काव्य : 5
बुद्धया विनापि-विबुधा र्चित पाद-पीठ! स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विग तत्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दुबिम्ब मन्य कः इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्॥३॥
वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार। करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार॥ निज शिशु की रक्षार्थ आत्मबल, बिना विचारे क्या न मृगी। जाती है मृगपि के आगे, प्रेम-रङ्ग में हुई रङ्गी॥५॥
काव्य - 5 पर प्रवचन
हे सर्वज्ञ देव! भले मैं अल्प बुद्धि बालक जैसा हूँ तो भी आपके प्रति परमप्रीति के कारण मैं आपकी स्तुति करने के लिए उद्यमी हुआ हूँ।
हे मुनिनाथ ! मैं शक्तिहीन हूँ परन्तु भक्तिहीन नहीं। जैसे, हिरणी के बच्चे पर सिंह पञ्ज से झपट्टा मारने आता है, तब अपने बच्चे के प्रति परमप्रीति के कारण, उसकी रक्षा हेतु हिरणी भी अपने बल का विचार किये बिना बलवान सिंह का सामना करती है; उसी प्रकार आपके गुणों की परमप्रीति के कारण मैं भी अपनी शक्ति का विचार किये बिना भक्ति में प्रवृत्त होता हूँ।
देखो! इस भक्ति में आत्मा के गुणों की प्रीति और रक्षा के अतिरिक्त अन्य कोई लौकिक भावना नहीं है। जो लौकिक (पुत्र, पैसा इत्यादि की) आशा से भक्ति करता है, वह तो वास्तव में भगवान का भक्त ही नहीं है। अरे, धर्मात्मा को बाहर की अनेक ऋद्धियाँ सहज में आ मिले तो भी उसे उनकी भावना नहीं होती; भावना तो आत्मगुणों की ही है। हे जीव! यदि तू धर्म के सेवन से बाहर की ऋद्धि चाहता हो तो तू मूढ़मति है। तू भोगहेतु राग का सेवन करता है, मोक्षहेतु धर्म का नहीं।
अहा! परमात्मा के गुणों के प्रति साधक का हृदय भक्ति से उछल जाता है। नियमसार की टीका में मुनिराज कहते हैं – 'भवभय को भेदनेवाले ऐसे भगवान के प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं है? – तब तो तू भवसागर के बीच मगर-मच्छ के मुख में पड़ा है।' इस भक्ति में अकेले राग की बात नहीं है, राग से भिन्न गुण की पहचानसहित की बात है, जो कि मोक्ष का कारण होती है।
जो मुक्तिगत हैं उन पुरुष की भक्ति जो गुणभेद से, करता, वही व्यवहार से निर्वाणभक्ति वेद रे॥
(- नियमसार, गाथा 135)
'अरे रे! यह पञ्चम काल है, मैं अल्पज्ञ हूँ, शक्तिहीन हूँ' – ऐसा बहाना किये बिना, मुमुक्षु जीव, आत्मा के गुणस्वभाव की परमप्रीति से मोह के विरुद्ध होकर मोक्षमार्ग को साधता है। इस काल में मोक्ष नहीं होता' – ऐसा कहकर निरुत्साहित होकर बैठा नहीं रहता।
जैसे, हिरणी के बच्चे को पकड़ने सिंह आये, तब उसे बचाने के लिए हिरणी, सिंह के सामने भी सींग मारती है, निर्बल होने पर भी उसे पुत्र का प्रेम उछलता है; वैसे ही मुमुक्षु का आत्मवीर्य, पञ्चम काल में भी उदयभाव के विरुद्ध अपने स्वभाव को साधने के लिए उल्लसित होता है, उसमें निमित्तरूप से सर्वज्ञपरमात्मा के प्रति भक्ति उल्लसित होती है।
अहा! धर्मी जीव का सर्वज्ञपरमात्मा के प्रति प्रेम तो देखो! प्रभो! इस विकराल काल में अपने साधकभावरूपी बच्चे की रक्षा के लिए मैं सम्पूर्ण शक्ति से आपकी भक्ति करूँगा। अल्पज्ञ साधक होने पर भी मैं सर्वज्ञपद की ओर दौड़ा आ रहा हूँ; उसमें बीच में अन्य कोई विचार करके मैं अटकूँगा नहीं। परमपद प्राप्त करने के लिए मैंने स्थिरता की है। अभी मैं शक्तिरहित होने पर भी, सर्वज्ञपद के मनोरथ का सेवन करता हूँ और उसकी स्तुति आदरसहित करते हुए निरन्तर आपके द्वारा बताये गये मार्ग पर अग्रसर होता हूँ। अब, परमपद लेकर ही रहूँगा।
मुमुक्षु को आत्मा के परमपद की प्राप्ति के अतिरिक्त पैसे का, पुत्र का, पुण्य का या स्वर्ग का मनोरथ (इच्छा) नहीं है। राग रहेगा, उससे इन्द्रादि पद मिलेंगे, परन्तु उसकी मनोकामना नहीं है, उनके प्रति प्रेम नहीं है; मनोरथ तो परमपद का ही है।
परिपूर्ण स्वभाव का साक्षात्कार हे भगवान ! जिस प्रकार छोटे से झरोखे से भी बहुत कुछ देखा जा सकता है, अथवा आँख छोटी होने पर भी बड़े -बड़े हाथियों को देख लेती है; इसी प्रकार मेरा ज्ञान भले ही अल्प है, तथापि उस अल्प ज्ञान द्वारा ही मैं आप जैसे सर्वज्ञ की स्तुति करूँगा। यद्यपि मेरा ज्ञान अल्प है, मति-श्रुतरूप है; तथापि इसके द्वारा मैं अपने परिपूर्ण स्वभाव को देखूगा, साक्षात्कार करूँगा। जैसे, छोटे से छिद्र में हाथी दिखता है; उसी प्रकार अल्प ज्ञान में भी अनन्त शक्तिसम्पन्न सम्पूर्ण आत्मा दिखता है, अनुभव में आता है। - विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-12
परिपूर्ण स्वभाव का साक्षात्कार हे भगवान ! जिस प्रकार छोटे से झरोखे से भी बहुत कुछ देखा जा सकता है, अथवा आँख छोटी होने पर भी बड़े -बड़े हाथियों को देख लेती है; इसी प्रकार मेरा ज्ञान भले ही अल्प है, तथापि उस अल्प ज्ञान द्वारा ही मैं आप जैसे सर्वज्ञ की स्तुति करूँगा।
यद्यपि मेरा ज्ञान अल्प है, मति-श्रुतरूप है; तथापि इसके द्वारा मैं अपने परिपूर्ण स्वभाव को देखूगा, साक्षात्कार करूँगा। जैसे, छोटे से छिद्र में हाथी दिखता है; उसी प्रकार अल्प ज्ञान में भी अनन्त शक्तिसम्पन्न सम्पूर्ण आत्मा दिखता है, अनुभव में आता है।
- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-12
काव्य : 6
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम्। यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चान-चारूकलिकानिकरैकहेतुः॥६॥
अल्पश्रुत हूँ श्रुतवानों से, हास्य कराने का ही धाम। करती है बाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम॥ करती मधुर गान पिक मधु में, जग-जन मन हर अति अभिराम। उसमें हेतु सरस फल फूलों, के युत हरे-भरे तरु-आम॥६॥
काव्य - 6 पर प्रवचन
जैसे, चैत्र माह में आम्र के वृक्ष पर फूल देखकर कोयल मधुर आवाज में कुहू कुहू करती है... अब आम पकेंगे और खाऊँगी – ऐसी प्रसन्नता से कोयल कुहूक उठती है; वैसे ही हे देव! यद्यपि मैं अल्प श्रुतज्ञानवाला हूँ और बुद्धिमान जनों के उपहास के योग्य हूँ, तथापि जहाँ आपके चैतन्यगुणरूपी बसन्त पूर्णरूप से विकसित हुआ देखता हूँ, तब प्रसन्नता से मेरा हृदय भक्ति से गुञ्जायमान हो जाता है... आपके शासन में हमारे अन्तर में ज्ञानरूपी कणिका खिली है और अब मोक्षरूपी मधुर फल कुछ समय में खाऊँगा / प्राप्त करूँगा।
कोयल, मधुर कुहूकार करती है, वह कहीं किसी को सुनाने के लिए नहीं करती, परन्तु आम्र के मोर / पुष्प को देखकर वह अपना प्रमोद / हर्ष व्यक्त करने के लिए कहकार करती है; उसी प्रकार हे देव! मेरी अल्पज्ञता देखकर कोई मेरी हँसी उड़ाये, मेरा उपहास करे या मुझे मूर्ख माने, परन्तु आपके सर्वज्ञता इत्यादि गुणोंरूपी बगीचे को खिला देखकर, प्रसन्नतापूर्वक मैं तो आपकी भक्ति का मधुर गुञ्जन करूँगा। सर्वज्ञता के प्रति मेरा भाव उछलता है, वह सर्वज्ञता लिए बिना रुकनेवाला नहीं है।
साधक को अपने शुद्धात्मा के प्रति प्रीति जागृत हुई है; इसलिए पूर्ण शुद्धता को प्राप्त भगवान को देखते ही उसे भक्ति का भाव उछलता है। अहा! किस प्रकार आपकी स्तुति-भक्ति करूँ! किस प्रकार गुणगान की कुहूकार करूँ!!
प्रश्न : भगवान की भक्ति का भाव तो राग है और राग, वह धर्म नहीं है तो भक्ति की बात क्यों करते हो?
उत्तर : अरे भाई! तूने भक्ति का स्वरूप समझा ही नहीं है। भक्ति में भगवान की पहचान और भगवान के प्रति प्रीति है, वह कहीं राग नहीं है। गुणों की पहचान करके उनके प्रति बहुमान से विशुद्धि होती है, पाप टलता है; पूर्व के पापकर्म भी पुण्यरूप संक्रमित हो जाते हैं। वहाँ जितनी शुद्धता और वीतरागता होती है, उतना धर्म है और यही परमार्थभक्ति है, उसके साथ रहे हुए राग में भक्ति का उपचार है, उससे पुण्य बँधता है परन्तु धर्मी की दृष्टि उस राग पर नहीं होती; सर्वज्ञ जैसे रागरहित ज्ञानस्वभाव पर ही उसकी दृष्टि होती है – ऐसी शुद्धदृष्टिसहित की भक्ति का यह वर्णन है। यहाँ अकेले राग की बात नहीं है।
जिसे आत्मा का प्रेम होता है, उसे भगवान के प्रति भक्ति का भाव उल्लसित हुए बिना नहीं रहता है। 148 कर्मप्रकृति के बन्धन में जकड़ा जीव, पहचानसहित की ऐसी भक्ति द्वारा उस बन्धन को तोड़ देता है – ऐसे अध्यात्मभाव इस भक्ति में भरे हुए हैं।
जैसे, मयूर के ऊँची आवाज में बोलने से सर्प डरकर भाग जाता है, वैसे ही हे देव! आपकी सर्वज्ञता देखकर हमारे ज्ञान में टंकार हुई है कि 'मेरा ऐसा सर्वज्ञस्वभाव' - वहाँ उस सर्वज्ञस्वभाव की टंकार से मिथ्यात्वरूपी सर्प दूर भाग जाते हैं।
स्तुतिकार नम्रतापूर्वक कहते हैं कि हे देव! महान श्रुतधर गणधरादि भी आपकी स्तुति करते हैं, उनके समक्ष मैं कौन हूँ ? फिर भी आपके गुणों को देखकर स्तुति की कुहूकार किये बिना मुझसे रहा नहीं जाता, क्योंकि आपके शासनरूपी कल्पवृक्ष में हमें सम्यक्त्वादि मीठे फल खाने को मिलते हैं। हमारे लिए तो अभी धर्म की बसन्तऋतु खिली है। विद्वान, अर्थात् मूर्खजन भले ही मेरी हँसी उड़ायें, परन्तु आपके अचिन्त्य गुणों के प्रति प्रीति मुझे बाचाल करके भक्ति कराती है - इसमें फिर लोकलाज भी क्या? क्या कोयल मीठी कुहूकार करते हुए किसी से शरमाती है ?
अभी हमारे साधकदशारूपी बसन्त खिला है। अहो ! हमारे भगवान का ऐसा दिव्यज्ञान ! ऐसी अद्भुत वीतरागता!! और ऐसा अपूर्व अतीन्द्रिय आनन्द !!! इस प्रकार गुण के प्रति प्रमोद से साधकजीव, परमात्मा की भक्ति करते हैं। वाह! प्रभु के गुणों के सामने देखने से राग तो याद ही नहीं आता, चैतन्य की वीतरागी सुन्दरता ही दिखती है।
चैत्र के महीने में कोयल जो कुहूकार करती है, वह लटकते-झूमते आम के वृक्ष पर लगे फूल का प्रभाव है; इसी प्रकार हमारे जैसे साधक के अन्तर में जो भक्ति उल्लसित होती है, वह हे नाथ! आपके अचिन्त्य गुणों का प्रताप है। धर्मरूपी आम के पकने के काल में हमसे भक्ति की कुहूकार हो जाती है। कोयल की कुहूकार बहुत मधुर होती है, इसी प्रकार हे देव! आपके गुणों के प्रति प्रेम की कुहूकार में ज्ञान की मिठास है।
अज्ञानी को परमात्मा की वीतराग भक्ति की ज्ञानरूपी कुहूकार करना नहीं आता, वह तो अकेले राग की कुहूकार करता है; वह तो कौए की कर्कश आवाज जैसा है। जिस प्रकार कौए की आवाज को 'कुहूकार' नहीं कहते, उसे तो 'कॉव -कॉव...' कहते हैं; उसी प्रकार अज्ञानी, राग को धर्म समझ कर जो भक्ति करता है, वह तो कौए की कॉव... कॉव जैसी है, उसमें ज्ञान की मधुर गुञ्जार नहीं होती है।
ज्ञानी कहते हैं - अहा! इस विकट पञ्चम काल में मुझे आपके शासनरूप कल्पवृक्ष मिला; अब रत्नत्रयरूप आम पकेंगे, यह देखकर भक्ति से मेरा अन्तर्मन उछल जाता है। अभी तो पञ्चम काल है और भगवान ऋषभदेव तो तीसरे काल में हुए हैं, फिर भी मानों वे अभी मेरे सामने साक्षात् विराजमान हों; इस प्रकार भक्ति के बल से मैं उन्हें प्रत्यक्ष करके स्तुति करता हूँ।
मैं अल्पज्ञ हूँ परन्तु मुझे सर्वज्ञ की भक्ति का रङ्ग लग गया है। लोग भले ही मेरा उपहास करें कि अरे! पञ्चम काल में ऐसी परमार्थभक्ति ! और पञ्चम काल में आत्मा का अनुभव! परन्तु प्रभो! आपकी भक्ति के बल से हमें वह सुगम है.... हमारे तो अभी धर्मलब्धि का मधुर मौसम है – ऐसी उत्तम भावनापूर्वक यह स्तुति की मधुर टङ्कार है।
जैसे मधुर आम को देखकर कोयल के कण्ठ से मधुरता झरती है. उसी प्रकार हे देव! आपके गुणरूपी मधुर आम को देखते ही हमारे हृदय में से गुणों की स्तुति का मधुर सङ्गीत निकलता है - वही है यह भक्तामर स्तोत्र!