प्रश्न-165 गंधोदक अंग में क्यों लगाना चाहिए?
उत्तर- जिन प्रतिमा चूंकि सूर्य मंत्र से मंत्रित हैं और वह सूरि मंत्र दिगम्बर आचार्य मुनिराज ही देते हैं क्योंकि महाव्रतियों के सत्य महाव्रत होता है जिससे उनके वचन प्रासुक वचन होते हैं जो कि असंयमी अव्रती या अनुव्रती के नहीं होते। महाव्रती द्वारा सूरिमंत्र से मंत्रित प्रतिमा होती हैं एवं उसी के प्रभाव से मंत्र के परमाणु प्रतिमा के रंग-रंग में समाए हैं। क्योंकि सत का कभी विनाश नहीं होता है तो उस जल में सारे रोगों को नष्ट करने की शक्ति आ जाती है। चाहे शरीरिक रोग हो या जन्म-मरण का, सभी रोग गंधोदक को उत्तम अंग मस्तक, नेत्र, हृदय, कंठ में लगाने से नष्ट हो जाते हैं। अतः गंधोदक को श्रद्धा सहित लगाना चाहिए।
प्रश्न-166 आह्वाहन किसे कहते हैं?
उत्तर आह्वाहन का अर्थ आमंत्रण से है। पूजा के निमित्त इष्ट देवता को प्रतीक रूप में बुलाना आह्वाहन कहलाता है।
प्रश्न-167 आह्वाहन करते समय किस मंत्र का प्रयोग करते हैं?
उत्तर- आह्वाहन करते समय माला लो देव-शास्त्र-गुरू की पूजन करती है तो ‘‘ऊँ हहृीं श्री देव-शास्त्र-गुरू समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाहनं ।।’’ मंत्र का प्रयोग करते हैं एवं देव -शास्त्र-गुरू के अलावा अन्य तीर्थंकर, गुरू, शास्त्र जिसका भी पूजन करें, उस समय देव-शास्त्र-गुरू के स्थान पर उनका नाम लेना चाहिए।
प्रश्न-168 क्या आह्वाहन करने से भगवान मोक्ष से नीचे आ जाते हैं?
उत्तर- नहीं! भगवान तो मोक्ष से नहीं आते हैं परंतु पूजक अपनी भावना के माध्य से उन्हें आमंत्रित करता है, ताकि मन एकाग्र हो सके। मन भटकने न पावे। उसे भय रहे कि भगवान साक्षात विराजमान हैं। जिससे भवानाएं एकलव्य की भांति विशुद्ध होकर परमात्म गुणों को प्राप्त करने लगती हैं। एकलव्य ने मिट्टी की मूर्ति से धनुष विद्या सीखी।
प्रश्न-169 आह्वाहन करते समय पूजक के क्या भाव होने चाहिए?
उत्तर- आह्वाहन करते समय पूजक को अपने भावों के माध्यम से जिनेन्द्र भगवान को बुलना चाहिए कि हे जिनेन्द्र! आओ और मेरे हृदय रूपी मंदिर में पधारो। ताकि मेरा हृदय पवित्र हो जाए और मेरा तन मेरा मंदिर बन जाए।
प्रश्न-170 अत्र अवतर अवतर संवौषट् का क्या अर्थ है?
उत्तर- अत्र-यहां , अवतर-आएं, पधारें, अवतरित हों।
संवौषट्-आकर्षक रूप शब्द है। अर्थात हे जिनेन्द्र! यहां (हृदय में) आएं, पधारें।
प्रश्न-171 स्थापना किसे कहते हैं?
उत्तर- पूजन करते समय जिन पूज्य आत्माओं का आह्वाहन किया था उन्हें सम्मान सहित हृदय रूपी सिंहासन पर स्थापित करना या बिठाना स्थापना कहलाती है।
प्रश्न-172 स्थापना करते समय कौन-सा मंत्र पढ़ते हैं?
उत्तर- ऊँ हृीं श्री देव-शास्त्र गुरू समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। (अन्य पूजन करते समय देव-शास्त्र-गुरू की जगह उनका नाम लेना चाहिए।)
प्रश्न-173 स्थापना करते समय क्या भाव होने चाहिए?
उत्तर- स्थापना करते समय मन में यही भाव होने चाहिए कि हे जिनेन्द्र! आप मेरे हृदय रूपी सिंहासन पर ठहरें, रूके रहें, हमेशा के लिए विराजमान हो जाएं।
प्रश्न-174 तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ‘ स्थापनम् का क्या अर्थ है?
उत्तर- तिष्ठ-तिष्ठ-ठहरें, रूके रहें। ठः ठः- बैठे, विराजमान हों। स्थापनम्-स्थापित हों।
प्रश्न-175 सन्निधिकरण क्या है?
उत्तर- जिन प्रतिमा के सम्मुख निकट होने को सन्निधिकरण कहते हैं।
प्रश्न-176 सन्निधिकरण करते समय क्या भाव होने चाहिए?
उत्तर- सन्निधिकरण करते समय भाव होने चाहिए कि हे जिनेन्द्र! मैं आपके बिल्कुल निकट होने की भावना करता हूं। जब तक मुझे इस संसार से मुक्ति न हो तब तक आप मेरे और मैं आपके निकट रहूं क्योंकि आपके निकट रहने से मैं अपने-आपको संसार से बिल्कुल अलग पाता हूं और देव-शास्त्र-गुरू निकट हो तो मन-वचन-कर्म की चंचलता मिटने लगती है।
प्रश्न-177 आह्वाहन, स्थापना आदि करते समय किसका अवलम्बन लेना चाहिए?
उत्तर- मूल में तो अपने भावों का ही अवलम्बन लेना है। भावों को लगाने के लिए लौंग या पुष्प के माध्यम से आह्वाहन, स्थापना करना चाहिए।
प्रश्न-178 जब साक्षात् मंदिर में प्रतिमा विराजमान है तो फिर ठोने में पुष्प या लौंग के माध्यम से परमात्मा की स्थापना आह्वाहन क्यों?
उत्तर- यद्यपि मूल में देखा जाए तो परमात्मा सिद्ध लोक में विराजमान है। वीतराग भगवान का आह्वाहन, स्थापना आदि करने से वे नीचे नहीं आते। अतः तार्किक दृष्टि से विचार करने पर इन सबका कोई औचित्य नहीं है। परंतु भक्ति-भावना के स्तर का यह तथ्य व्यवहार रूप में परम सत्य हैं पूजन का सम्बंध भावों से है। पूजा करते समय भक्त के मन में भगवान के प्रति सहज ही भाव दशा बन जाती है। भावुकतावश वह सोचता है कि मानो मेरे भगवान मेरे सामने खेड़े हों। अतः आह्वाहन आदि द्वारा भगवान को बुलाना, सम्मान देना, निकट रखना, यह सहज प्रक्रिया है। एकलव्य मिट्टी के द्रोणाचार्य को भक्तिवश जीवंत मानता था। चूंकि भक्ति भावों का विषय है ढोनों में पुष्पों का क्षौपण, तो पुष्पांजलि सम्मान हेतु समर्पित करना है। चावल, लौंग, आदि में जिनेन्द देव नहीं मानते हैं एवं यह कोई आवश्यक नहीं है कि मंदिर में सभी वेदियों पर चैबीस या अन्य केवलियों की भी प्रतिमाएं उपलब्ध हो। जो प्रतिमा उपलब्ध नहीं उसका आह्वाहन, स्थापना व सन्निधिकरण तो करना ही होगा।
प्रश्न-179 ठोना क्या होता है?
उत्तर- यह एक प्रकार का आह्वाहन स्थापना आदि करने का पात्र होता है, जो पूजन के अन्य सभी पात्रों से ऊंचा होता है।
प्रश्न-180 अष्ट द्रव्य से भगवान की पूजन करते समय जल क्यों चढ़ाया जाता है?
उत्तर- प्राकृत भाषा में जल को अप भी कहते हैं और ‘अप’ से ही अप्पा शब्द बना हैं। अप्पा का अर्थ आत्मा होता है। जल आत्मा का प्रतीक है। जिस प्रकार जल का कोई निश्चित आकार या रंग नहीं है। वैसे ही आत्मा का निश्चित आकार या रंग नहीं है। मात्र पदार्थों से सम्बंध बनाने के कारण आत्मा, देव, नारकी, तिर्यच मनुष्य की आकृति को धारण कर रही है। हे भगवान्! मेरी आत्मा का स्वभाव जल के समान निर्मल है। मैं अपने स्वभाव में आ जाऊं इस भावना के साथ जल चढ़ाते हैं। अपने स्वभाव में आना ही जन्म, जरा, मृत्यु का नाश करना है। जल समर्पण भाव का प्रतीक है। जिस तरह से जल समर्पित हो नीचे की ओर बहता है और सागर में मिल जाता है उसी प्रकार मैं देव-शास्त्र-गुरू के प्रति समर्पित हो विराट परमात्मा के सागर में मिल सकूं।