रानी त्रिशला राजा सिद्धार्थ को बहुत प्रिय थीं अतः उनका उप नाम प्रियकारिणी भी प्रसिद्ध हो चुका थ। वे विदेहदिण्णा के नाम से भी जानी जाती थी। त्रिशला सर्वगुण सम्पन्न आदर्श नारी थी। महावीर का जीवन अनेक पूर्वजन्मों की श्रृंखला पार कर ईसा पूर्व 599 की आषाढ़ शुक्ला षष्ठी को रानी त्रिशाला के गर्भ में प्रविष्ट हुआ। उसी रात्रि के पिछले प्रहर में रानी त्रिशला ने गर्भस्थिति में मंगलकारी शुभ स्वप्न देखें। श्वेताम्बर परम्परा में देवानंदा/त्रिशला द्वारा देखे गए स्वप्नों की संख्या 14 है, जबकि दिगम्बर साहित्य में त्रिशला द्वारा देखे गए 16 स्वप्नां का वर्णन है।
स्वप्नों की सार्थकता रानी त्रिशला को ऐसे स्वप्न कभी नहीं दिखायी पड़े थे। अतः वे विचार करने लगीं कि इन स्वप्नों को देखने का क्या अर्थ है? उनका मन प्रसन्न था। चित्त में ऐसे लग रहा था, जैसे उन्होंने कोई बड़ी निधि पर ली है। स्वप्नों की मांगलिकता और सार्थकता के प्रति वे निश्चित थीं। फिर भी कुतूहल तो था ही। प्रातः अपने पति सिद्धार्थ से इन स्वप्नों का अर्थ पूछने का निर्णय कर रात्रि का शेष समय व्यतीत किया। प्रातःकाल के कार्यों से निवृत्त हो रानी प्रियकारिणी राजा सिद्धार्थ के समीप पहुंची। राजा ने उनका प्रफुल्ल मन से यथोचित सत्कार किया। त्रिशला के कुतूहल भरे मुखमण्डल से सिद्धार्थ समझ गये कि यह कुछ जिज्ञासा शांत करने आयी है। फिर भी उन्होंने इतने सबेरे आने का कारण पूछ लिया।
प्रियकारिणी त्रिशला ने विनयपूर्वक क्रमशः अपने स्वप्नों को कह सुनाया और उनके फलितार्थ जानने की उत्कण्ठा व्यक्त की। राजा सिद्धार्थ स्वप्न-विज्ञान के जानकार थे। जैसे-जैसे वे स्वप्न सुनते जा रहे थे वैसे-वैसे आनन्द से भर रहे थे। रानी का कथन समाप्त होते ही बोल पड़े-‘प्रियकारिणी’! हम बहुत भाग्यशाली हैं। हमारे इस कुल में एक महान विभूति जन्म लेने वाली है। त्रिशले! तुम उस ज्योतिशिखा की मां बनोगी। तुम्हें बधाई।’
हमारा आंगन में जन्म लेने वाला वह पुत्र कैसा होगा सो यह स्वप्नों की श्रृंखला बखान करती है कि हाथी उसकी महानता का प्रतीक है। वृषभ उसके धर्म प्रवर्तक होने का उद्घोषक। वह अपार ऊर्जा और पराक्रम का धारक होगा यह सिंह दर्शन का फल है। लक्ष्मी-दर्शन सम्पति व वैभव के प्रति उसके निस्पृही भाव को प्रगट करता है तथा मालाएं उसकी कांतिमान सुरभित देह की सूचक है। चन्द्र और सूर्य इस बात के संकेत हैं कि बालक सहिष्णु, धीर, गम्भरी और तेजस्वी होगा। संसार को अपनी ज्ञान-प्रभा से आलोकित करेगा। स्वर्ण-कलश उसकी करूणा की पताकाएं हैं। मछलियों का युग्म अनन्त सौख्य की उपलब्धि का सूचक है। उसकी गहन संवेदना का प्रतीक है जलाशयय और विशालता का परिचायक है। समुद्र इत्यादि सभी स्वप्न किसी न किसी गुण के प्रतीक है। यह सब सुनते हुए रानी त्रिशला जैसे सोते से जगी हों। बोलीं-‘स्वामी! इतनी महान् आत्मा को मैं धारण कर सकूंगी? कितना विलक्षण होगा वह बालक?
राजा सिद्धार्थ उसकी वत्सलता देख मुस्करा पड़े-‘प्रियकारिणी! नारी का यही योगदान तो अपूर्व है। इसी से उसकी कोख की सार्थकता है औरफिर तुम किस बात में कम हो। तुम्हारे रूप, शील एवं सद्व्यवहार का गौरव इस सम्पूर्ण वैशाली जनपद को है। नाथवंश में इस विभूति को जन्म देकर तुम इसका मस्तक ऊंचा कर दोगी।’ रानी त्रिशला नारी सुलभ लज्जा से जितनी रक्ताभ हुई उतनी ही उस भाग्यशाली क्षण के प्रति उत्कंठित। वह उठकर अंतःपुर की ओर चली गयी। सिद्धार्थ प्रमुदित चित्त से दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गये।
जैन परम्परा में ऐसा कहा जाता है कि आषाढ़ शुक्ला 6 (ई. पू. 599) की उस सुनहरे स्वप्नों की रात से राजा सिद्धार्थ का राजभवन देवताओं द्वारा किये जाने वाले उत्सवों के लिए रंगमंच बन गया था। नगर निवासी ऐसे अलौकिक कार्यों का अवलोकन कर रहे थे जो आज तक नहीं हुए थे। चारों ओर आनन्द छा गया था। खेत हरी-हरी फसलों से लहरा उठे थे। पशु-पक्षियों ने परस्पर के बैर भुला दिये थे। मनुष्यों में भाईचारे और नम्रता का व्यवहार अधिक बढ़ गया था और सबसे बड़ी बात यह कि रानी त्रिशला एक अलौकिक दीप्ति से भर उठी थीं। देवीतुल्य उनकी दासियां दिन-रात उनकी सेवा में उपस्थित रहने लगीं। नाना प्रकार के मनोरंजन से प्रियकारिणी का मन बहलाया जाने लगा। राजा सिद्धार्थ ने रानी की किसी भी कामना को पूरी करने में कोई कमी नहीं रखीं। इस प्रकार वैशाली के आस-पास का सारा वातावरण उस परम ज्योति के प्रकट होने की प्रतीक्षा में रत हो गया था।
प्रियकारिणी रानी त्रिशला ने ई. पू. 598 ईस्वी की चेत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्यरात्रि में जैसे ही पुत्ररत्न को जन्म दिया यह समाचार पवन की भांति सारे वैशाली जनपद में व्याप्त हो गया। जिसने भी सुना दूसरे को सुनाने दौड़ पड़ा। रात्रि का अंतिम प्रहर प्रातःकाल की भांति जनसमूह के उल्लास से जागृत हो उठा। ऐसा लग रहा था कि अज्ञान की रात्रि जा रही है, ज्ञान का सूर्य उदित हो गया हैं उस भव्य मंगलवेला में राजा सिद्धार्थ का सम्पूर्ण राजभवन जैसे किसी पर्व में ही सम्मिलित हो गया हो। सिद्धार्थ के आनन्द की तो बात ही मत पूछो। जो परिचारिका यह सुखद संवाद लेकर आयी थी उसका मुख सचमुच ही उन्होंने मोतियों से भर दिया। उसके बाद जो आभूषण हाथ आया उसे वे लुटाते चले गये। वे गर्व से फूले न समा रहे थे कि आज उनका ज्ञातृ वंश सार्थक हो गया एक ऐसे पुत्र को जन्म से, जो प्राणिमात्र के कल्याण के लिए ही इस संसार में आया है। जिसके जन्म लेते ही ऐसा लग रहा है कि मानों किसी थके-हारे पथिक को शीतल छाया मिल गयी हो और पपीहे को स्वति की बूंद।
माता त्रिशला के आनन्द की तो बात ही क्या? नारी का ऐश्वर्य उसका सुहाग होता है, किंतु उसकी सार्थकता मातृत्व प्राप्ति में ही है। पुत्र उसके यौवन, प्रेम, वात्सल्य को सबल प्रदान करता है। और फिर महावीर जैसा पुत्र? वे कल्पनाओं में डूबी हुई थी। कभी पुत्र के मुख को देखतीं तो कभी शून्य आकाश को, जहां उन्हें वे स्वप्न साकार होते दिखायी पड़ते। एक ओर जहां वे पुत्र-प्राप्ति के आनन्द से भर उठतीं, दूसरे आरे उन्हें इसका भी आभास होता इतना गुणशाली, ज्ञानी, एवं आत्मानुरागी पुत्र उनके घर कितने दिन ठहरेगा? फिर सोचती- सभी सपने थोड़े ही सच हो जायेंगे। मैं इसे इस जतन से रखूंगी कि मेरी गोद ही न छोड़े। नारी का मन जितनी उडान भर सकता है, वे भर रही थीं। जब वे पुत्र की स्वर्ण की आभावाली देह और चमकते सूर्य की दीप्ति वाले मुखमण्डल को देखतीं तो सब सोचना भूल जातीं। सामने रहता नवजात शिुश का मनोहारी मुखड़ा और नयनों में तैरती राजा सिद्धार्थ की छवि, जिसकी वह अनुकृति था।
प्रातःकाल होते ही क्षत्रिय कुण्डपुर से लेकर वैशाली तक का मार्ग जन-समुदाय की अपार भीड़ से अवरूद्ध हो गया था। जिसने सुना वही बधाई देने दौड़ पड़ा। उत्सवों की होड़ लग गयी। प्रमोदशालाएं सामाजिकों से खचाखच भर गयीं। नृत्य-संगीत में प्रतियोगिताएं चलने लगीं और राजपथों पर तो जैसे सारा खजाना ही बिछ गया हो। नागरिक अपनी झोलियों से स्वर्ण, धरण, आकर्षण मुट्ठियों में भर-भर लुटा रहे थे। जिसके पास जो था वह समग्र समर्पण करने के उल्लास में खो गया था।
देवलोक इस आनन्द से वंचित कैसे रहता। सौधर्म इन्द्र ने जब अवधिज्ञान से जाना कि कुण्डपुर में चैबीसवें तीर्थंकर ने जन्म लिया है तो वह प्रसन्नता से भर उठा। समस्त देव-परिवार को सूचित कर वह जन्मोत्सव मनाने कुण्डपुर आ पहुंचा। वहां आकर देवों ने जो उत्सव किये वे वहां के नागरिकों को अविस्मरणीय हो गये। इन्द्र ने माता त्रिशला की वन्दना की।
कहा-‘जगदम्बे! तुम धन्य हो गयी। तुमने ऐसे बालक को जन्म दिया है, जो इस संसार को कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा। मेरी बधाई स्वीकार करो। ‘इन्द्राणी ने बालक को प्रसूतिगृह से लाकर इन्द्र को दिया। इन्द्र उसे ऐरावत हाथी पर बैठाकर सुमेरूपर्वत पर ले गया, जहां उस बाल तीर्थंकर का अभिषेक किया गया। वस्त्राभरण पहिनाकर इन्द्र-इन्द्राणी उसे फिर माता त्रिशला को सौंप गये।’
तीर्थंकर महावीर भी पूर्ण चेतनता लिए हुए जन्में थे। अतः वे ऐसा कोई कार्य बचपन में नहीं कर रहे थे, जिसमें बचकानापन हो । यही कारण है कि उनके बोलने, खेलने, शिक्षाग्रहण करने आदि अनेक बातों में उस समय के लोगों को अनेक अतिशय दिखायी दिये, जिनकी लम्बी-चैड़ी कहानियां ग्रन्थों में मिलती हैं, किंतु महावीर जैसी प्रज्ञा और अनुभव लेकर जन्में थे, उनके लिए वह सब स्वाभाविक था। महावीर के बचपन के साथ जितने प्रसंग जुड़े हुए हैं वे सब सत्य रूपी गन्तव्य तक पहुंचने में मदद करते हैं।