साधना के 12 वें वर्ष में श्रमण महावीर मेंढिया ग्राम से वत्सदेश की राजधानी कौशाम्बी पधारे। सारीनगरी उनकी अगवानी के लिए उमड़ पड़ी। जो भीड़ में पीछे भी रह गए तो उनका मन सबसे आगे वन्दना करने दौड़ रहा था। महावीर के उस नगर में प्रवेश करते ही उसकी शोभा बढ़ गई। प्रत्येक नागरिक महावीर के सानिध्य के लिए आतुर था, क्योंकि उस समय तक महावीर की समतामयी दृष्टि एवं निरहंकारी भाव पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुके थे। उनके चरणों से अपने आंगन को पवित्र करने की हरेक के मन में आकाक्षां थी। महावीर नासाग्र दृष्टि किए चलते जा रहे हैं। वे आगे-आगे और जनसमुदाय उनका गुणगान करते हुए पीछे-पीछे। जिस मार्ग से वे निकल जाते वहीं के प्रासादों के दरवाजे खुल पड़ते। देखने लगते हजारों नेत्र उनकी कांतिमयी मनोरम छवि को, अपूर्व तपस्वी को।
किंतु यह क्या? श्रमण महावीर ने समस्त कौशामभ का भ्रमण कर लिया और किसी एक के घर भी आहार ग्रहण नहीं किया? जैसे ही लोगों का ध्यान इस तरफ गया, बात कानों-कान सारे नगर में फैल गयी। आमंत्रणों का ढेर लग गया। श्रावकों, सार्थवाहों, श्रेष्ठिपुत्रों, सामन्तों के झुण्ड के झुण्ड उनके चरणों में लोटने लगे, किंतु महावीन ने किसी की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा।उनकी वीतरागता और ध्यान की बात तो सुनी थी लोगों ने, लेकिन इस प्रकारआहार के लिए भ्रमण करते हुए आहार न मिलने पर उसी शांत, प्रसन्न मुद्रा से वापिस लौटने का दृश्य उस दिन नही लोगों ने देखा। कितना अदभुत? कितना चिन्ताजनक?
कौशाम्बी के राजा से न रहा गया। वह दौड़ा आया। उसने तपस्वी महावीर की आगवानी की। राजभवन में भोजन के लिए उन्हें आमंत्रित किया, किंतु महावीर है, जो सौम्य मुद्रा में आगे चले जा रहे हैं। इतने मौन कि लोग उनकी आकांक्षा की कल्पना भी न कर सके और हताश उन्हें जाता हुआ देखते रहे। महावीर नगर से निकलकर समीप के उद्यान में जाकर ध्यान मग्न हो गये।
इधर नगर में तरह-तरह की बातें। जो श्रमण परम्परा के अनुयायी थे, महावीर के श्रद्धालु,उन्हें अपनी धार्मिकता पर सन्देह होने लगा। दुख इस बात पर था कि घर से अंतिम तीर्थंकर आज भूखे लौट गये तथा जो ब्राह्मण परम्परा के अनुयायी या अन्य तीर्थक थे, उन्हें यह कहने का अवसर मिलगा कि देखा-जैन साधु कितने अभीमानी होते हैं? महावीर ने हमारे राजा तक का निमंत्रण नहीं माना। कुछ लोग यह खोजने में लग गये कि नगर में अवश्य कोई ऐसा अपुण्यशाली व्यक्ति है, जिसके प्रभाव से आज महावीर के पारणा में विघ्न आ गया।
नगर सेठ कृषभानु की सेठानी भूला तो और भी चिंतित। उसे लगा कि उसके भवन के पिछवाड़े तलघर में जिस कुमारी चंदना को उसने अपनी सौत समझकर बांधकर डाल रखा है, उसी के पास के कारण महावीर उसके घर में तो क्या, उसकी गली तक में नहीं आये। उनके दर्शन से भी यह वंचित रह गयी, किंतु उसने तुरंत निश्चय किया कि अब मैं ध्यान रखूंगी कि महावीर इस ओर न आ जांय अन्यथा उन्हें फिर भूखा लौटना पड़ेगा और उसने अपना प्रबंध पूरा कर लिया।
राजकुमारी चन्दना क्या सेाच रही थी, उसे शब्दों में कहना कठिन है। उसे याद आ रहा था कि वह राजा चेटक की छोटी पुत्री होने पर भी भाग्य के कारण शत्रुओं के हाथ पड़ गयी। वहां से किसी प्रकार छूटी तो सेठ वृषभानु उसे पुत्री बनाकर घर पर ले आये। उसे लगा दूसरा पिता ही उसने पा लिया है, किंतु उसका अप्रतिम रूप उसका बैरी बन बैठा। सेठानी ने सौतिया डाह के कारण अवसर देखकर उसे बेड़ी पहिना दीं ओर इस तलधर में डाल दिया। अब सूप में रखे इन उड़द के बाकले के भोजन से ही उसका जीवन हैं बाहर की दुनिया कैसी है, उसे कोई खबर नहीं। पता नहीं वह कब मुक्त होगी?
दूसरे दिन कौशाम्बी में फिर वही जमघट अैर महावीर के निराहार लौट जाने पर वही विषादपूर्ण नीरवता। धीरे-2 यह एक क्रम बन गया। महावीर जब तक उस प्रदेश में रहे, खाली हाथ लौटते रहे। इधर-उधर विहार करने भी चले गए तो किसी नगर में उनका पारणा न हो सका। लोगों ने उनको भोजन कराने के अनेकें प्रयत्न कर लिये। श्रमण-परम्परा में साधु द्वारा आहार के लिए जो भी अभिग्रह लिए जाते थे उन्हें पूरा करने का प्रयत्न कर लिया गया, किंतु सब विफल और इस प्रकार महावीर को निराहार भ्रमण करते हुए लगभग पांच माह व्यतीत हो गए। उनके मौन, उनके ध्यान एवं मुख पर वही सौम्यता देखकर लोग आश्चर्यचकित थे।
छठा माह पूरे होने से मात्र पांच दिन रह गए। महावीर दैनिक क्रम में कौशाम्बी नगरी के भागों का भ्रमण कर रहे थे। जनसमुदाय उनकी जय-जयकार करता हुआ उनका अनुगमन कर रहा था। किसी जिनभक्त श्रावक ने सेठ कृषभानु की गली का मार्ग प्रशस्त किया। श्रमण महावीर उधर चल पड़े।
तलघर में राजकुमारी चन्दना को कोलाहल सुनायी पड़ा। स्पष्ट होने पर ज्ञात हुआ महावीर इधर आ रहे हैं। वह आनन्द से उछलना चाहती थी उनकी वन्दना करने के लिए, किंतु सोचने लगी-‘मैं उन्हें आहार में क्या दूंगी? एक तो मेरी ऐसी दशा और दूसरे ये उड़द के बाकले? ऐसा मेरा पुण्य कहां? तभी उसे लगा कि महावीर तो इस भवन की ओर ही आ रहे हैं। वह उनके प्रति श्रद्धा से भर गयी ओर उन्हें देखने उत्साह से जैसे ही उठी उसकी बेडि़यों की कडि़यां टूट गयीं। वह सूप में पड़े उड़द के बाकले को लेकर ही दरवाजे की ओर भागी। देखा महावीर उसी की ओर शाांतभाव से चले आ रहे हैं। चन्दना का रोम-रोम नाच उठा, वह आगे बढ़ी। भक्तिपूर्वक उसने वर्द्धमान की अगवानी की। उन्होंने उसकी विनय की स्वीकार कर लिया ओर दोनों हाथ भोजन लेने की मुद्रा में चन्दना के आगे कर दिये।
यह एक अपूर्व दृश्य था। हजारों नर-नारी अपने नयनों को सार्थक कर रहे। देख रहे थे कि चन्दना महावीर के हाथों में उड़द के बाकले डाल रही है, वे खीर बनते जा रहे हैं। महावीर दोनों स्थितियों में प्रसन्न हैं। चन्दना आत्मशक्ति से भरती जा रही है। उसे लग रहा है कि जिनते दाने उड़द के बाकले वह दे पा रही है उसे असंख्य गुणा ज्ञान उसमें समाहित होता जा रहा हैं पता ही नहीं चल रहा कि वह महावीर को आहार दे रही है या उनसे ज्ञान का आहार ले रही है। श्रमण महावीर आहार लेकर वहां से कब चल दिये किसी को पता नहीं चला। क्योंकि सभी चन्दना के भाग्य की सराहना में खो गये थे। चारों ओर उसकी कीर्ति ही उपस्थित थी। बहुत दिनों बाद एक भारतीय नारी का फिर सम्मान हुआ था। उसके शील का। उसकी प्रभु को समर्पित श्रद्धा का। कृषभानु सेठ की पत्नी मूला तो चन्दना के चरणों पर नत-मस्तक थी और चन्दना उसके द्वारा दी गयीं बेडि़यों की कृतज्ञ थी , जिनके आशीर्वाद से आज वह आत्मबोध के द्वार पर खड़ी हो सकी है। सेठ वृषभानु इस सब अप्रत्याशित को देखता हुआ महावीर की चरण-राज को बटोरने में लगा था। आज वह कृतार्थ हो गया।
लोग जब यथार्थ पर लौटे, परस्पर विचार-विमर्श हुआ, ज्ञानियों ने अपनी बुद्धि को पैनी किया तब यह जान पाया कि माहवीर को इतने समय तक आहार इसलिए नहीं मिला, क्योंकि उनका अभिग्रह आहार हेतु नियम था-‘मुण्डितसिर, पांवों में बेडि़यों सहित, तीन दिन की भूखी, दासत्व को प्रापत हुई कोई राजकुमारी यदि उड़द के बाकले सू में रखकर द्वार पर खड़ी हुई मुझे आहार के लिए अवगाहन करेगी तो पारणा करूंगा, अन्यथा नहीं।’ किसके वश में था यह अभिग्रह पूरा करना? धन्य हो राजकुमारी चन्दनबाला, जिसने हमें, हमारी नगरी को यह सौभाग्य प्रदान किया है।’
अभिग्रह धारण करने के पीछे यही भावना निहित दिखायी देती है कि इतनी कठिन प्रतिज्ञा लेने से शायद ही भोजन का संयोग बैठे। ऐसे जितने दिन भी गुजरे वे महावीर के लिए उपयोग होते थे। अभिग्रह लेने के मूल में दूसरा प्रमुख कारण यह था कि अपनी प्रतिज्ञाओं के द्वारा महावीर यह जान लेना चाहते थे कि उनकी जगत के लिए कितनी आवश्यकता है? इस जन्म में वे स्वयं के लिए कुछ पाने व करने नहीं आये थे। जो कुछ उन्हें उपलब्ध था, उसे वितरित करने की उनकी इच्छा थी। अतः वे यह देख लेना चाहते थे कि उनके जीवन को सुरक्षित रखने में जगत का वातावरण कितना सजग है?
श्रमण महावीर का चित्त इतना शक्तिशाली था कि उसे साधना में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं थी। महावरी अपनी इस अंतर-यात्रा में चूंकि निःसंग होकर अकेले चल सके, इसलिए समस्त जगत उनका हो गया। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि सच्च साधु वही है, जो असुरक्षा और अव्यवस्था में अकेला खड़ा हो सके। जगत को उसके अस्तित्व की आवश्यकता होगी तो उसकी सब व्यवस्थाएं हो जायेंगी। देवताओं से महावीर की बातचीत हुई हो या नहीं, यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं काम की बात इससे ध्वनित होती है कि महावीर की साधना एवं लक्ष्य इतना कल्याणकारी था कि उसकी सुरक्षा के लिए संसार की सभी शुभ शक्तियां उनका साथ देने को तैयार थीं। पूर्णतया अकेले खड़े हो जाना सत्य की खोज में महावीर जैसे व्यक्तित्व द्वारा ही सम्भव है। आकांक्षाहीन संसार के विसर्जन की यह अदभुत घटना थी।
श्रमण महावीर अपनी साधना के बारह वर्ष समाप्त कर अभी भी ग्राम-ग्राम, नगर-नगर विचरण कर रहे थे। जहां से वे गुजर जाते, वहीं लोगों को प्रेम, शांति और सुख का अनुभव होने लगता। वहां की भूमि निरापत और निराकुल हो जाती। महावीर के मुखमण्डल पर अब ज्ञान की विचक्षण आभा विकीर्ण होने लगी थी। वीतरागता सघन होती जा रही थी और कर्म की कालिमा विलीन होती जा रही थी। अतः आत्मा के आवरण शिथिल होते जा रहे थे। निर्मलता का उन्मेष हो रहा था। आत्मा की प्राची से ज्ञान की परम ज्योति का उदय सन्निकट था।