प्रश्न-152 इक्षु रस (गन्ने का रस) के विषय में क्या विवेक रखना चाहिए?
उत्तर- गन्ने के रस निकालने की मशीर को गर्म पानी से धोकर गन्नों को भी गर्म पानी से धोकर शुद्ध वस्त्र पहनकर रस निकालकर उसे कपड़े से छान लें। फिर उस रस से भगवान का अभिषेक करें। बाजार में मिलने वाले अशुद्ध रस से अभिषेक नहीं रना चाहिए अथवा प्रासुक जल में खांड का घोल बनाकर भी इक्षु रस के रूप में सीमित मात्रा में प्रयोग कर सकते हैं।
प्रश्न-153 पंचामृत अभिषेक की तैयारी करते समय इतनी सुविधा या समय उपलब्ध न हो तो क्या अभिषेक नहीं करना चाहिए।
उत्तर- ऐसा नहीं है। शुद्ध साधन हो सकें तो पंचामृत की जगह जल से भी अभिषेक कर सकते हैं। अभिषेक तो करना ही चाहिए और यदि उसे हम अपने अहंकार की पूर्ति के उद्देश्य से पंचामृत का निषेध करते हैं तो विवादास्पद स्थिति बनती है। अभिषेक का लक्ष्य समाप्त हो जाता है। आगम में दोनों मान्यताएं हैं। निष्कषाय भाव से अभिषेक पूजन करना चाहिए।
प्रश्न-154 क्या पूजन मात्र भावों से नहीं कर सकते?
उत्तर- कर सकते हैं, जिन शासन में भावों का ही महत्व है, द्रव्य पूजा के साथ-साथ भव भी आवश्यक है। अकेले द्रव्य चढ़ाने से पूजन नहीं होती। भाव ही प्रधान है, परंतु योग्यता के अनुसार अर्थात जहां से गृह सम्बंधी सारे आरम्भ, परिग्रह का त्याग हो जाता है वहां से द्रव्य रहित भाव पूजन होती है।
प्रश्न-155 हिंसा तो आखिर हिंसा है चाहे गृहस्थ करें या आरम्भ का त्यागी करे?
उत्तर- कोई भी व्यक्ति हो चाहे वह त्यागी हो या गृहस्थ, गृह कार्यों में लिप्त होने से जीव मारेगा तो हिंसा पाप का बंध होगा। परंतु पूजन में जीवों को मारने का लक्ष्य नहीं है, पूजन के परिणाम तो दया भाव से ओतप्रोत हैं। कहीं असावधानी में जीव मर भी जाते हैं, तो वह पूजन के माध्यम से इतना पुण्य आश्रव करता है कि हिंसा का पाप न के समान लगता है। हां, फिर भी पाप, पुण्य ध्यान में रखते हुए जीवों पर करूणा भाव होना चाहिए। अतः पूजन अभिषेक के विशेष सावधानी रखनी चाहिए, जिससे किसी के प्राणों का घात न हो। पूजाजन्य आरम्भ तो पूज्य की ओर ले आता है परंतु गृहस्थी के कार्य आरम्भ तो मात्र पाप की ओर ले जाता है।
प्रश्न-156 अष्ट द्रव्य से पूजन करने का क्या औचित्य है?
उत्तर- अष्ट द्रव्य से पूजन करने का बड़ा महत्व हैं। आठों द्रव्य ही ंसार के दुखों से मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं और गृहस्थ जीवन में दान भावना को जाग्रत करते हैं। अष्ट द्रव्य चढ़ाने से लोभ या संग्रह की प्रवृत्ति मिटती है, उदार परिणाम सामने आते हैं सदभावना बनी रहती है।
प्रश्न-157 क्या सम्यग्दृष्टि शासन देवी-देवताओं की अष्ट द्रव्य से पूजन करनी चाहिए?
उत्तर- सम्यक दर्शन तो त्रिलोक पूज्य है ही, फिर भी जैन धर्म में वीतरागता की उपासना है। जिस सम्यक दर्शन के साथ वीतरागता जुड़ जाती है वही सम्यक दर्शन अष्ट द्रव्य से पूजा जाता है। शासन देवी-देवताओंके पास वीतरागता व संयम नहीं है। अतः शासन देवी-देवता सम्यक दर्शन से युक्त होने के कारण सम्मान के पात्र हैं उनका यथायोग्य सम्मान जय-जिनेन्द्र कहकर करना चाहिए। परंतु अष्ट द्रव्य से पूजन नहीं करना चाहिए।
प्रश्न-158 वीतराग सम्यक् दर्शन ही पूज्य है तो फिर आर्यिका भी तो वीतरागी नहीं है, उनकी पूजा होनी चाहिए या नहीं?
उत्तर- आर्यिका पूजन की परम्परा किंहीं आचार्यों ने स्वीकार की है एवं आज भी होती है। परंतु वीतरागता को लक्ष्य में रखा जाए तो आर्यिका का भी अष्ट द्रव्य से पूजन नहीं होना चाहिए। आर्यिका ‘वन्दामि’ के सम्मान तक की पात्र है और फिर देव-आस्त्र गुरू में आर्यिका का स्थान नहीं है और न ही पंच परमेष्ठी के पद पर सुशोभित है। पांचवां सराग संयम गुण स्थान हाने के कारण भी आर्यिका अष्ट द्रव्य से पूज्य नहीं है। आर्यिका को उपचार से महाव्रती कहा गया है यथार्थ में नहीं। जैसे मां अपने बेटे को राजा बेटा कह देती है, वह बेटा राजा नहीं हो जाता। उपचार से महाव्रती कहने का अर्थ छठवां-सातवां गुण स्थान नहीं होता है।
प्रश्न-159 अभी-2 एक परम्परा चल रही है कि कुछ ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणियां भी अपनी आरती, पूजन, पाद प्रक्षालन, चरण आदि श्रावक से करवाले लगे हैं। तो क्या उनकी पूजन आदि करना चाहिए?
उत्तर- कभी नहीं जब आर्यिका को भी पूर्ण वीतरागी नहीं माना, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका को भी पूजन, पाद प्रक्षालन आदि के योग्य नहीं माना तो ब्रह्मचारियों या ब्रह्मचारिणियों की तो बहुत दूर की बात है और जो समाज में यह परम्परा डाल रहे हैं, वीतराग धर्म के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, उन ब्रह्मचारियों, ब्रह्मचारिणियों को संयास आत्मा की प्यास के लिए नहीं हुआ बल्कि बाहर से ओढ़ा हुआ संयास है जो कि निचले पद में उच्च पद का सम्मान चाहते हैं, वे ख्याति लाभ पूजादि की चाह से ग्रसित हैं। श्रावक को आगम अनुसार विवेकपूर्वक पूजन आदि का सम्मान यथायोग्य पात्र को देना चाहिए। बिना विवेक की क्रिया फल नहीं देतीं यह जिन शासन या जैन धर्म मात्र वीतरागता का उपासक है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए। इस तरह की परम्परा से रागी देवी-देवताओं की पूजन का प्रारम्भ हो जाएगा।
प्रश्न-160 पूजन करने के उपरांत चढ़ाए हुए द्रव्य प्रसाद के रूप में खा सकते हैं क्या?
उत्तर- भगवान को चढ़ाए हुए द्रव्य, प्रसाद नहीं, अपितु निर्माल्य हो जाता है, निर्माल्य द्रव्य का भक्षण नहीं करना चाहिए।
प्रश्न-161 निर्माल्य का क्या अर्थ होता है?
उत्तर- निर्माल्य का अर्थ भोगी हुई सामग्री अर्थात भोगी हुई सामग्री के निर्ममत्व भाव से है। अर्थात चढ़ाई गई सामग्री से निर्ममत्व भाव हो जाना या समत्व परिणामों से रहित हो जाना। महान पूज्य आत्माओं के सम्मुख अर्पित किया गया स्वच्छ द्रव्य अर्थात स्वामित्व भाव से विसर्जित द्रव्य निर्माल्य है। अतः चढ़ें हुए द्रव्य पर मोह और स्वामित्व भाव न रहने के कारण उसे भक्षण नहीं करते।
प्रश्न-162 क्या निर्माल्य सिर्फ चढ़ाए हुए अष्ट द्रव्य ही होते हैं या अन्य सामग्री भी?
उत्तर- निर्माल्य अष्ट द्रव्य ही मात्र नहीं, जिन मंदिर के जीर्णोद्धार, जिन बिम्ब प्रतिष्ठा मंदिर प्रतिष्ठा, तीर्थ यात्रा, रथोत्सव, जिन आयतनों की रक्षा के लिए प्रदान किए हुए दान को भी निर्माल्य कहा जाता है । उनका भी हमें अपने घर में उपयोग नहीं करना चाहिए। मंदिर आदि के निर्माण होते समय सीमेण्ट, रेत ईंट गिट्टी आदि सामग्री का जो प्रयोग होता है उस सामग्री में थोड़ी रेत गिट्टी आदि घर ले जाने में भी निर्माल्य का दोष है।
प्रश्न-163 निर्माल्य का उपयोग करने वालों का आगम में क्या भविष्य बतलाया है?
उत्तर- निर्माल्य वस्तु का उपयोग करने वालों का आगम में बताया है कि जो मनुष्य लोभवश निर्माल्य ग्रहण करता है, वह मनुष्य मरकर नरकगामी होता है, महापापी है। यदि वह मनुष्य पर्याप में जन्म लेता है तो उसकी पीठ पर कूबड निकल आती है। कुरूप होता है। तिर्यंच पर्याय में जाता है तो बैल, भैंस, ऊंट आदि बनता है जिस पर बोझ लादा जाता है। देव पर्याय में अभियोग्य जाति का वाहन देव बनता है।
प्रश्न-164 गंधोदक क्या होता है?
उत्तर- गंधोदक में दो शब्द गंध$उदक हैं।
गंध का अर्थ है सुगंधित और उदक का अर्थ है जल। अर्थात सुगंधित जल गंधोदक कहलाता है और तीर्थंकर भगवान के चैंतीस अतिशय में सुगंधित शरीर होना भी एक अतिशय है। तो जो जल तीर्थंकर के शरीर के स्पर्श से या स्नान से सुगंधित हो जाता है गंधोदक कहलाता है।