महावीर की चिन्तन की यात्रा और गति शील हो गयी। अपने जीवन के सम्बंध मे उन्हो नें सोचा - मै आज जिन क्षणभंगुर पदार्थो और रिश्ते - नातो के बीच हूं, उन्हे कितनी बार भोगा है ? क्रमशः उनके स्वरूप को जब जान पाया तो लगा इनसे मेरा स्म्बंध ही क्या है ? और तब मैंने उसे खोने की यात्रा प्रारम्भ कर दी, जो मेरा था। मेरा है। पूर्व जन्म के अनन्त भवआत्मा के स्वरूप को अनुभव करने मे लग गए। आत्मा अैर ज्ञान की अभिन्नता से परिचित होते ही यह सारा संसार अज्ञान और मोह से पीडित नजर आने लगा। मै क्रमशः इस बंधन से विलग होने लगा अैार आज इस स्थिति तक पहुंच पाया हू कि स्वयं को सत्य की उपलब्धि के समीप पाता हूं।
कभी वर्द्धमान अपने युग की स्थिति, वातावरण के सम्बंध मे सोचने लगते तो पाते कि लोग धार्मिक क्रिया काण्डो और दार्शनिक मत-मतान्तरो मे बुरी तरह फंस गये हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसे विचार कभी है, जो इस प्रकार के विकृत धार्मिक क्रिया काण्डों से मुक्ति तो चाहते है किंतु उन्हे सही रास्ता नहीं मिल रहा है। प्रत्येक विचार का क्रांति का स्वयं अगुआ बनाना चाहता है। इस धार्मिक अशांति का समाधान उसके पास भी नही है। इन सब विचारकों के प्रयत्नो का समन्वय कैसे हो ? किस प्रकार समाज को एक सरल एवं पुरूषार्थी धर्म की प्राप्ति हो, महावीर इस पर गहराई से चिंतन करते रहते।
    जब कभी उनकी दृष्टि सामाजिक दशा पर उठ जाती तो उनका हृदय करूणा से भर जाता। ये देखते कि किसी प्रकार समाज का एक वर्ग सब पर छाया हुआ है ? शिक्षा, सुविधाएं एवं स्वतंत्रता किसी एक वर्ग तक ही सीमित हो गयी है और सबसे बड़ी बात यह कि समाज का आर्थिक पक्ष ही कटा जा रहा है, जो किसी भी समाज के विकास के लिए अनिवार्य है।
तत्कालीन राजनीतिक दशा उन्होंने बहुत समीप से देखी थी। साम्राज्य वादी प्रवृत्ति के कारण स्वतंत्र राज्यो का अस्तित्व ही समाप्त होता जा रहा है, जिसके मूल मे है परिग्रही और भ्यात्मक प्रवृत्तियों की प्रबलता। समाज की इन परिस्थितियों के प्रभाव से मानव - मानव के बीच बहुत अंतर आ गया है। कैसे हो गा मेरी साधन एवं ज्ञान का इन सबके कल्याण मे उपयोग? मेरे पूर्व इतने तीर्थकर हुए हैं। प्रत्येक ने जन हित के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न किये हैं। किंतु मेरे समय की स्थिति विकट है। अतः मुझे निश्चित रूप से कुछ नया करना होगा। भले उसकी साधना में यह जीवन लगादेना पड़े। मुझे अब इन सब व्यवधानों के आगे निकलना होगा और लगना होगा आत्मशुद्धि की दिशामें एकाग्र हो। तभी यह उपलब्ध हो सकेगा, जिससे स्वयं मुझे और इस अशांत जगत को अपना लक्ष्य प्राप्त होगा। इस प्रकार महवीर के मन मे वैराग्य की तरंगे चंचल हो उठी थीं। उनके उफान से सांसरिक बंधनो का किनारा ढहने ही वाला था।