काव्य : 41
रक्तेक्षणं समदकोकिलकण्ठनीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम्। आक्रामति क्रमयुगेण निरस्तशङ्क - स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः॥४१॥
कंठ कोकिला सा अतिकाला, क्रोधित हो फण किया विशाल। लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटै नाग महाविकराल॥ नाम-रूप तव अहि दमनी का, लिया जिन्होंने ही आश्रय। पग रखकर निशङ्क नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय॥४१॥
काव्य : 41 पर प्रवचन
विभिन्न भयों का निवारण करनेवाले नौ श्लोकों में इस चौथे श्लोक का 'सर्पविषनिवारक स्तुति' है।
कैसा सर्प?.... जिसकी आँखे क्रोध से लाल हो गयी है, जो कोयल के कण्ठ जैसा काला है, जो अतिशय क्रोध से फण उछालता सामने आता है – ऐसा भयंकर फणधारी सर्प; उसे भी हे जिनेन्द्र ! वह पुरुष नि:शङ्कपने दोनों पैर से लाँघ जाता है, जिसके अन्तर में आपके मङ्गल नामरूपी 'नागदमनी' (नाग का जहर उतारने वाला मन्त्र अथवा गरुडमणि) विद्यमान है। उसे सर्व का भय नहीं होता।
अहो, जिसके हृदय में सर्वज्ञ बैठे हो, जिसके पास सर्वज्ञ की श्रद्धारूप चैतन्यमणि है, उसे अब मिथ्यात्वरूपी सर्प का जहर कैसा? देखो न, छोटे-से महावीर प्रभु ने शान्तभाव से नाग को वश में किया; उसी प्रकार धर्मात्मा, चैतन्य के अनुभवरूप मन्त्र से मिथ्यात्वरूपी जहर को दूर करता है। सर्प का जहर तो एक बार मारता है, जबकि मिथ्यात्व का जहर तो संसार में अनन्त बार मारता है। उस मिथ्यात्व जहर को जिसने जिनशासन की उपासना से दूर किया, उसे अब बाहर में सर्प के विष का भय कैसा?
इस भक्तामर स्तोत्र के उपरान्त 'विष-अपहार' नाम से प्रसिद्ध एक स्तोत्र (ऋषभदेव भगवान की स्तुति) है, वह महाकवि धनञ्जय की रचना है। वे जिनभक्त थे। एक बार वे जिनमन्दिर में एकाग्रतापूर्वक पूजन तथा जिनगुणों का चिन्तन कर रहे थे – इतने में घर पर उनके पुत्र को सर्प ने डस लिया। उस पुत्र की माता ने उन्हें घर बुलाने के लिए आदमी भेजा परन्तु भक्ति कार्य अधूरा रखकर वे घर नहीं गये। इससे क्रोधित होकर । चिढकर विष से अचेत हुए पुत्र को लेकर उसकी माँ उनके पास मन्दिर में रख गयी और कहा कि लो, यह तुम्हारा पुत्र! भगवान के बड़े भक्त हो तो बचाओं अपने पुत्र को!
कवि धनञ्जय, जिनभक्ति पर कटाक्ष समझ गये। पूजा -चिन्तन आदि कार्य पूर्ण होते ही उन्होंने 'स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्त...' इस पद से प्रारम्भ करके 40 श्लोकों द्वारा जिनभक्ति की (विषापहार-स्तोत्र की) अद्भुत भावभीनी रचना की और यह स्तुति बोलते ही सबके आश्चर्य के बीच अचेत पुत्र का जहर उतर गया और मानो वह निद्रा से जागृत हुआ है, वैसे चलकर घर पहुंचा।
जिनभक्ति के प्रताप से शुभकर्म की उदीरणा होते ही कई बार ऐसे आश्चर्यकारी प्रसङ्ग बन जाते हैं, परन्तु वहाँ धर्मात्मा का आशय तो वीतरागता का गुणगान और वीतरागता की भावना का ही होता है, उसे लौकिक फल की आशा नहीं होती। जिसे मात्र लौकिक फल की आशा होती है, उसे बाहर में जब ऐसे प्रसङ्ग नहीं बनते, तब धर्म की श्रद्धा स्थिर रखना कठिन होगी। वर्तमान में किसी को अशुभकर्म के योग से बाहर में ऐसे योग नहीं बने तो भी अन्तर की जिनभक्ति तो निष्फल जाती ही नहीं, उसका उत्तम फल तो आता ही है।
चैतन्यस्वभाव में मोह का जहर (विष) उतारने की सामर्थ्य है। जिसके पास जहर उतारने का अमुक मन्त्र, जड़ी-बूटी या मणि हो तो वह सर्यों से भरे हुए भयानक जङ्गल के बीच जाए तो भी उसे सर्प उपद्रव नहीं करते अथवा जहर नहीं चढ़ता। एक आदमी के जीभ में कोई ऐसी रचना थी कि जीभ के ऊपर जहरीला सर्प काटे तो भी उसे जहर नहीं चढ़ता था। ऐसे जीव, निर्भयरूप से सर्प को लाँघकर चले जाते हैं। इसी प्रकार जिसके पास ज्ञायकभाव का स्वाद है, ज्ञायक का मन्त्र और जड़ी-बूटी है, चैतन्य की चिन्तामणि है – ऐसे धर्मात्मा जीव, क्रर कर्मों के उदयरूप काले नाग को भी पैर के नीचे कुचलकर निर्भयरूप से मोक्ष के मार्ग में गमन करते हैं; उदय का जहर उसकी चेतना को प्रभावित नहीं करता; उसकी ज्ञानचेतना, उदयभावों से भिन्न और अलिप्त ही रहती है। उस चेतना में काला नाग भी भय नहीं करता।
हे नाथ! कैसी भी परिस्थिति के बीच जहाँ हम आपकी सर्वज्ञता का स्मरण और ज्ञानस्वभाव की भावना करते हैं, वहाँ हमें कोई शङ्का अथवा भय नहीं रहता। हम उदयरूपी काले नाग को भी लाँघकर निर्भयरूप से आपके मार्ग में चले आते हैं।
देखो तो सही, भगवान की भक्ति का रणकार! और भक्त को आत्मविश्वास!! ऐसे भाव जिसने प्रगट किये, उसने भगवान की सच्ची शरण ली है। जिसने ऐसे अन्तर्मुखभाव से भगवान की शरण ली है, उसे अब जगत् में किसी का भय नहीं है; उसे मोक्ष के मार्ग में जाने से कोई रोक नहीं सकता: उसके चैतन्य प्रदेश में अब मोह का जहर नहीं चढ़ेगा; उसकी जीभ में (चेतना में) अमृत वसता है।
कदाचित् कोई धर्मात्मा, बाहर में सर्प को देखकर भय से भागता है तो भी उस समय उसे स्वभाव की और जिनमार्ग की शरण नहीं छूटी है; उदय और ज्ञान के भेदज्ञानरूप मन्त्रविद्या से वह सर्प को तथा भय को – दोनों को अपनी चेतना से भिन्न ही रखता है। वह चैतन्य में प्रवेश करके निर्भयरूप से मोक्ष को साधता है।
किन्हीं मुनिराज को ऐसी ऋद्धि होती है कि किसी को जहरीले सर्प ने काटा हो, वहाँ उन मुनिराज के शरीर से स्पर्शित हवा आये, तो उसका जहर उतर जाता है। तो हे सर्वज्ञदेव! आप तो जगत् में सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान ऋद्धिवाले हो, आपकी सर्वज्ञता को स्पर्श करके आती हुई श्रद्धारूपी हवा से जीवों के मिथ्यात्व का जहर उतर जाए - इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। आपके भक्त को मिथ्यात्वरूपी सर्प काट नहीं सकता और बाहर का सर्प भी उसकी आत्मसाधना को रोक नहीं सकता।
देखो, भगवान पार्श्वनाथ पूर्व के छठवें भव में जब अग्निवेग मुनिराज थे और ध्यान में विराजमान थे, तब अजगर हुआ कमठ का जीव, मुनि को पूरा का पूरा मुख में निगल गया। मुनिराज उस अजगर के मुख के बीच में भी भयभीत नहीं हुए, उन्होंने आत्मा की आराधना नहीं छोड़ी, क्योंकि उस समय भी उनके अन्तर में ज्ञायकतत्त्व के वेदन का अमृत विद्यमान था। यह ज्ञायकतत्त्व की भावना ही संसार का जहर उतारने की सच्ची जड़ी-बूटी है और यही सच्ची जिनभक्ति है।
इस प्रकार 'सर्पविषनिवारक' श्लोक द्वारा जिनस्तुति की है। अब ‘शत्रुभयनिवारक' श्लोक द्वारा जिनस्तुति करते हैं।
काव्य : 42
वल्गत्तुरङ्ग गजगर्जित भीमनाद – माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम्। उद्यद्दिवाकर मयूखशिखापविद्धं, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशुभिदामुपैति॥४२॥
जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर। शूरवीर नृप की सेनाएँ, रव करती हों चारों ओर॥ वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुन्दर तेरा नाम। सूर्य तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम तमाम॥४२॥
काव्य : 42 पर प्रवचन
इस श्लोक का नाम 'शत्रुभयनिवारक स्तुति' है।
हे जिनदेव! उछलते और गर्जना करते हुए हाथी-घोड़ों या भयंकर कोलाहल से भरी हुई युद्धभूमि में बलवान शत्रु राजाओं की सेना के बीच घिरा हुआ होने पर भी, आपका भक्त, जहाँ आपका स्मरण-कीर्तन करता है, वहाँ तो, जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार भिद जाता है; वैसे शत्रु सेना विजित हो जाती है, छिन्न-भिन्न हो जाती है। प्रभो! अन्तर में हम आपके मार्ग की उपासना करते हैं, वहाँ उदयभावों का घेरा भिदकर छिन्न -भिन्न हो जाता है। इस प्रकार जिसके अन्तर में जिनराज विराजमान है, उसे शत्रु सेना का या उदयभावों को भय नहीं है; उससे भिन्न रहकर निर्भयरूप से वह मोक्ष को साधता है।
कई बार धर्मी राजा भी युद्ध में पराजित हो जाएँ, (जैसे - भरत राजा, युद्ध में बाहुबली से हार गये) अशुभोदय से ऐसा हो परन्तु ज्ञानी-धर्मात्मा की ज्ञानचेतना तो अशुभोदय से पराजित नहीं होती। ज्ञानचेतना में 148 कर्मप्रकृतियों के बन्धन को तोड़ने की सामर्थ्य है, वहाँ दूसरे बन्धन की क्या बात ! कहते हैं कि मानतुङ्ग स्वामी के बन्धन भी इस स्तुति से टूट गये थे।
अरे, निश्चयजिनभक्ति से 148 कर्मप्रकृतियों के बन्धन भी टूट जाते हैं तो फिर व्यवहारभक्ति से पुण्य की उदीरणा होने से किसी का बन्धन टूट जाता हो तो इसमें क्या आश्चर्य है! और परमात्मतत्त्व की भावनावाले को बन्धन कैसा? परमात्मभावना की अचिन्त्य सामर्थ्य से मोहादि के बन्धन भी तड़-तड़ करते टूट पड़ते हैं। ज्ञानी की चेतना अन्तर में निर्भयरूप से मोहादि शत्रु को जीत लेती है और वहाँ विशिष्ट पुण्य-योग से बाहर के शत्रु भी जीत लिये जाते हैं। हे देव! यह आपकी भक्ति का ही प्रभाव है – ऐसा कहकर सर्वज्ञपद का कीर्तन किया है, उसकी महिमा की है और उस परमपद की भावना की है।
प्रभो! आप परमात्मा हमारे पक्ष में, अर्थात् हृदय में विराजते हो, फिर हमारे सामने शत्रु का बल कैसा? बलवान मोहरूपी शत्रु का जोर भी हमारी चेतना के सामने चल नहीं सकता। युद्धभूमि में हाथी-घोड़े उछलते हों, तोप के गोले या बम के गोले बरसते हो; उनके बीच भी भयभीत होकर ज्ञानी कभी जिनमार्ग नहीं छोड़ते। जैसे, सूर्योदय होने पर अन्धकार दूर भाग जाता है; वैसे ही जिनभक्तिरूप सूर्य के प्रताप से अशुभकर्म दूर हो जाते हैं।
हे देव! जहाँ आपके केवलज्ञान का स्वीकार और सत्कार करते हैं, वहाँ ज्ञानचेतना झलक उठती है और मिथ्यात्वादि अन्धकार दूर भागता है, पापकर्म भी पलट जाते हैं। इस प्रकार हे विजेता जिन! आपके सम्यक्मार्ग की शरण लेते ही हमारी भी संसार के सामने विजय ही है; संसार को भेदकर हम अपने सर्वज्ञपद को जीत लेंगे, केवलज्ञान वैभव प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार निश्चय-व्यवहार की सन्धिसहित जिनभक्ति करते-करते साधक जीव, आह्लादपूर्वक अपने सिद्धपद को साधते हैं - ऐसी अपूर्व भक्ति का यह वर्णन है।