।। आओ मंदिर चले ।।
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प्रश्न-137 अष्ट द्रव्य या पंचामृत अभिषेक की सामग्री तैयार करते समय तो फूल, धूप, दीप, दही, दूध आदि में हिंसा होती है। उन्हें हम कैसे चढ़ा सकते हैं?

उत्तर- उपर्युक्त कथन सत्य है। परंतु हिंसा का नाम लेकर हमें आगम की आज्ञा का लोप नहीं करना चाहिए, जो सत्य है, यथार्थ है उसका निषेधात्मक नहीं अपितु विधेयात्मक कथन करना चाएिह जिससे आगम की पुष्टि हो। हमें विवेकपूर्ण क्रिया करना चाहिए, वस्तु का निषेध नहीं करना चाहिए। जिस पूजन में अनेक जन्मों का पाप नष्ट करने की सामथ्र्य हो, निधत्ति और निकाचित जैसे कर्मों के क्षय का कारण हो, तो क्या वह पूजाजन्य सावद्य (हिंसा पाप) नष्ट करने में समर्थ नहीं होगी? अवश्य ही होगी, मात्र विवेकपूर्ण क्रिया हो।

प्रश्न-138 भगवान को चढ़ाने के लिए फूल किस तरह लाने चाहिए, जिससे जीव हिंसा न हो?

उत्तर- फूल तोड़ना नितांत हिंसा-जन्य कार्य है क्योंकि फूल एकेन्द्रिय जीव है। परंतु आगम में पूर्वाचार्यों ने उसका निषेध भी नहीं किया है। फूल तोडते समय हमें पौधे के नीचे कपड़ा बिछा देना चाहिए और कपड़े पर जो फूल स्वयं डाली से टूटकर गिरें, जो स्वयं उचित्त अवस्था को उपलब्ध हो जाएं वही फूल हमंे चढ़ाना चाहिए। इसमें हिंसा नहीं होती।

प्रश्न-139 जहां पर फूल का बगीचा न हो या ऐसे साधन न हों कि उपर्युक्त विधि से फूल मिल सकें वहां क्या करना चाहिए?

उत्तर- फूल के अभाव में पीले चावल चढ़ाने का विधान (उमास्वामी श्रावकाचार में) आया है अतः चावल केशरिया रंग में रंगकर पुष्प बना लेना चाहिए।

प्रश्न-140 जब हमारे यहां की पूजन पद्धति में एक भी वस्तु वास्तविक नहीं है। भगवान की स्वयं पाषाण में स्थापना की गई है। समवसरण की स्थापना ईंट सीमेण्ट के मंदिर में की गई है। न पूजन करने वाला इन्द्र असली है, न बर्तन सोने के हैं, न रत्नों के दीप हैं, और क्षीर सागर का जल है। हर वस्तु में स्वापना निक्षेप है। तो फिर दीप, धूप आदि द्रव्य को अन्य पदार्थां में स्थापना करने में क्या हानि है?

उत्तर- हानि कुछ नहीं है। स्थापना कर भी सकते हैं। पर हठाग्रह नहीं होना चाहिए। वस्तुतः देखा जाए तो स्थापना निक्षेप वहां लगाते हैं जहां मूल वस्तु का सर्वथा अभाव हो। आज साक्षत अरिहंत नहीं है। अतः प्रतिमा में भगवान की स्थापना की गई है। अब समवसरण कहां से लाओगे, उसकी स्थापना मंदिर में कर दी गई, लेकिन जो चीज उपलब्ध है उसका तो विवेकपूर्वक उपयोग कर सकते हैं। हर जगह स्थापना निक्षेप नहीं लगता है।

प्रश्न-141 नैवेद्य बनाने में किस प्रकार का विवेक रखना चाहिए?

उत्तर- नैवेद्य बनाते समय शुद्धि अर्थात मन, वचन, काय की शुद्धता अैर उस पदार्थ की जिससे नैवेद्य बनना है उसकी भी शुद्धता मर्यादा का ध्यान रखते हुए घी आदि भी घर के दूध से निर्मित होना चाहिए एवं भक्ष्य, अभक्ष्य पदार्थाें का भी उचित ध्यान रखते हुए नैवेद्य तैयार होना चाहिए।

प्रश्न-142 दीप के सम्बंध में क्या विवेक रखना चाहिए। क्योंकि दीपक की लौ से तो कई जीव जलकर मर जाते हैं?

उत्तर- दीपक जलाते समय दीपक में इतना घी डालें कि वह घी आपकी पूजन के समय तक जलता रहे। बाद में अधिक देर तक दीपक न जलाएं और यदि जलाएं तो उसकी कांच आदि से ढककर रख् दें अथवा कपूर जलाकर भी पूजन में चढ़ा सकते हैं क्योंकि कपूर आरती पर्यान्त जलता है।

प्रश्न-143 क्या टार्च से भगवान की आरती कर सकते हैं क्योंकि उसमें हिंसा नहीं होती?

उत्तर- कभी नहीं। टाॅर्च से भगवान की आरती नहीं करना चाहिए। टाॅर्च से आरती करने वालों को यह पता नहीं है कि उसके सैल के निर्माण में जीवों की हिंसा होती है। घृत का जलाया हुआ दीया ही दीपक या आरती कहलाता है। यदि भोजन में मक्खी गिर जाती है तो भोजन का हमेशा के लिए त्याग नहीं किया जाता है बल्कि विवेकपूर्वक भोजन रखा जाता है, जिससे उसमें मक्खी न गिरे। आगम की आज्ञा का हमें लोप करने का कोई अधिकार नहीं है।

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प्रश्न-144 आरती क्या है, कब करनी चाहिए?

उत्तर- दीपक जलाकर भगवान की महिमा का गुणगान करना आरती है। आरती प्रातःकाल पूजन के समय और संध्या काल अर्थात सूर्य अस्त से पहले करनी चाहिए। सूर्य अस्त के बाद या रात्रि में आरती न करें ते अच्छा है। आरती का समय संध्याकाल है।

प्रश्न-145 आरती क्यों करनी चाहिए?

उत्तर- आरती अर्थात दीपक भगवान के केवल ज्ञान का प्रतीक है। अर्थात जिस प्रकार दीपक स्वयं पर प्रकाशक है। उसी तरह भगवान का ज्ञान भी स्वपर प्रकाशक है, उसी की प्राप्ति हेतु आरती की जाती है।

प्रश्न-146 क्या आरती करने से केवल ज्ञान हो जाता है?

उत्तर- हां! क्यों नहीं होता, आरती करने से हमें केवल ज्ञान की प्रेरणा मिलती है अर्थात जिस तरह से आरती की लौ स्वर प्रकाशक है ठीक उसी प्रकार केवल ज्ञान भी स्वपर प्रकाशक होता है उस स्वर पर प्रकाशक ज्ञान की प्यास आरती को देखने से जागती है तो उसकी प्राप्ति का लक्ष्य बनता है। लक्ष्य बनने से ही पुरूषार्थ प्रारम्भ होता है और एक समय ऐसा आता है जब हमें उसकी प्राप्ति हो जाती है अर्थात केवल ज्ञान प्राप्ति का प्रथम चरण आरती ही है।

प्रश्न-147 कौन-सी धूप पूजन के उपयोग में लेनी चाहिए?

उत्तर- मलयागिरि, अगर, तगर आदि सुगंधित चन्दनों का बारीक चूरा बनाकर धूप बनाना चाहिए और बरसात या ठण्ड के दिनों में बार-बार उस चूरे को सुखाते रहना चाहिए, जिसे जीवोत्पत्ति न हो। जीवोत्पत्ति रहित धूप ही पूजन के उपयोग में लेनी चाहिए। काली मिर्च, लौंग, धूप नहीं है।

प्रश्न-148 फल के सम्बंध में हमें क्या विवेक रखना चाहिए?

उत्तर- फल सड़ा हुआ या घुना हुआ नहीं होना चाहिए। ऐसे फल उपयोग में नहीं लेना चाहिए जिसमें जीवोत्पत्ति हो गई हो। न ही फल कच्चा और न ही फल अधिक पक्का होना चाहिए। तुच्छ फल जैसे कमलगट्टा, काली मिर्च, छोटी सुपारी, बेर आंवला, ऊमर, कठूमर, पीपल आदि के फल भी नहीं चढ़ाना चाहिए। फल उत्तम और आकर्षक होना चाहिए।

प्रश्न-149 घुत से भगवान का अभिषेक करते समय किस बात का ध्यान रखना चाहिए?

उत्तर- घी घर पर ही शुतिपूर्वक निकालना चाहिए एवं मर्यादित होना चाहिए। बाजार आदि के घी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

प्रश्न-150 दूध से भगवान का अभिषेक करते समय दूध कैसा होना चाहिए?

उत्तमगाय का दूध सर्व विशुद्ध माना गया है। दूध निकालते समय स्नानादि से शुद्ध होकर गाय के स्तन को प्रासुक जल से धोकर, दूध को साफ पात्र में रखकर कपड़े में छानना चाहिए और हलका-सा गुनगुना करके फिर उस शुद्ध दूध से भगवान का अभिषेक करना चाहिए। शूद्र के द्वारा स्पर्शित दूध, डेयरी का दूध, पैकिट वाले बाजारू दूध से अभिषेक नहीं करना चाहिए और दूध से अभिषेक सीमित मात्रा में करना चाएिह।

प्रश्न-151 अभिषेक में जो दही उपयोग में लिया जाता है?

उत्तर- वह मर्यादित हो अर्थात गर्म दूध से जमाया हुआ हो। दूध में पुराने जमे हुए दूध का जामुन नहीं डालना चाहिए। दही जमाने की प्रक्रिया में दूध को तीन उबाल तक खूब उबालकर उसमें चांदी का सिक्का, बादाम या संगमरमर का पत्थर डालकर दही जमाना चाहिए। दही की मर्यादा चैबीस घण्टे की है। उसका प्रयोग चैबीस घण्टे के अंदर-ही-अंदर करना चाहिए। अर्थात इस विधि से जमाया हुआ दही ही अभिषेक में प्रयोग करना चाहिए। अशुद्ध और अधिक दही नहीं।

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