।। महावीर की श्रमण दीक्षा और निर्वाण ।।

    महावरी को ऐसा लगा कि राज भवनों में रहकर जनहित की बात करना प्रभावकारी नहीं हो सकता। इसके लिए स्वजनों की परिधि को विस्तृत करना होगा। प्राणीमात्र के कल्याण की बात सोचनी होगी। अतः उन्होंने श्रमण दीक्षा लेने का स्वयं संकल्प कर लिया। अप्रतिम वैराग्य के महावीर उदाहरण बन गये।

महावीर की दीक्षा ग्रहण करने के सम्बंध में जैन ग्रन्थों में दो मान्यताएं प्राप्त होती है। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार महावीर ने अपने माता-पिता के स्वर्गवासी होने के पश्चात श्रमण होने की भावना अपने भाई नन्दिवर्द्धन और चाचा सुपाश्र्व के समक्ष प्रकट की थी। अन्ततः उनकी अनुमति लेकर तीस वर्ष की अवस्था में महावीर दीक्षित हो गये थे। दिगम्बर मान्यता के अनुसार महावीर ने माता-पिता के जीवित रहते ही उनके समक्ष दीक्षा लने की बात रखी थी। माता-पिता ने उन्हें इस तरूण अवस्था में दीक्षित होने से बहुत रोका तथा राजपाट भोगने को कहा किंतु महावीर का विरक्त हृदय इस बात को स्वीकार न कर सका। वे श्रमण जीवन की श्रेष्ठा के प्रतिपादन द्वारा में माता-पिता को समझा कर तीस वर्ष की अवस्था में दीक्ष्ज्ञित हो गये। अध्यात्म-विकास के मार्ग पर वे चल पड़े।

Mahavir bhagwan ki shraman diksha1

वैशाली के गणराज्य में जन-जन तक यह समाचार पहुंच गया कि महावीर राज्य परिवार त्याग कर दीक्षित हो रहे है। क्षत्रिय कुण्डपुर के निकट ही खण्डवन में गमसिर कृष्णा 10 तदनुसार ईसा-पूर्व 569 के दिन अपान जनसमूह के बीच त्यागमूर्ति महावीन ने समस्त वस्त्राभूषण उतार कर एवं केशलोंच कर श्रमण-दीक्षा ग्रहण की तथा आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प किया। इस अवसर पर मनुष्यों एवं देवताओं द्वारा महान उत्सव मनाया गया। जैन साहित्य में श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भी भगवान महावीर ने दीक्षा के समय समस्त आभूषण आदि हटाकर पंचमुष्टि लोच किया था। यह उल्लेख भी प्राप्त होता है कि दीक्षा के लगभग 13 माह बाद देव-दृश्य के विलग हो जाने से महावीर पूर्ण रूप से अचेलक होकर साधना मस्त हो गये। जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर दीक्षा के समय दिगम्बर (अचेलक) थे और निर्वाण तक उसी अवस्था में रहे।

साधना में अविचल निग्रन्थ महावीर की यह साधना लगभग साढ़े बारह वर्ष चली। इस साधना काल में महावीर ने विभिन्न स्थानों की पद यात्रा की। अनेक बाधाओं को झेलते हुए वे ध्यान और मनन चिन्तन में लीन रहे। वे विहार करते हुए कभी किसी सूने घर में, सभागृहों में, खाली दुकानों में, कभी बढ़ई एवं लुहार आदि के कार्य करने के स्थानों में, कभी मसान अथवा वृक्ष के नीचे ही अकेले निवास करते थे एवं स्थिर चित्त होकर ध्यान करते थे-

आगन्तारे आरामागारे नगरे वि एगया वासो।
सुसाणे सुन्नागारे व रूक्खमूले वि एगय वासे।।
एएहिं मुणी सयणेहिं समणे आसि पतेलस वासे।
राईं दियं पि जगमाणे अप्पमत्ते समाहिए झाई।।

-आचारांग, 9-26, 27

इन स्थानों में निवास करते हुए महावीर को अनेक बाधाओं का सामना भी करना पड़ा था। सरकन ेवाले प्राणी एवं पक्षी आदि समीप में आकर उनको काटते थे। कभी चोर, लम्पट, हाथ में शस्त्र लिए हुए ग्राम-रक्षक आदि उन पर उपसर्ग करते थे। कभी गांव के स्त्री-पुरूष आकर उन्हें कष्ट देते थे। महावीर इन सब परिषहों को समभाव पूर्वक सहन कर रहे थे और इन सबके प्रति रागद्वेष से रहित होकर विचरण करते रहते थे।

श्रमण महावीर इन स्थानों मं रहते हुए निद्रा का सेवन नहीं करते थे। निद्रा के द्वारा सताये जन ेपर भी वे आत्मा को जागृत रखते थें फिर भी यदि नींद सतााती तो वे उठकर मुहूर्त भर के लिए भ्रमण करने लगते थे। इस प्रकार वे अप्रमादी होकर ध्यान में लीन रहते थे। दिन में विचरण करते हुए महावीर को जब लोग अभिवादन करते थे तोभी वेउनसे बोलते नहीं थे। इस कारण पुण्यहीन लोग उन पर प्रहार करें और कठोर वचन कहते थे। महावीर इनको कुछ नहीं गिनते थे तथा किसी दूसरे की शरण न लेते हुए संयम मार्ग में गमन करते थे।

Mahavir bhagwan ki shraman diksha1

साध्ना में लीन रहते हुए महावीर आहार पानी के परिमण को जानते थे। वे रसों में आसक्त नहीं होते थे। उन्होंने कभी अपने लिए बनाये गये आहार का सेवन नहीं किया। वे प्रासुक आहार का ही सेवन करते थें कभी छह दिन में, कभी आठ अथवा बारह दिन में समाधि की निर्विघ्नता को देखते हुए वे एक बार आहार करते थे। आहार के मिलने अथवा न मिलने पर वे समभाव में रहते थे। इस तरह महावीर ने अपने साधना कमल में दो माह, चार माह एवं छह माह तक कभी-कभी पानी भी नहीं पिया। वे आत्म-ध्यान में इतने लीन रहते थे। महावीर शरीर के प्रति इतने अनासक्त हो गये थे कि वे सहजता से ग्रीष्म और शीत की बाधाओं को सहन करते थे। वे इन्द्रियों के विषयों से विरत थे। शब्द अैर रूप से आसक्त न होकर वे ध्यान करते थे।

इस तरह कठोर साधना करते हुए परम साधक महावीर गांव-2 में घूम रहे थें उन्होंन लाढ देश की वज्रभूमि मेंप्रवेश किया। वहां उन्हें अनेक उपसर्गो का सामना करना पड़ा। आचारांगसूत्र में महावीर की सपस्या के वर्णन से अनेक परीषहों का ज्ञान होता है। पर महावीर इन सब कठोर परीषहों को सहते हुए किसी का प्रतिकार नहीं करते थे। महावीर ने हेय उपादेय को जानकर साधना काल में स्वयं कभी पाप कर्म नहीं किया, किसी अन्य से नहीं कराया तथाा पाप कर्म करते हुए किसी का अनुमोदन भी नहीं किया-

नच्चाण से महावीरे नो वि य पावगं सयमकासी।

अन्नेहिं वि न कारेत्था कीरंतं पि नाणुजाणित्था।

-आचा. 9.61

इस प्रकार श्रमण महावीर अपने साधना में अविचल होकर विचरण करते थे। अर्धमागधी प्राकृत साहित्य में भगवान महावीर की साधनाकाल के कई प्रेरक प्रसंग भी अंकित हुए हैं। ऐसे अवसरों पर इन्द्र ने महावीर से प्रार्थना की कि आपको इस साधनाकाल में अनेक कष्ट झेलने पड़ेंगे। अतः मुझे आप अपनी सेवा में रहने की आज्ञा दीजिए ताकि आपको ज्ञान की उपलब्धि निर्विघ्न हो सके। किंतु तपस्वी महावीर ने इन्द्र को यह कह कर विदा कर दिया कि अर्हन्त अपने पुरूषार्थ और बल से ही केवलज्ञान की स्थिति कोप्राप्त होते हैं, किसी के सहारे नहीं। अतः मैं अकेला ही साधनापथ में विचरण करूंगा।

साधक माहवीर ने ‘कोल्लाग’ सन्निवेश में ‘बहुत’ ब्राह्मण के यहां क्षीरान्न से प्रथम पारणा किया। वहां से विहार कर वे मोराक सन्निवेश में पहुंचे। वहां एक आश्रम के कुलपति ने उन्हें अपने यहां ठहरने का निमंत्रण दिया, किंतु महावीर वर्षावास में वहां पुनः आने की बात कहकर आगे चल दिये। विभिन्न स्थानों में उन्होंनें शिशिर और ग्रिष्म ऋतु में साधना की तथा वर्षा के प्रारम्भ होते ही वे पुनः उस आश्रम में लौट आये, किंतु कुछ समय व्यतीत होने पर ही अन्हें लगा कि आश्रम का वातावरण उनके अनुकूल नहीं है। अतः वे वहां से चल पड़े और प्रथम वर्षाकाल का शेष समय उन्होंने अस्थिक ग्राम में पूरा किया।

सभय की साधनाः
Mahavir bhagwan ki shraman diksha2

अस्थिक ग्राम का प्रथम वर्षावास भगवान महावीर के तापस जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वहां रहते हुए उन्होंने आगामी भ्रमण के सम्बंध में कुछ निर्णय लिये। ऐसे स्थानों पर ठहरने का निश्चय किया जहां ध्यान में बाधा न पड़े। महावीर ने मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा, क्योंकि लोग तरह-तरह के प्रश्न पूछकर उन्हें परेशान कर सकते थे। प्रश्नों का समाधान करना सरल था, किंतु इसे आत्मा‘ध्यान में बाधा पड़ती थी। गृहस्थों से कोई विशेष सम्बंध न रखने का उन्होंने प्रयत्न किया। फिर भी महावीर की साधना और निर्भयता से कई भव्य लोगों का कल्याण हुआ।

साधना काल में महावीर के साथ घटित प्रसंगों की अपने अर्थवत्ता है। ऐसा लगता है कि महावीर की साधना का स्वरूप इतना अनोखा था कि उन्हें उस युग में पहिचानना कठिन हो गया था।

2
1