।। आओ मंदिर चले ।।
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2 - घण्टा बजाने का एक वैज्ञानिक कारण और भी है। जैसे ही हम घण्टा बजाते हैं और घण्टे के नीचे खड़े हो जाते हैं तोउसकी ध्वनि तरंगों के माध्यम से हमारे सांसारिक विचारों का तारतम्य टूट जाता है और विचारों पर एक झटका लगता है जिससे विचार धार्मिक होने लगते हैं। घण्टा अप्रमत्तता (जागरण) का प्रतीक है।

3 - घण्टा बजाने की परम्परा आज अभिषेक करते समय प्रचलित है जो संकेत करता है कि अभिषेक प्रारम्भ होने जा रहा है। अर्थात अभिषेक का समय सूचक यंत्र वर्तमान परिप्रक्ष्य में घण्टा बन गया है।

प्रश्न-15 गर्भगृह क्या होता है?

उत्तर- मंदिर में बड़े हाॅल के अंदर एक छोटा सा कमरा होता है। जहां भगवान की वेदी बनी रहती है, उस कमरे को गर्भगृह कहते हैं।

प्रश्न-16 गर्भगृह क्यों बनाए जाते हैं?

उत्तर- भगवान की वेदी खुले हाॅल में नहीं बनाना चाहिए। बड़े हाॅल में छोटा कमरा होता है जिसमें वेदी बनाई जाती है। जिस प्रकार समवसरण की आठवीं भूमि में भव्य जीव ही प्रवेश पाते हैं, उसी प्रकार गर्भगृह में भी शुद्ध वस्त्रादि पहनकर ही प्रवेश किया जाता है। अशुद्ध वस्त्रों में से होने पर हाॅल में से ही दर्शन करना चाहिए। विशुद्धता का ध्यान रखते हुए मंदिरों में गर्भगृह बनाए जाते हैं।

प्रश्न-17 मंदिर में प्रतिमा विराजमान करने का क्या औचित्य है?

उत्तर- मंदिर जी में विराजित प्रतिमा एक माध्यम है हमारी बहिरात्मा को अंतरात्मा और परमात्मा में परिवर्तित करने का। प्रतिमा एक दर्पण की भांति है, जिसमें जो हमारा स्वरूप है, उसका हमें ज्ञान होता है। हमें अपने स्वरूप के दर्शन प्रतिमा में होते हैं। प्रतिमा एक साधन है मन को एकाग्रचित करने का। अर्थात प्रतिमा हमारी प्रतिभा को जगाती है। स्वयं की प्रतिभा के जागरण के लिए मंदिर में प्रतिमा रखी जाती है। प्रतिमा एक दर्पण की भांति होती है-जिस प्रकार बिना दर्पण के कोई आदमी अपना चेहरा नहीं पहचान सकता उसी प्रकार परमात्मा, की प्रतिमा के कोई भी आदमी आत्मा को नहीं जा सकता। अतः शरीर की पहचान का जो काम दर्पण करता है, आत्मा की पहचान का वही काम प्रतिमा करती है। इसलिए मंदिर में प्रतिमा रखी जाती है।

प्रश्न-18 अरहंत भगवान और सिद्ध भगवान की प्रतिमा में क्या अंतर है?

उत्तर- अरहंत भगवान की प्रतिमा-अरहंत भगवान की प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य, यक्ष-यक्षिणी व चिन्ह सहित ही होती है। सामान्तय केवली की प्रतिमा चिन्ह रहित होती है।

सिद्ध भगवान की प्रतिमा- सिद्ध भगवान की प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य यक्ष-याक्षिणी व चिन्ह रहित आकारवान होती है। खोखले आकार मेें विराजमान सिद्धों की प्रतिमाएं आगम सम्मत नहीं हैं (आगम में निराकार प्रतिमा का उल्लेख नहीं है) क्योंकि निराकार प्रतिमा में सूर्यमन्त्र, अंकन्यास व पंचकल्याण के संस्कार नहीं हो सकते है और बिना संस्कार की प्रतिमा पूज्य नहीं होती।

प्रश्न-19 दर्शन क्या है?

उत्तर- दर्शन का अर्थ देखना है। अर्थात जिनेन्द्र की प्रतिमा को कुछ समय तक उपलक रूप से देखना दर्शन है। दर्शन का अर्थ खोजना भी होता है, अर्थात प्रतिमा में अपने-आपको खोजना भी दर्शन है। दर्शन का अर्थ श्रद्धा भी है अर्थात जिनेन्द्र भगवान में सच्ची श्रद्धा रखना भी दर्शन है।

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प्रश्न-20 दर्शन करते समय कौन सा स्त्रोत पढ़ना चाहिए?

उत्तर- दर्शन करते समय दर्शन पाठ पढ़ना चाहिए। दर्शन पाठ में किसी भी तरह के भोग, आकांक्षा या सांसारिक पदार्थों की चायना संबंधी भाव न होकर आध्यात्मिकता का भाव होना चाहिए।

प्रश्न-21 कोई ऐसा पाठ बताएं जो पूर्ण आध्यात्मिक, शुद्ध व सरल हो?

उत्तर- दर्शन देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम्

दर्शनं स्वर्ग-सोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्।।

अर्थ - देवों के देव अर्थात देवाधिदेव का दर्शन पाप का नाश करने वाला है, स्वर्ग जाने में सीढ़ी के समान है एवं मोक्ष का साधन है। 

दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन व।
न चिरं निष्ठते पाप छिद्रहस्ते यथोेदक्रम।।

अर्थ - श्री जिनेन्द्र देव के दर्शन करने और साधुओं की वन्दना करने से पाप बहुत काल तक नहीं ठहरते, जैसे छिद्र वाले हाथ में पानी नहीं ठहरता (धीरे-2 निकल जाता है इसी तरह धीरे-धीरे पाप दूर होने लगते हैं।) 

वीतराग मुखं दृष्ट्वा पद्मरागसमप्रभम्।
अनेक-जन्म कृतं पापं दर्शनेन विनश्यति।।

अर्थ - पदमरागमणि के समान शोभनीय श्री वीतराग भगवान का मुख देखकर (दर्शन करके) अनेक जन्मों में किए हुए पाप विनष्ट हो जाते हैं। 

दर्शन जिनसूर्यस्य, संसारध्वान्तनाशनम्।
बोधनं चित्तपद्मस्य, समस्तार्थ प्रकाशनम्।।

अर्थ - श्री जिनेन्द्र रूपी सूर्य का दर्शन करने से सांसारिक अंधकार नष्ट होता है, चित्तरूपी कमल खिल उठता है और सर्व पदार्थ प्रकाश में आते हैं अर्थात जाने जाते हैं। 

दर्शन जिनचन्द्रस्य सद्धर्मामृत-वर्षणं।
जन्मदाह-विनाशाय, वर्घनं सुख-वारिधेः।।

अर्थ - जिनेन्द्र रूपी चन्द्र का दर्शन करने से सत्य धर्म रूपी अमृत की वर्षा होती है। जन्म-जन्मान्तर का दाह ठंडा है और सुखरूपी समुद्र की वृद्धि होती है। 

जीवादि-तत्व प्रतिपादकाय,
सम्यक्त्व-मुख्याष्ट-गुणार्णवाय।
प्रशांत-रूपाय दिगम्बराय,
देवाधिदेवय नमो जिनाय।।

अर्थ - जीव आदि सात तत्वों को बताने वाले, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के समुद्र, शांत रूप तथा दिगम्बर श्री देवाधिदेव जिनेन्द्र देव को नमस्कार हो। 

चिदानंदैक-यपाय, जिनाय परमात्मने।
परमात्म-प्रकाशकाय नित्यं सिद्धात्मने नमः।।

अर्थ - उन श्री सिद्धात्मा को नित्य नमस्कार हो जो चिदानन्द रूप हैं, अष्ट कर्मोें को जीतने वाले परमात्मस्वरूप हैं तथा परम परमात्मा के प्रकाश करने वाले हैं। 

अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम।
तस्मात्कारूण्यभावेन, रक्ष जिनेश्वर।।

अर्थ - हे जिनेश्वर! आप ही मुझे शरण में रखने वाले हो और कोई शरण नहीं है। इसलिए कृपापूर्वक करूणा करके संसार पतन से मेरी रक्षा कीजिए। 

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