भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 33-34 ।।

काव्य : 33

मन्दार-सुन्दरनमेरु-सुपारिजात
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा।
गन्धोदबिन्दु-शुभ-मन्दमरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ॥ ३३॥

कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार।
गन्धोदक की मन्द वृष्टि करते हैं, प्रभुदित देव उदार॥
तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी-धीमी मन्द पवन।
पंक्ति बाँधकर बिखर रहे हों, मानों तेरे दिव्य वचन॥३३॥

काव्य : 33 पर प्रवचन

प्रभु के समवसरण में उत्तम सुगन्धित पुष्पों (मन्दार पुष्प, सुन्दर पुष्प, नमेरु पुष्प, पारिजात पुष्प तथा सन्तानक आदि उत्तम पुष्पों) की वर्षा होती है, सुगन्धित मन्द-मन्द पवन बहती है और सुगन्धित जल की फुहार बरसती है।

...अहा प्रभो! आपके दर्शन से हमारी आत्मा में श्रद्धा -ज्ञान की सुगन्धित पवन बहती है... और आनन्द-अमृत की धारा बरसती है।

जैसे, प्रभु के जन्म के पहले आकाश में से रत्नवृष्टि होती है; वैसे ही अब केवलज्ञान के बाद प्रभु के समवसरण में आकाश में से दिव्य सुगन्धसहित पुष्पवृष्टि होती है। देव भी कल्पवृक्ष के पुण्य लेकर पुष्पवृष्टि करते हैं और सहज ही आकाश में से भी पुष्पवृष्टि होती है। मानो अनन्त आकाश को लगा कि 'अहा, मेरी अनन्त विशालता की अपेक्षा भगवान के ज्ञान की अनन्त विशालता महान् है, वह अनन्त महिमावाली है' - ऐसा समझकर मानो आकाश स्वयं पुष्पों से प्रभु की पूजन करता हो! – इस प्रकार आकाश में से पुष्पवृष्टि होती है – ऐसा प्रभु का अतिशय है, परन्तु विवेकरहित होकर, जिनमें जीवहिंसा हो, इस प्रकार फूल आदि का प्रयोग नहीं करते और प्रभु के अङ्ग पर तो फूल रखे ही नहीं जाते। वीतराग की भक्ति भी विवेकवाली होती है।

ध्यान रहे कि प्रभु के समवसरण में जो पुष्पवृष्टि होती है, वे (पुष्प) सचेत / सचित्त नहीं है, अचेत / अचित्त है; वे किसी पेड़ पर नहीं होते परन्तु सीधे आकाश में से ही परमाणुओं का दिव्यरूप परिणमन होकर, सुगन्धित फुहार (गन्धोदक) तथा सुगन्धित हवासहित बरसते हैं।

अहो देव! आपके दर्शन होते ही उन फूलों के बन्धन छूट गये, बन्धन से मुक्त वे फूल प्रसन्न होकर ऊर्ध्व मुख करके आपके पास दौड़ते आते हैं; इसी प्रकार भव्य जीव भी अपनी मुक्ति का मार्ग देखकर आपके समीप दौड़ते आते हैं और शान्त रसरूप सुगन्धित जल तथा सम्यक्त्व की मधुर हवासहित आपके चरण में झुकते हैं। इस प्रकार पुष्प का वर्णन करते हुए अथवा पुष्पवृष्टि देखकर, भक्त का हृदय भी कोमल होकर वीतरागदेव के चरणों में झुक जाता है और प्रसन्नता से स्तुति करत है।

प्रभु के समवसरण में बरसते वे पुष्प 'ऊर्ध्वमुखी' होते हैं। डंठल नीचे और खिला हुआ भाग ऊपर; इसी प्रकार जिनदेव के चरणों में नम्रीभूत भक्त भी ऊर्ध्वमुखी, अर्थात् विशुद्ध परिणामी होते हैं, इसलिए वे स्वर्ग-मोक्ष के उच्चपद को प्राप्त करते हैं।

(इस प्रकार प्रभु के आठ में से छठवें पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य का वर्णन किया)


काव्य : 34

शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा विभोस्ते,
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्दिवाकरनिरन्तरभूरिसंख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥३४॥

तीन लोक की सुन्दरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे।
तन-भा मण्डल की छवि लखकर, तब सन्मुख शरमा जावे॥
कोटि सूर्य के ही प्रताप सम, किन्तु नहीं कुछ भी आताप।
जिनके द्वारा चन्द्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप॥३४॥

काव्य : 34 पर प्रवचन

हे देव! आपके शरीर में से निकलता दिव्य प्र-भामण्डल हजारों सूर्य के तेज की अपेक्षा अधिक तेजस्वी, कान्तिवाला है। तीन लोक में हीरा-चन्द्रमा-सूर्य अथवा देवों के मुकुट आदि जितने प्रकाशमान पदार्थ हैं, उन सबके तेज को, आपके भामण्डल का तेज फीका कर देता है और हजारों सूर्य की अपेक्षा भी अधिक तेजस्वी होने पर भी वह शान्त-सौम्य है, वह रात्रि में भी प्रकाशमान रहता है और अन्धकार को दूर करता है।

देखो, यह तीर्थङ्कर प्रभु का अतिशय ! यह तो अभी शरीर की प्रभा की बात है; आत्मा के केवलज्ञान-तेज की तो क्या बात! पुण्यवन्त दिव्य पुरुषों की मुद्रा के आस-पास प्रकाश का तेज (आभामण्डल, तेजमण्डल) होता है, वह जहाँ जाए, वहाँ प्रकाश फैल जाता है। इसी प्रकार सर्वज्ञता के साथ दिव्य पुण्य-अतिशयवाले तीर्थङ्कर भगवान की मुद्रा, कोई फिरती हुई दिव्य तेज की प्रभाववाला मण्डल (भामण्डल) होता है, वह शान्त-सौम्य होता है; वह आतापकारक नहीं होता, उसके समक्ष देखने से वह हजारों सूर्य की अपेक्षा अधिक तेजस्वी होता है और फिर भी आँखें झपझपाती नहीं, परन्तु स्थिर रहती हैं। सूर्य - चन्द्रमा का, हीरा-मोती का तेज भी उसके समक्ष कान्तिविहीन हो जाता है। ऐसे भगवान के पास अन्धकार नहीं होता, उनके पास आताप टल जाता है और शान्ति होती है।

भगवान को स्वयं तो कोई रोग या शस्त्रादि का उपद्रव नहीं होता और उन भगवान की उपस्थिति में (समवसरण में रहनेवाले) अन्य जीवों को भी शस्त्र-रोग आदि का कोई उपद्रव नहीं होता, और होता भी है तो प्रभु के समीप (समवसरण में) उपस्थित होते ही दूर हो जाता है। अरे, अन्धा होता है, वह भी देखने लगता है और प्रभु को देख लेता है। अहा प्रभो! आपको पाकर हमारी अज्ञान-अन्धता दूर हो गयी और ज्ञानचक्षु खुल गये हैं... वहाँ आपका दिव्य-चैतन्यरूप हमने देख लिया और उसके जैसा अपना चैतन्यरूप भी हमने देख लिया।

अहा, प्रभु का आत्मा तो सर्वज्ञ... उनके दिव्य ज्ञानतेज में तो तीन काल, तीन लोक झलकते हैं और प्रभु का शरीर भी ऐसा तेजस्वी प्रभावाला है कि उसमें देखनेवाले को अपने सात भव (पूर्व के और भविष्य के हों तो) दिखते हैं। अरे! प्रभु को पहचानकर और उनके 'ज्ञानदर्पण' में देखते ही, स्वयं का मोक्ष भी उसमें दिखता है। प्रभो! आपकी वीतरागी मुद्रा के पास का प्रभामण्डल, वह वास्तव में तो हमारे मोक्ष को देखने का मङ्गल-दर्पण है; जगत् के उस पवित्र दर्पण में हमें तो अपना मोक्ष दिखता है; आपके ज्ञान में हमारे मोक्ष का प्रतिबिम्ब दिखता है और आपके शुद्धात्मा को देखते ही हमारा शुद्धात्मा दिखता है।

इस प्रकार भामण्डल की महिमा द्वारा भी धर्मीजीव स्वयं की मोक्षभावना का घोलन करते हैं। भगवान के गुण-स्तवन द्वारा वास्तव में अपने वैसे स्वभाव की भावना करते हैं।

(इस प्रकार भगवान के आठ अतिशयों / प्रातिहार्यों में से सातवें भामण्डल का वर्णन किया)