।। आओ मंदिर चले ।।
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प्रश्न-96 श्रावक के मुख्य धर्म कौन-कौन से हैं?

उत्तर- श्रावक के मुख्य धर्म दान और पूजा हैं।

प्रश्न-97 श्रावक किसे कहते हैं?

उत्तर- श्रावक शब्द तीन अक्षरों से बना है-

श्र-श्रद्धावान, व-विवकेवान, क-क्रियावान

जो देव-शास्त्र-गुरू को देखकर समीचीन श्रद्धा विवेक और क्रिया को उपलब्ध हो जाए अर्थात सम्यक्दर्शन; सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को उपलब्ध हो जाए, वह श्रावक है।

प्रश्न-98 पूजन करने का पात्र कौन है?

उत्तर- जो देव-शास्त्र गुरू का श्रद्धानी व सप्त व्यसनों से मुक्त, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेकी, सदाचारी, संतोषी, अष्टमूल गुणों का धारी हो तथा अंगहीन (विकलांग) व रोगी न हो, वही व्यक्ति पूजन का अधिकारी हैं

प्रश्न-99 पूजन के कितने अंग हैं?

उत्तर- पूजन के छः अंग हैं-

1 - अभिषेक

2 - आह्हान

3 - स्थापना

4 - सन्निधिकरण

5 - अष्ट द्रव्य

6 - विसर्जन

प्रश्न-100 अभिषेक क्या है?

उत्तर- शुद्ध प्रासुक जल से नन्हवचन (स्नानादि) को अभिषेक कहते हैं।

प्रश्न-101 पंच परमेष्ठी में अभिषेक किसका होता है और क्यों?

उत्तर- पंच परमेष्ठी में अभिषेक किसी भी परमेष्ठी का साक्षात् नहीं होता क्योंकि- अरिहंत परमेष्ठी-जिन्हें कोई भी जड़, चेतन पदार्थ स्पर्श नहीं कर सकता अर्थात् समवसरण् में भी कमल पर चार अंगुल अधर में रहते हैं। फिर भी अभिषेक जल स्पर्श कैसे करेगा? अर्थात साक्षात् अरिहंत का अभिषेक नहीं होता।

सिद्ध-सिद्ध शरीर रहित है। जिसका शरीर नही ंतो फिर अभिषेक कैसे? अर्थात सिद्ध परमेष्ठी का भी अभिषेक नहीं होता।

आचार्य उपाध्याय साधु स्नान के त्यागी होते हैं उनका भी अभिषेक नहीं होता।

प्रश्न-102 फिर अभिषेक किसका होता है?

उत्तर- नव देवताओं में पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त जिन चैत्य, जिन चैत्यालय, जिन धर्म और जिनागम भी देवता हैं। अतः धर्म-निराकार और जिनागम शास्त्र हैं। उनका भी अभिषेक नहीं हो सकता। मात्र जिन चैत्य (जिन प्रतिमा) और जिन चैत्यालय, इन दो देवताओं का अभिषेक होता है।

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प्रश्न-103 जिन चैत्य का अभिषेक देखा है पर जिन चैत्यालय का अभिषेक कैसे होता है, देखा नहीं?

उत्तर- जिन चैत्यालय या मंदिर की प्रतिष्ठा के समय जिन चैत्यालय के शिखर के सामने दर्पण रखा जाता है। दर्पण पर शिखर का जो प्रतिबिम्ब बनता है उसका अभिषेक किया जाता है।

प्रश्न-104 जन्माभिषेक के समय इन्द्रादि तो साक्षात् अरिहंत का अभिषेक करते हैं?

उत्तर- नहीं जन्माभिषेक के समय तीर्थंकर बालक अवस्था में रहते हैं अरिहंत अवस्थाा तो तपक ल्याण के बाद चार घातिया कर्म नष्ट करने पर आती है।

प्रश्न-105 क्या जिन बिम्ब का अभिषेक जन्माभिषेक मानकर कर सकते हैं?

उत्तर- नहीं, जिनबिम्ब और जन्माभिषेक में काफी अंतर है। जन्माभिषेक तीर्थकर के ‘जन्म कल्याण’ के समय इन्द्रादि द्वारा सम्पन्न की गई एक क्रिया है ओर जिन बिम्ब अभिषेक पांचों कल्याणक सम्पन्न होने के उपरांत जिन प्रतिमा के न्हवन की मनुष्यों द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली क्रिया है। जिस प्रतिमा के हमने पांचों कल्याणक सम्पन्न करा दिए हैं। अर्थात पूर्ण वीतरागी जिसे बना दिया है उसका जन्माभिषेक कैसे कर सकते हैं? क्योंकि जन्माभिषेक तो सराग अवस्था की क्रिया है। वीतराग अवस्था के उपरांत जन्माभिषेक जैसी सराग क्रिया नहीं होती। अतः जिन बिम्ब अभिषेक जन्माभिषेक नहीं है।

प्रश्न-106 जिनेन्द्र देव तो भावों में हैं फिर जिन प्रतिमा का अभिषेक पूजन क्यों करें?

उत्तर- साक्षात् अरिहंत भगवान् जीवों के शुभोपयोग में उत्पन्न कराने में जिस प्रकार कारण होते हैं उसी प्रकार प्रतिमा भी शुभोपयोग कराने में कारण होती है। प्रतिमा को देखकर अरिहंत देव भावों में विराजमान होते हैं। जेसे अपने पुत्र के समान ही दूसरे के सुंदर पुत्र को देखकर अपने पुत्र की याद आ जाती है, उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा देखने से जिनेन्द्र के गुणों का स्मरण हो जाता है; जिससे अशुभ कर्म संवरण को प्राप्त होते हैं। इसलिए जिन प्रतिमा भी अभिषेक पूजन के योग्य है।

प्रश्न-107 जिनेन्द्र देव की प्रतिमा देखने से देव भावों में विराजमान होते हैं। इसका आधुनिक उदाहरण देकर समझाएं?

उत्तर- जिस प्रकार कैमरे की रील में तब तस्वीर बनती है जब सामने कोइ्र दृश्य होता है। बिना दृश्य के जैसे रील पर तस्वीर नहीं बनती उसी प्रकार बिना प्रतिमा के दर्शन के भावों में देव का निवास नहीं होता है।

प्रश्न-108 अभिषेक करने वाले की वेश-भूषा क्या होनी चाहिए?

उत्तर- अभिषेक करने वाले की वेश-भूषा इन्द्र के समान होनी चाहिए। जिस प्रकार इन्द्र मुकुट, कुण्डल, हार, बाजूबंद, तिलक, कंकण, मुद्रिका, करधनी, यज्ञोपवीत, घुंघरूं, धोती, दुपट्टे आदि से सुशोभित होकर जिनेन्द्र का अभिषेक पूजन करता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी अलंकृत होकर अभिषेक पूजन करना चाहिए।

प्रश्न-109 अभिषेक पूजन करते समय इन्द्र की कल्पना क्यों करनी चाहिए?

उत्तर- इन्द्र का पद क्षायिक सम्यग्दृष्टि का पद होता है जो नियम से मुक्ति (मोक्ष) प्रदान कराने में कारण होता है ओर वह इन्द्र का पद एकमात्र जिनेन्द्र का पूजन, अर्चना का फल है अर्थात जिनेन्द्र भगवान की एकमात्र पूजन परम्परा से मोख प्रदान करने वाली हैं इस दुषम काल में साक्षात मुक्ति तो नहीं हां स्वर्गादिकीसे सुख के उपरांत मुक्ति मिल सकती हैं इसलिए इन्द्र के क्षायिक सम्यक्त्व की भावना को लेकर इन्द्र की कल्पना की जाती हैं

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