(आचार्यश्री पुष्पदन्तसागर जी महाराज)
अखण्ड आत्म ज्ञायक, अखण्ड मुक्ति दायक गुरूदेव तुमको नमस्ते नमस्ते।। तुम्हारे चरणों में जो लग जाए रहने तो पा जाए मुक्ति फिर हंसते-हंसते।। गुरूदेव तुमको नमस्ते नमस्ते.......... तुम्हारे चरण में मिले ज्ञान पानी तुम्हारे चरण में कटे जिन्दगानी कई जनम से खोती जाअई हैं सुधियां भोगों के पथ पर तरसते तरसते।। गुरूदेव तुमको नमस्ते नमस्ते.......... चिदानन्द तुम हो दयानंद तुम हो। हमरे लिए तो श्री कुन्द तुम हो उपदेश देकर निकाला है हमको मोह कीच माया में फंसते-फंसते।। गुरूदेव तुमको नमस्ते नमस्ते.......... नहीं पार पाया, किसी ने तुम्हारा जो आए शरण में वह पाए सहारा विमल सिन्धु गहरा हूं छोटी नदी-सा मिला लो स्वयं में अहिस्ते अहिस्ते।। गुरूदेव तुमको नमस्ते नमस्ते.......... लहराता उपवन है विद्या धनी का इठलाता यौवन है नन्हीं कली का करता हूं विनती हे विद्या गुरूवर खिला लो कली को महकते महकते।। गुरूदेव तुमको नमस्ते नमस्ते.... बालयति संघ के हैं पुष्पदन्त नायक आबाल वृद्ध सभी आपके आराधक मन में हमारे भरे भाव ये हैं करो पार हमको तुम चलते चलते।। गुरूदेव तुमको नमस्ते नमस्ते..........
हाथों में पुष्प लें एवक निम्नलिखित मन्त्र पढ़ें-
श्री मज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशं। स्याद्वादनायक मनन्त चतुष्टयार्हम्।। श्रीमूलसंघ सुदृशां सुकृतैकहेतु- जैनेन्द्र यज्ञ विधिरेष मयाभ्यधायि।।1।।
मन्त्र- ऊँ हृीं भूः स्वाहा प्रस्तावनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अन्वयार्थ-(जगत्त्रयेशं) तीन लोक के ईश, (स्याद्वादनायकम् अनन्त चतुष्टयार्हम्) स्याद्वाद नीति के नायक और अनन्त चतुष्टय के धनी (श्री मज्जिनेन्द्रम्) श्री-सम्पन्न जिनेन्द्रदेव को (अभिवंद्य) नमस्कार करके (श्रीमूलसंघ सुदृशां सुकृतैक हेतु) मूलसंघ की परम्परा या जैन संघ के सम्यकदृष्टि जीवों के सुकृ पुण्य बंध में एकमात्र कारण भूत (एष जैनेन्द्र-यज्ञ-विधि) यह जिनेन्द देव की पूजा-विधि (अभ्यधायि) कहीं गई है (जाती है)।
अर्थ-तीन लोक के ईश स्याद्वाद नीति के नायक और अनन्त चतुष्टय के धनी श्री सम्पन्न जिनेन्द्र देव को नमस्कार करके मूल संघ के अनुसार सम्यक् दृष्टि जीवों के सुकृत की एकमात्र कारणभूत जिनेन्द्र देव की यह पूजा-विधि कही गई है (जाती है)।
उक्त श्लोक पढ़कर जिनेन्द्र देब के चरणों के अग्रभाग में रखी थाली पर (पुष्पों की वर्षा) अर्पित करें।
अब निम्नलिखित श्लोक पढ़कर सुगन्धित चंदन से नौ अंगों पर तिलक लगाएं-
सौगंध्य-संगत-मधुव्रत-झंकृतेन। संवण्र्यमानमिव गंधमनिन्द्यमादौ।। आरोपयामि विबुधेश्वर-वृन्द-वन्द्य। पादारविन्दमभिवंद्य जिनोत्तमानाम्।।2।।
मंत्र-ऊँ हृीं परम पवित्राय नमः आगमोक्त नवांगेषु चन्दनानुलेपनं करोमि स्वाहा।
अन्वयार्थ- (विबुधेश्वरवृन्दवन्द्य) विबुधेश्वर:- इन्द्र के वृन्द:- समूह के द्वारा वन्दनीय (जिनोत्तमानां) श्री जिनेन्द्र देवों के (पादारविन्दम्) चरण कमल को (अभिवन्द्य) नमस्कार करे (आदौ) अभिषेक महोत्सव के आदि में (सौगन्ध्यसंगत मधुव्रत झंकृतेन) सुगंधि के कारण आए हुए भ्रमरों के गुंजार के द्वारा (संवण्र्यमानम् इव) मानों जिसकी प्रशंसा की जा रही है (ऐसे) (अनिन्द्यं गन्धं) अनिन्द्य गंध को (अंगों पर) (आरोपयामि) आरोपित करता हूं।
अर्थ- मैं इन्द्र समूह द्वारा वन्दनीय ऐसे श्री जिनेन्द्र देव के चरणकमल को नमस्कार करके अभिषेक महोत्सव के प्रारम्भ में अपनी सुगंधि के कारण आए भ्रमर समूह के मधुर शब्द से प्रशंसित किए गए के समान अनिन्द्य गंध का आरोपण करता हूं। अनामिका अंगुली से नौ अंगों में चन्दन लगाएं।
1. मस्तक-मान कषाय की शांति हेतु
2. हृदय- क्रोध कर्षाय की शांति हेतु
3. कंठ- मायाचारी से रहित सरल हित मित प्रिव वचन कंठ से निकलने हेतु।
4. कर्ण- कर्कश वचन भी कर्ण से टकराकर मधुर मिष्ठ लगें।
5. दोनों बाजू में- मेरी शक्ति प्रभुध्यान व भक्ति में लगे इस भावना से।
6. दोनों कलाई- मेरे हथ किसी को गिराने नहीं बल्कि उठाने में कारण बनें और जिनेन्द्र प्रभु की पूजन करते रहें।
7. नाभि- नाभि जो ऊर्जा का संचालन करती है। मेरी ऊर्जा ऊध्र्वगमन करे ताकि ध्यान और साधनामय जीवन बने ऊर्जा के उधोगमन से वासना और ऊध्र्वगमन से साधना होती है।