भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 11-12 ।।

काव्य : 11

दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः।
पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्ध-सिंधोः,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥

हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम-पवित्र।
तोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र॥
चन्द्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान।
कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान॥११॥

काव्य : 11 पर प्रवचन

हे देव! अनिमेष नयन से, अर्थात् एकटक नजर से अवलोकन करने योग्य आपका शान्त-वीतराग रूप देखने के बाद अन्य कहीं हमारी आँख नहीं ठहरती। आपके अद्भुत रूप में ही हमारी दृष्टि स्थिर हो गयी है; वह अब अन्यत्र कहीं सन्तोष प्राप्त नहीं करती। क्षीरसागर का चन्द्रमा की किरण जैसा उज्ज्वल और मीठा दूध जैसा जल पीने के बाद समुद्र के खारे और लवण मिले हुए जल पीने की इच्छा किसे होगी? आत्मा का अतीन्द्रिय चैतन्यरस चखने के बाद इन्द्रियविषयों में कौन रमण करेगा?

देखो, यह भगवान के प्रति भक्ति में अर्पणता और सत् -असत् का विवेक! इस जम्बूद्वीप को आवेण्टित करता हुआ खारा लवणसमुद्र है, फिर पाँचवां क्षीरसमुद्र है, उसका पानी स्वाद में दूध जैसा मीठा और रंग में चन्द्रमा जैसा उज्ज्वल होता है। उस क्षीरसमुद्र के जल से तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक होता है। यहाँ कहते हैं कि क्षीरसमुद्र का ऐसा मीठा जल पीने के बाद, अब खारा जल कौन पियेगा? हे देव! आप तो अतीन्द्रिय शान्ति के समुद्र हो; आपके मार्ग में चैतन्य की शान्ति चखने के बाद अब राग-द्वेष-कषाय का कड़वा स्वाद किसे अच्छा लगेगा? आपका शान्त-वीतरागस्वरूप देखने के बाद अन्य रागी-द्वेषी कुदेव तो हमें खारे-खारे लगते हैं; वे कोई भी हमारे चित्त को आकर्षित नहीं कर सकते। प्रभो! हमें राग में सन्तोष नहीं होता, हमारा चित्त तो वीतराग में सन्तुष्ट होता है।

देखो, सुदेव और कुदेव के बीच का विवेक! तथा अन्दर में स्वभाव और विभाव के बीच का विवेक ! शान्तरस के मीठे स्वाद के समक्ष कषाय कड़वी लगती है। प्रभो! आपके समान शुद्धस्वभाव में हमारी दृष्टि अनिमेषपने स्थिर हो गयी है, वह रूप ऐसा अद्भुत है कि अब वहाँ से दृष्टि हटती ही नहीं; शुद्धस्वभाव की दृष्टि से ही जो समयग्दर्शन हुआ, जो ज्ञानदृष्टि का उदय हुआ, वह फिर कभी अस्त नहीं होगा। तीर्थङ्कर भगवान का रूप बाहर में भी एकदम आश्चर्यकारी होता है और अन्दर के चैतन्य-अतीन्द्रिय रूप की तो बात ही क्या है! उस रूप को देखते ही जो स्वभावदृष्टि हुई, वह अब कभी रागादि में जानेवाली नहीं है।

जिनदेव का भक्त बाहर में भी रागी-द्वेषी-कुदेव को कभी नहीं मानता है। सर्वज्ञदेव को पहचानकर, उनके प्रति शीश झुकाया, वह अब किसी दूसरे (कुदेव) के सामने नहीं झुकेगा। प्रभो! आपका दिव्य शान्तरूप हजार नेत्रों से निहारते हुए ‘हरि' को, अर्थात् इन्द्र को ऐसी तृप्ति हुई कि उनके नेत्र अब झपकते भी नहीं हैं, उनके नेत्र स्थिर हो गये हैं – ऐसा है आपके शरीर का रूप! तब सर्वज्ञता से शोभायमान आपके शान्तरूप की तो क्या बात ! उसे देखने के बाद हमारी दृष्टि अब अन्यत्र कहीं जानेवाली नहीं है।

अप्रतिहतभाव से अन्तर्दृष्टि से आपका रूप (शुद्धात्म -स्वरूप) देखते-देखते हम भी परमात्मा बन जाएँगे; बीच में विभाव में कहीं अटकेंगे नहीं। अब, स्वभाव को छोड़कर स्वप्न में भी विभाव का आदर होनेवाला नहीं है और कुदेवादि के प्रति झाँककर भी देखनेवाले नहीं हैं। अहा ! स्वानुभव में आपकी सर्वज्ञता देखकर, वीतरागता देखकर, शान्ति देखकर, अब अन्यत्र कहीं हमारा चित्त मोहित होनेवाला नहीं है। जैसे, बालक अपनी प्रिय माता को बार-बार निहारता है; वैसे ही धर्मी जीव अपने परम इष्ट सर्वज्ञदेव की शान्त वीतरागमुद्रा को एकटक निहारकर प्रसन्न होता है।

यह भक्ति, भगवान की अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों प्रकार की पहचानसहित है। तीर्थङ्करों के आत्मा में केवलज्ञान की दिव्यता और बाहर में पुण्य की भी दिव्यता होती है। जैसे, जवाहरात के आभूषण आदि मूल्यवान माल को रखने का डिब्बा भी उत्कृष्ट होता है; वैसे ही तीर्थङ्करदेव की आत्मा की सर्वज्ञता तो अचिन्त्य-अद्भुत होती ही है; उसे रखने की पेटी -परमौदारिक शरीर भी ऐसा सुन्दर दिव्य रूपवाला होता है कि इन्द्र जैसे भी उसे देखकर आश्चर्यचकित होते हैं।

जो मात्र बाहर का डिब्बा, अर्थात् शरीर देखकर अन्दर के माल की पहचान नहीं करता, उसे वास्तविक लाभ नहीं होता। धर्मी जीव तो अन्दर के माल को, अर्थात् चैतन्यस्वभाव को पहचानकर भगवान की भक्ति करते हैं। जगत् से उदास किन्तु भगवन्त के दास - ऐसे धर्मीजीव, भगवान को देखते ही शान्तरस में स्थिर हो जाते हैं। परमात्मा की पूर्णता और साधक की शुरूआत – ऐसी सन्धिपूर्वक की यह भक्ति है। पूर्णता के लक्ष्य से साधक को शान्तभाव की जो शुरूआत होती है, वह अप्रतिहतरूप से पूर्ण होगी।

जैसे, सोलह वर्ष के वियोग के बाद अपने पुत्र प्रद्युम्न को देखकर माता रुक्मिणी अत्यन्त प्रसन्न होकर हृदय के हार के समान उससे लिपट पड़ी; वैसे ही हे परम प्रिय परमात्मा ! अनादि से आपका विरह था, उस मुझे आपकी भेंट होने पर मेरा हृदय प्रसन्नता से उछल जाता है। मेरे हृदय के हार, मेरी आँखों के तारे... आप मुझे मिले, अब मैंने आपको पहचाना, मुझे आपकी लगन लगी, तो अब संसार में कहीं मेरा चित्त नहीं लगता। कुदेवादि के सामने देखना तो दूर रहा; धन-स्त्री-राग -पुण्य.... ये सब... नहीं... नहीं... वे हमें अब इष्ट नहीं लगते; मात्र आपके समान परम चैतन्यपद ही हमें परम इष्ट । प्रिय लगता है। हे देव! उसकी साधना के लिए आप ही हमारे नेता हो, मार्गदर्शक हो । देखो, भक्त ऐसे भाव के उत्तरदायित्वसहित भगवान की भक्ति करता है।

क्षीरसमुद्र में मगर-मच्छ नहीं हैं, मैल नहीं हैं, उसका पानी खीर जैसा मीठा है; उसे चखने के बाद लवणसमुद्र का खारा पानी मुँह में कौन डालेगा? उसी प्रकार हे देव! हमने आपके शासन में आकर चैतन्यसमुद्र की अतीन्द्रियशान्ति का रस चखा है, अब सारा संसार हमें खारा लगता है.... हमारी परिणति समस्त परभावों से पीछे मुड़कर अन्तर के स्वभाव की ओर ढलती है। अब, सर्वज्ञ-वीतरागदेव के अतिरिक्त अन्य दूसरे अज्ञानी -रागी कुदेवों की मान्यता आत्मा के सर्व प्रदेशों से छूट गयी है।

हे देव! जो रागादि में धर्म मानते हैं, उन्होंने तो वीतराग - ऐसे आपको देखा ही नहीं है। आपका वीतरागी रूप जगत् में सबसे सुन्दर है, उसे पहचानने के बाद हमारी दृष्टि अब अन्यत्र कहीं स्थिर नहीं होती; हमारे रोम-रोम में, प्रदेश-प्रदेश में आपकी वीतरागता बस गयी है।

इस प्रकार हम वीतरागस्वभाव की भक्ति करते-करते सिद्धपद को साध रहे हैं।

वीतरागता का सन्देश

में अपना प्रतिबिम्ब देखकर आनन्दित होते हैं और दर्पण की तरफ पीठ करनेवाले अपना प्रतिबिम्ब न देख पाने के कारण स्वयं ही दुःखित होते हैं; इसमें दर्पण का तो किञ्चित् भी दोष नहीं है, वह तो दोनों के लिए समानरूप से ही चेहरे को प्रतिबिम्बित करनेवाला है। इसी प्रकार आप जैसे त्रिलोकीनाथ की भक्ति करनेवाले जीव तो सहज सुखोपलब्धि करते हैं और आपसे विमुख रहनेवाले अज्ञानीजन स्वयं ही दुःखी होते हैं, इसमें आपका किञ्चित् भी दोष नहीं है, क्योंकि आप तो वीतरागी हैं, आप तो राग-द्वेषपूर्वक किसी को सुख-दुःख प्रदाता है ही नहीं।

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-25


काव्य : 12

यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं,
निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत!
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥१२॥

जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह।
थे उतने वैसे अणु जग में, शान्त-रागमय निःसन्देह॥
हे त्रिभुवन के शिरोभाग के अद्वितीय आभूषण-रूप।
इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप॥१२॥

काव्य - 12 पर प्रवचन

हे तीन लोक के तिलकरूप प्रभो! आपका आत्मा तो उत्कृष्ट है ही; आपका शरीर भी परमाणुओं में उत्कृष्ट है। राग की चेष्टा से रहित शान्तरसवाले जिन सुन्दर परमाणुओं से आपका शरीर बना है, वे सुन्दर परमाणु जगत् में इतने ही थे। जगत् में जितने श्रेष्ठ परमाणु थे, वे सब आपके अति सुन्दर परमौदारिक शरीररूप परिणमित हो गये हैं; अब ऐसे सुन्दर परमाणु शेष नहीं रहे; इसलिए आपके समान अद्भुत शान्तरूप अन्य किसी का नहीं होता है। आपका आत्मा तो शान्तरस का सागर और देह सौन्दर्य का सागर है।

भगवान की वीतराग मुद्रा पर जैसी शान्ति होती है, वैसी अन्य किसी रागी-द्वेषी कुदेव की मुद्रा में नहीं होती। प्रभु का आत्मा तो शान्तरस में व्याप्त हो ही गया है, शरीर भी राग की चेष्टा से रहित होकर मानो शान्तरस में भीग गया हो! 'उपशम रस बरसे रे प्रभु तेरे नयन में' - जिस मुद्रा को देखकर मुमुक्षु को आत्मा के शान्तरस की प्रतीति हो जाती है -ऐसी शान्ति की झलकवाली प्रभु की मुद्रा होती है। तीर्थङ्कर प्रभु का एक अतिशय ऐसा होता है कि उनके दिव्य शरीर में देखनेवाले को स्वयं के अगले-पिछले सात भव का ज्ञान हो जाता है और सर्व प्रकार से शुद्ध प्रभु के 'चैतन्यरूप' को जो देखता है, उसे तो भावरहित अपना स्वभाव अनुभव में दिखायी देता है। सर्वज्ञदेव, आत्मा का शुद्धरूप देखने के लिए दर्पण के समान हैं।

देखो तो सही! मानो भगवान सामने ही विराजमान हों और स्वयं उनकी स्तुति करते हों – ऐसे अद्भुत भावों से यह स्तोत्र रचा गया है। प्रभु की मुद्रा एकदम वीतराग, महासुन्दर, शान्त -शान्त, गम्भीर और प्रसन्न होती है। देखनेवाले को चारों ओर से भगवान अपने सन्मुख ही दिखते हैं। प्रभु के शरीर में रोगादि नहीं होते हैं। आहार-पानी के बिना भी हजारों, लाखों, करोड़ों, बर्षों तक भगवान का शरीर ऐसा का ऐसा तेजस्वी रहता है। अशरीरी अतीन्द्रिय शान्तरसमय जीवन जीनेवाले भगवान को आहार, पानी या मल-मूत्र कैसा? भगवान होने के बाद भी आहार-राग या मल-मूत्र माननेवाले ने तो भगवान के शरीर की दिव्यता की पहचान भी नहीं की है और अन्दर के अतीन्द्रिय सुख को भी उसने नहीं जाना है।

भगवान की गम्भीरता, समुद्र के समान होती है और उनके समीप ऐसी शान्ति छा जाती है कि सिंह-बाघ आदि जीव भी एक-दूसरे पर उपद्रव नहीं करते, तो फिर भगवान पर स्वयं कोई उपद्रव करे, यह कैसे सम्भव है? भगवान तो शान्तरस में लीन हैं और उनके समीप दूसरे रागी-द्वेषी जीव भी शान्तभाव में स्थिर हो जाते हैं। अरे जीव! ऐसे तीन लोक में परमात्मा को पहचानकर उनकी भक्ति कर... तो तेरे भव का भी अन्त आ जाएगा। जिसके अन्तर में केवली भगवान की और उनके अतीन्द्रिय सुख की प्रतीति हो गयी है, वह जीव अत्यन्त आसन्नभव्य, अर्थात् निकट मोक्षगामी है – ऐसा कुन्दकुन्दस्वामी प्रवचनसार गाथा-62 में कहते हैं।

अरे, अभी तो जीवों को केवली तीर्थङ्कर के दिव्य पुण्य की प्रतीति भी भारी पड़ती है तो अन्तर के दिव्यज्ञान और सुख को तो वे कैसे जानेंगे? यह जानने के लिए स्वयं को भी उसी जाति का अतीन्द्रियभाव जागृत होना चाहिए; मात्र राग से या इन्द्रियज्ञान से प्रभु की सच्ची पहचान या सच्ची भक्ति नहीं हो सकती। आंशिक अतीन्द्रियभाव और आंशिक वीतरागभाव अपने में प्रगट करें, तब ऐसे पूर्णपरमात्मा की प्रतीति, पहचान और भक्ति होती है - यह अपूर्व न्याय है... और वह भेदज्ञान तथा सम्यग्दर्शन का कारण है।

हे देव! आप तीन लोक में सबसे सुन्दर और श्रेष्ठ हो। यहाँ चैतन्य में उत्कृष्ट परिणमनरूप सर्वज्ञता हुई, वहाँ बाहर पुद्गल में भी उत्कृष्ट परिणमनरूप परमाशान्तरूप शरीर की रचना हुई – ऐसा प्राकृतिक का सुमेल है; अन्य किसी को ऐसा शरीर नहीं होता है। जैसे, जगत् में केवलज्ञान से उत्कृष्ट कोई ज्ञान नहीं है; वैसे ही प्रभु के परमौदारिक शरीर से बढ़कर जगत् में कोई रूप नहीं है। चेतन की जितनी शोभा थी, वह सब आपकी आत्मा में एकत्रित हो गयी और पुद्गल की जितनी शोभा थी, वह सब आपकी देह में एकत्रित हो गयी; इसलिए जगत् में आपके समान सुन्दरता अन्य किसी में नहीं है। अरे! ऐसे भगवान को छोड़कर दूसरे को कौन भजे?

प्रभो! पूर्व में साधकदशा में शुद्धोपयोग बढ़ते-बढ़ते उसकी पराकाष्ठारूप से केवलज्ञान हुआ और साधकदशा में साथ के राग से पुण्य का रस बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट पुण्यरूप तीर्थङ्करपना हुआ। इस प्रकार चेतन और जड़ दोनों अपनी-अपनी सुन्दरता की उत्कृष्ट मर्यादा को प्राप्तकर, अन्त में दोनों भिन्न होकर, आप सिद्ध परमात्मा बन गये। पुण्य, जीव का स्वभाव नहीं है; इसलिए अन्त में वह छूट जाता है। सर्वज्ञता और सिद्धपद, जीव का स्वभाव है, वह कभी नहीं छूटता। इस प्रकार दोनों का भेदज्ञान समझना चाहिए। ऐसे भेदज्ञानपूर्वक भगवान के गीत गानेवाले के भव की बेड़ी के बन्धन टूट जाते हैं। पूर्व के पापकर्म भी पुण्यकर्मरूप पलट जाते हैं - ऐसा सम्यक् स्तुति का फल है।

सम्यक् भक्ति का स्वरूप वस्तुतः बात तो यह है कि इस जीव ने न कभी सच्ची भक्ति ही की है और न भक्ति के स्वरूप का श्रवण ही किया है।

यहाँ भगवान की मात्र रागरूप भक्ति की बात नहीं है, अपितु जिसके व्यवहारभक्ति के पीछे परिणमनरूप से निश्चयभक्ति विद्यमान है, उसकी भक्ति ही सम्यक् भक्ति कही जाती है।

हे भगवान! आपके भक्त को भवभ्रमण की भीड़ रहे – ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यही कारण है कि मुनिवर पद्मप्रभमलधारिदेव ने नियमसार परमागम में कहा है कि 'यदि तुझे भगवान जिनेन्द्र के प्रति भक्ति नहीं है, तब तो तू भवसागर के मध्य में मगर के मुख में स्थित है।'

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-33