जैन ग्रन्थ कहते हैं कि महावीर के जन्म के बारहवें दिन उनका नामकरण संस्कार हुआ। उनके जन्म से सब चीजों की बढ़ोत्तरी हुई। धन बढ़ा, यश बढा, राज्य का विस्तार हुआ और सबसे बड़ी बात रानी त्रिशला और सिद्धार्थ के आनन्द की कोई सीमा न रही। अतः बालक का नाम ‘वर्द्धमान’ रख दिया गया, किंतु महावीर को इस सब वृद्धि से क्या प्रयोजन? उन्हें पता होता कि इस सब भौतिक और कर्मबंधन की कारणभूत चीजों की वृद्धि के कारण उनका नाम ‘वर्द्धमान’ रखा गया है तो वे इसे स्वीकारने से मना कर देते, किंतु कोई गहरा कारण था जिसे वे जानते थे इसलिए यह नाम चल पड़ा। वास्तव में महावीर की चेतना इतनी चुपचाप बढ़ी होगी जैसे पौधों का वृक्ष बनना या कलियों का खिलना। महावीर का अन्तस् केन्द्र से परिधि की ओर इतना फैला होगा कि समस्त प्राणियों का कंपन उन तक पहुंचने लगा होगा। इस आध्यात्मिक वृद्धि से ही महावीर का ‘वर्द्धमान’ नाम सार्थक हुआ होगा।
स्वयं इस ‘महावीर’ नाम का सुन्दर कथानक है। किसी संगम नामक देव ने वर्द्धमान के मित्रों की उपस्थिति में सर्प का रूप धारण कर उनके साहस और निडरता की परीक्षा ली। परीक्षा में खरे उतरने पर उन्हें ‘महावीर’ नाम से सम्बोधित किया, जो आज तक चला रहा है। किंतु क्या वर्द्धमान की वीरता इतनी सांसारिक थी? इतना बल एवं साहस तो कोई भी ऋद्धि प्राप्त दिखा सकता था। नहीं, वर्द्धमान को ‘महावीर’ कहे जाने का गहरा कारण है। आध्यात्म के तल पर दो रास्ते हैं मुक्ति को प्राप्ति करने के। स्वयं को परमात्मा के प्रति समर्पित करना, स्वयं के अस्तित्व को विलीन करना और दूसरा रास्ता है, अपने स्वयं के पुरूषार्थ द्वारा अपनी चेतना का सम्पूर्ण विकास करके मुक्ति पाना। यह रास्ता बड़ा कठिन हैं इसमें परम्परा के विपरीत जाना होता है। नया निर्माण करना पड़ता है। स्वयं हीरा बनना एक अलग बात है और स्वर्ण के रूप में किसी हीरे के साथ जड़ जाना एक दूसरी बात है। वर्द्धमान की सम्पूर्ण यात्रा स्वयं हीरे बनने की रही हैं यही पुरूषार्थ उनकी वीरता है। इसीलिए वे ‘महावीर’ कहे जाने के अधिकारी हुए हैं।
महावीर के स्वयं विकसित होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने किसी को अपना गुरू नहीं बनाया। जैन आगमों में कहा गया है कि आठ वर्ष की अवस्था में जब उन्हें किसी गुरू के पास ले गये तो उसने इन्हें पढ़ाने से मना कर दिया। क्योंकि वह उतना भी नहीं जानता था, जितना महावीर जन्म के समय जानते थे। वे मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान के धारक थे। उन्हें उधार के ज्ञान से कोई प्रयोजन नहीं था। इसलिए वे स्वयं खोजना चाहते थे। उनमें सीखेन की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने ज्ञान को स्वयं उपलब्ध करने का प्रयत्न किया, किसी से लेने का नहीं। उनकी सहज उपलब्ध प्रज्ञा की महिमा कुछ ऐसी थ्ी कि जिज्ञासा उत्पन्न होते ही उनका समाधन हो जाता था। उनके दर्शनमात्र से अंतर्नयन उघड़ जाते थे। सामान्य लोगों के ही नहीं, ज्ञानियों के भी। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने संजय और विजय नामक दो चारण-मुनियों के चित्त की तात्वि जिज्ञासाओं का भी अपने दर्शनमात्र से समाधान कर दिया था। तब से वर्द्धमान का ‘सन्मिति’ नाम प्रचलित हो गया। एक अनय घटना में मदोन्मत्त हाथी से प्रजा की रक्षा करने के कारण उनका नाम ‘अतिवीर’ प्रचलित हो गया।
इस प्रकार न जाने कितने नाम महावीर के लिए प्रयुक्त हुए होंगे। जिसने उनके जिस प्रधान गुण का साक्षात्कार किया होगा, वह उन्हें उस नाम से पुकारने लगा होगा। ‘वीर’, ‘अतिवीर’, ‘महावीर’, आदि नाम सब उनके दृढ़संकल्पी, निर्भयी और स्वतंत्रचेता होने के प्रमाण हैं। साथ ही इस बात के कि उनका बचपन इनती प्रौढ़ता और विचारों की परिपक्वता से युक्त था, जितनी अन्य लोग लम्बी साधना के बाद भी प्राप्त नहीं कर पाते।
महावीर के बचपन के व्यक्तित्व में ही अनेकान्त व्याप्त था। वैचारिक सहिष्णुता उनके प्रत्येक कार्य से प्रगट होती थी। उनके बचपन का एक प्रसंग अनेकान्त की भूमिका के रूप में स्परण किया जाता है-
किसी एक दिन महावीर के बचपन के साथी उन्हें खोजते हुए माता त्रिशला के पास पहुंचे। उस समय त्रिशला राजभवन की प्रथम मंजिल में कार्यरत थीं। बच्चों ने जब उनसे वर्द्धमान के सम्बंध में पूछा तो उन्होंने कह दिया-‘वद्धमान ऊपर है, ‘क्योंकि प्रायः उन्होंने महावीर को भवन की चैथी मंजिल पर विचारमग्न बैठे हुए देखा था।
बच्चों की टोली दौड़ते-2 भव की अंतिम सातवीं मंजिल पर पहुंच गयी। वहां राजा सिद्धार्थ किसी कार्य में व्यस्त थे। किंतु वहां, वर्द्धमान नजर नहीं आये। बच्चों ने कौतुकवश सिद्धार्थ से पूछा-‘मित्र वर्द्धमान कहां है?’ सिद्धार्थ जानते थे कि कुमार इस मंजिल के नीचे कहीं खेल रहा होगा। अतः उन्होंन सहज ही कह दिया-‘वह नीचे है’। बालक बड़ी दुविधा में पड़ गये। त्रिशला मां कहती है-‘वर्द्धमान ऊपर है।’ और ये कहते हैं-‘नीचे है’। दोनों असत्य नहीं बोलते। किस पर विश्वास किया जाय? अन्ततः सबने भवन की प्रत्येक मंजिल में वर्द्धमान को खोजना प्रारम्भ किया। चैथी मंजिल के एक वातावरण में वर्द्धमान ध्यान में लीन थे। बालकों ने उनकी एकाग्रता टूटने पर उनसे बातचीत की एवं अपने मन की इस दुविधा को भी पूछ लिया कि मां त्रिशला एवं पिता सिद्धार्थ में से किसका कथन सत्य माना जाय?
कुमार के साथी इस प्रकार का विवेचन सुन प्रसन्न हो गये। उन्हें वर्द्धमान की मित्रता सार्थक लगी। वर्द्धमान इसी प्रकार बचपन के दिनों में जीवन के गम्भीर विषयों के सम्बंध में चिन्तन करते रहते थे। जिस व्यक्ति का अन्तस इतना चेतन और सजग हो वह संसार के पदार्थों के प्रति गहराई से अवश्य सोचेगा। वर्द्धमान का बचपन वास्तव में एक प्रयोगशाला थी, जहां वे अपने प्रत्येक चिंतन और अनुभव का संग्रह कर उन्हें कसौटी में कस रहे थे। वे उस शक्ति को संजो रहे थे, जिसके माध्यम से आगे चलकर इसी बात को विश्वास पूर्वक कहा जा सके।
वर्द्धमान बचपन से यौवन में कब प्रवेश कर गये किसी को पता नहीं चला। क्योंकि उनका बढ़ना बड़ा चुपचाप था। उन्होंने वह कुछ नहीं किया जो लोग वयसंधि में, यौवन के प्रारम्भ में करते थे। राजा सिद्धार्थ महावीर के जवीन के उद्देश्य से परिचित थे। उन्हें यह आभास हो गया था कि इसका जन्म राजपाट के भोग के लिए नहीं हुआ। धार्मिक एवं वैचारिक क्रांति का यह जन्मदाता होगा। अतः यह उसी पथ की ओर अग्रसर है। इसलिए वे अधिक चिंतित नहीं थे, जितना जवान बेटे-बेटियों के बाप होते हैं, किंतु ममतामयी मां त्रिशला को वर्द्धमान की इस प्रकार गुमसुम रहना, चिंतन करते रहना, किसी प्रकार की जिद न करना अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने जाना ही नहीं कि लड़के मां-बाप को कैसे परेशान करते हैं। जब उनका मातृत्व सुप्त-सा होने लगा तो उन्होंने वर्द्धमान को सांसारिक बनाने का निश्चय किया।
जैन साहित्य में एक कथा आती है कि मां त्रिशला ने वर्द्धमान के मन को संसार की ओर आकर्षित करने में संगीत को अधिक उपयोगी समझा। स्वयं आयोजिका बनकर उन्होंने राजभवन की रंगशाला में प्रसिद्ध संगीताचार्य कन्दर्प और सोम को आमंत्रित किया। ये दोनों गन्धर्व अपनी-अपनी कला के लिए देश-देशान्तरों में विख्यात थे। कन्दर्प भोगरागों का विशेषज्ञ था तो सोम योगरागों का। एक का विषय श्रृंगार था तो दूसरे का शांत। अतः उन्होंने सुनने के लिए सम्भ्रांत नागरिकों की भीड़ उमड़ पड़ी। दर्शकों में वर्द्धमान भी अपने साथियों के साथ उपस्थित थे। कला को वे आत्म-पुरूषार्थ की जागृति का साधन मानते थे।
सर्वप्रािम आचार्य कन्दर्प ने विभिन्न भोग-रागों का आलाप किया। दर्शक मंत्रमुग्ध हो गये। वर्द्धमान तटस्थ बने रहे, किंतु उनकी तटस्थता त्रिशला से छिपी न रही। वे वर्द्धमान को प्रसन्न देखना चाहती थीं। अतः कुछ समय बाद उन्होनें आचार्य सोच को रंगमंच पर आमन्त्रित किया। सोम ने तन्मय होकर ऐसा गाया कि दर्शक शांतरस में डूब गये। वर्द्धमान फिर भी निश्चल थे। किंतु उनकी आंखों में एक चमक थी, जो किसी राह का अन्वेषण कर रही थी। मां त्रिशला को जब उस राह का भान हुआ तो उनकी ममता विचलित हो उठी। उन्होनंे कार्यक्रम समाप्त करवा दिया। वर्द्धमान के अशांत मन को और दृढ़ बंधन में बांधने का वे उपाय सोचने लगीं।
सुगन्धित पुष्प की सुवास फैलते देर नहीं लगती। वर्द्धमान का सौन्दर्य, तारूण्य एवं उनके गुणों की विलक्षणता वैशाली जनपद के अतिरिक्त पूर्व एवं पश्चिम के प्रान्तों में विख्यात थीं। जब यह ज्ञात हुआ कि मां त्रिशला वर्द्धमान का विवाह करना चाहती हैं तो चारों ओर के राजाओं की आरे से विवाह के प्रस्तावों का ढेर लग गया। किंतु कलिंग-जनपद के शासक जितशत्रु की कन्या यशोदा ने राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला का मन जीत लिया। जितशत्रु को अपनी स्वीकृति भेजने के पूर्व सिद्धार्थ ने कुमार वर्द्धमान से परामर्श कर लेना आवश्यक समझा। अतः अवसर पाकर उन्होंने कुमार से प्रसंग चलाया। वर्द्धमान पिता को क्या जवाब देते। वे उस स्थिति में पहुंच गये थे कि जहां नारी-पुरूष एवं पति-पत्नी का द्वैत तिरोहित हो चुका था। वर्द्धमान ने पिता की आंखों में झांक कर देखा।