।। सार्थक नाम ।।

सिद्धार्थ को कुमार की आंखों में जिस निसंगता के दर्शन हुए वहां विवाह की बात करना ही व्यर्थ था। उनके समक्ष त्रिशला द्वारा देखे गये स्वप्न उतर आये, जिनके परिणामस्वरूप वर्द्धमान को निर्धूम अग्नि होना है। मोक्षपथ का पथिक। अतः यह सांसरिक मोह का बंधन किस आशा से बांधा जाय? सिद्धार्थ ने जोर नहीं दिया। वर्द्धमान को रानी त्रिशाला के पास भेज दिया।

ममता अधिक प्रबल होती है। आशावती भी। पुत्र को प्रियकारिणी ने बहुविध समझाया। माता-पिता एवं परिवार के प्रति पुत्र के दायित्वों का स्मरण कराया। यह भी कहा- ‘अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है? तुम वैराग्य धारण करने में आत्मकल्याण देखते हो तो ले लेना सन्यास। बहुत लोगों ने लिया है, किंतु समय आने पर कुछ दिन तो ऐसा लगने दो कि मैं पुत्रवती हूं। तुम्हारा तो बचपन मैंने जाना नहीं। पता नहीं तुम किस मिट्टी के बने हो। तुम्हारी संतान की बाल-लीलाएं ही देखकर संतुष्ट हो लूंगी। क्या कहते हो, भेज दूं कलिंग-नरेश की दुहिता के लिए अपनी स्वीकृति?

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महावीर शांतभाव से मां की बातें सुनते रहे। वे जानते थे ममता-मोह कोई तर्क नहीं सुनना चाहता। अतः उन्होंने इस समय एक अदभुत प्रयोग किया। जैसे यदि कोई व्यक्ति तेज क्रोध में हो और समझाया जाय कि क्रोध करना बुरा है, मत करो तो वह और भड़केगा। किंतु क्रोध में विकृत उसके चेहरे को यदि दर्पण दिखा दिया जाय तो वह शांति में लौटना प्रारम्भ कर देगा। महावीर ने मां त्रिशला को जातिस्मरण कराने का प्रयत्न किया। पूर्व जन्मों के उपस्थित होने पर उन्होंने बतलाया-‘मां! देखों तुम कितनी बार पुत्रवती हुई हो। कितने बच्चो को तुमने गोद खिलाया है। कितनी बहुओं की सास बनी हो। कितने विवाह तुमने किये हैं। बोलो, तुम्हें संतुष्टि हुई है कभी? फिर क्यों एक और संख्या बढ़ाना चाहती हो। मैंने सामान्य से सामान्य प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचाया। फिर भला तुम्हें क्यों दुखी करूंगा। आग्रह करना मैंने नही ंसीखा। जो तुम्हें रूचे, कर सकती हो। किंतु सोचो क्या इस सबसे मेरी यात्रा रूक जायेगी? बांध बांधने से जल का स्वभाव बहना समाप्त तो न हो जायेगा? फिर मेरे निमित्त किसी एक और प्राणी को विरह, मोह में डालना तुम्हारे कर्मों में वृद्धि ही करेगा। और तुम तो श्रमणोपासिका हो। तुम्हारे धर्म एवं कत्र्तव्य के सम्बंध में मैं क्या समझाऊं?

त्रिशला उसी तरह निरूतर हो गयी जैसे कोई गुरू अपने शिष्य की विद्वत्ता से पराजित हो गया हो। पाश्र्वनाथ की परम्परा में दीक्षित होने के नाते त्रिशला ने सोचा-वर्द्धमान का आत्मकल्याण का मार्ग ही ठीक है। मुझे रूकावट नहीं डालना चाहिए।’ उनकी ममता ने विचार किया-‘अभी वर्द्धमान की तरूण अवस्था प्रारम्भ ही हुई है। मन कच्चा है। बदल भी सकता है। अतः आग्रह नहीं करना चाहिए।’ अतः अपने लाड़ले की बात मानकर उन्होंने जितशत्रु को विवशता दर्शाते हुए अपनी अस्वीकृति भेद दी। इस प्रकार महावीर का वैरागी मन निद्र्वन्द और निष्कंटक हो गया।

जैन साहित्य में महावीर के विवाह के सम्बंध में दो मान्यताएं उल्लिखित हैं। दिगम्बर मान्यता के अनुसार महावीर की अस्वीकृति के कारण उनका विवाह नहीं हुआ, किंतु श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार माता-पिता के स्नेह भरे आग्रह के कारण महावीर का विवाह यशोदा से सम्पन्न हुआ। उनके एक कन्या भी हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना था। महापुरूष ऐसी सांसारिक स्थितियों से ऊपर होते हैं। अतः महावीर का आध्यात्म चिन्तन बिना किसी बाधा के चलता रहा।

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