर शब्दकोश आदिक, कृतियों के भी निर्माण हुए।। इसकड़ी में ही यह मनोकमना-सिद्धि विधान लिखा मैंने। जिनवर भक्ती परिणामशुद्धि, हेतू यह काव्य रचा मैंने।।2।। पच्चिस सौ तीस वीर संवत्, वैशाख कृष्णा दुतिया आई। गणिनी माता श्री ज्ञानमती की, दीक्षातिथि मन को भाई।। इस मनोकामना सिद्धि पाठ को, लिखकर पूर्ण किया मैंने। निज-पर की मनोकमनाओं की, सिद्धि का भाव छिपा मन में।।3।। है यही प्रार्थना वीर प्रभु से, भव-भव में तव भक्ति करूं। जब तक नहिं मोक्ष मिले तब तक, रत्नत्रय निधि को प्राप्त करूं।। है नभ में जब तक सूर्य-चांद, पानी है जब तक सागर में।र् आिर्यका चन्दनामति की यह, लघु कृति भी भक्ति भरे जग में।।4।।
इति शं भूयात्