काव्य : 3
बुद्धया विनापि-विबुधा र्चित पाद-पीठ! स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विग तत्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दुबिम्ब मन्य कः इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्॥३॥
स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ के लाज। विज्ञजनों से अर्चित हे प्रभु!, मन्दबुद्धि की रखना लाज। जल में पड़े चन्द्र-मण्डल को, बालक बिना कौन मतिमान। सहसा उसे पकड़नेवाली, प्रबलेच्छा करना गतिमान॥३॥
काव्य - 3 पर प्रवचन
प्रभो! कहाँ आपका केवलज्ञान और कहाँ मेरी अल्प बुद्धि ! आपके समक्ष तो मैं बालक हूँ। ऐसा होने पर भी आपके गुणों के प्रति परमप्रेम के कारण मैं आपकी स्तुति करने के लिए उद्यमवन्त हुआ हूँ - ऐसा भाव इस तीसरे श्लोक में कहते हैं –
इन्द्रादि विबुधजनों द्वारा जिनका सिंहासन पूजनीय है – ऐसे हे जिनेन्द्र ! मुझमें बुद्धि न होने पर भी, मैं लज्जा छोड़कर आपकी स्तुति करने के लिए समुद्यत हुआ हूँ। पानी में दिखनेवाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को प्राप्त करने की इच्छा, बालक के अतिरिक्त अन्य कौन कर सकता है?
प्रभो! आप तो जगत् में सर्वोत्कृष्ट महान हो और मेरी बुद्धि अत्यन्त अल्प है, तो भी हे देव! मैं मेरी शक्ति की अल्पता का विचार नहीं करता; मैं तो आपके गुणों का विचार करता हूँ। आपके अपार गुणों का विचार करते हुए मेरे अन्तरङ्ग में से सहज ही स्तुति का झरना स्फुरायमान होता है; इसलिए आपके गुणों की स्तुति करने में मुझे शर्म नहीं आती है।
हे नाथ! मेरी बुद्धि भले ही अल्प हो परन्तु सम्यक् है और आपके गुणगान में ही लगी हुई है। भले ही शक्ति कम और ज्ञान अल्प है, परन्तु प्रेम तो आपकी सर्वज्ञता का और वीतरागता का जागृत हुआ है न! इसलिए उसे प्राप्त करने के लिए मैं भक्ति द्वारा उद्यमी हुआ हूँ। प्रभो! आप जीवन में अध्यात्म की उत्कृष्ट साधना करके परमात्मा हुए हैं और जगत् को आत्मसाधना का मार्ग बताया है। हम भी उस मार्ग का अनुसरण करते हैं। इस प्रकार भगवान के द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलना ही भगवान की सम्यक् भक्ति है।
जिनदेव के महान स्तुतिकार श्री समन्तभद्रस्वामी कहते हैं - हे देव! आप ऐसे अचिन्त्य हो कि सम्यग्दृष्टि ही आपको भज सकता है; मिथ्यात्वी जीव आपका भजन नहीं कर सकते, पहिचान नहीं कर सकते।
जैसे, जगमगाते चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को निर्मल जल में देखकर, बालक अपना हाथ लम्बा करके चन्द्रमा को पकड़ने की चेष्टा करता है, परन्तु कहाँ ऊँचे आकाश में स्थित चन्द्रमा और कहाँ बालक का हाथ! उसी प्रकार हे प्रभो ! केवलज्ञानरूपी चन्द्रमा से जगमगाते आपको देखकर, मैं उसे लेने के लिए अपने हाथ (श्रद्धा-ज्ञान) को लम्बा करता हूँ, अर्थात् आपकी स्तुति करने के लिए जागृत हुआ हूँ। यद्यपि आपके सामने मैं बालक के समान हूँ.... कहाँ आपकी सर्वज्ञता और कहाँ मेरी अल्पज्ञता! फिर भी हे नाथ! मेरे हृदय सरोवर की निर्मलता में, मेरे स्वच्छ मति-श्रुतज्ञान में आपकी सर्वज्ञता का प्रतिबिम्ब उत्कीर्ण हो गया है; इसलिए उसकी प्राप्ति के लिए मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
जैसे, आकाश में से चन्द्रमा लेना बालक को अशक्य नहीं लगता; वैसे ही हे देव! हम साधक, अर्थात् बालक जैसे होने पर भी, आपके जैसा परमात्मपद प्राप्त करने का सङ्कल्प करते हैं, उसमें हमें कुछ भी अशक्य नहीं लगता अथवा लोक-लाज आड़े नहीं आती। हम तो लज्जा छोड़कर आपकी स्तुति करते -करते परमात्मपद की साधना के लिए अग्रसर हुए हैं।
यहाँ बालकपना दोष के अर्थ में नहीं लेना, अपितु इष्ट वस्तु को प्राप्त करने की उत्कण्ठा के अर्थ में लेना है। जैसे, बालक लज्जा छोड़कर चाहे किसी भी महान वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करता है; वैसे ही हे देव! मैं भी आपकी स्तुति से महान परमात्मपद प्राप्त करने की चेष्टा करता हूँ। जैसे, बालक अपने छोटे हाथ को लम्बा करके बड़े समुद्र का माप बतलाता है कि 'इतना बड़ा समुद्र' - वैसे ही मैं अपने अल्प मति -श्रुतज्ञान का विस्तार करके आपके अनन्त गुणोंरूपी समुद्र की स्तुति करता हूँ।
इस सन्दर्भ में बाल-महात्मा रामचन्द्रजी की बात प्रसिद्ध है। चन्द्रमा को देखकर राम कहते हैं – हे माँ! मुझे चन्द्रमा बहुत प्रिय है.... चन्द्रमा को देखकर बालक रामचन्द्रजी उसे हाथ में लेने की इच्छा करते हैं; तब दीवानजी उनके हाथ में दर्पण देकर, उसमें चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाते हैं; उसे देखकर राम प्रसन्न होते हैं। जैसे, बालक को चन्द्रमा के प्रति प्रेम है; इसलिए उसके प्रतिबिम्ब को देखकर प्रसन्न होता है। इसी प्रकार यहाँ साधक कहता है –
हे नाथ! हमें आपके प्रति (सर्वज्ञता के प्रति) परम प्रेम है; इसलिए आपकी अनुपस्थिति में परोक्षरूप से आपकी स्तुति द्वारा अपने मति-श्रुतज्ञानरूप दर्पण में आपका प्रतिबिम्ब देखकर; अर्थात्, आपके समान ही अपने ज्ञानस्वभाव को अन्तर में देखकर, हम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। देखो, छोटे-से रामचन्द्रजी का ध्येय महान था, उसी प्रकार छोटे-से साधक के ध्येय में तो पूर्ण परमात्मपद है।
हे सर्वज्ञनाथ! आप तो पूज्य हो ही, आपके चरण-कमल जहाँ पड़े - ऐसा ‘पादपीठ' (सिंहासन) भी देवों के द्वारा पूज्य है। जहाँ-जहाँ तीर्थङ्करों के, सन्तों के चरण पड़ते हैं, वह 'तीर्थ' है। अहा! भगवान का और धर्मात्माओं का आत्मा तो पूज्य ! उनका शरीर भी पूज्य और जहाँ उनके चरण पड़े, वह पृथ्वी भी पूज्य ! ऐसा कौन कहता है ? जिसने अन्तर में आत्मा की पूज्यता देखी है, वह बाहर में भी उसका उपचार करता है और इस बहाने से अन्दर के शुद्धात्मा को लक्ष्य में लेता है।
देखो, धर्मात्मा की दृष्टि! उनके व्यवहार के पीछे भी परमार्थ का जोर होता है। अहो ! प्रभु के अन्तर में पूर्ण आनन्द का सागर उल्लसित हो रहा है, उसकी तो क्या बात ! बाहर में उनके शरीर और सिंहासन में भी उनका अचिन्त्य प्रभाव दिखायी दे रहा है। विबुधजनों द्वारा वह भी पूज्यनीय हैं। भगवन्तों के चरणों से स्पर्श हुई भूमि की (सम्मेदशिखर-गिरनार -शत्रुञ्जय इत्यादि की) यात्रा करने मुनिराज भी जाते हैं और क्षेत्र के साथ भाव की सन्धि करके, भगवन्तों के गुणों का स्मरण करते हैं। वास्तव में तो गुण, स्तुति करने योग्य है; क्षेत्र आदि तो उसमें निमित्त हैं।
यहाँ यद्यपि युग के आदि पुरुष भगवान ऋषभदेव को सम्बोधित करके स्तुति की गयी है तो भी, केवलज्ञान इत्यादि गुणों की अपेक्षा से सभी केवली भगवन्त समान होने से एक सर्वज्ञ भगवान की गुणस्तुति में सभी भगवन्तों की स्तुति समाहित हो जाती है।
भगवान ऋषभदेव धर्मयुग के आदिकर्ता हैं, उन्हें लक्ष्य में लेकर धर्मात्मा अपने आत्मा में साधकभाव की शुरूआत करता है - वह किस प्रकार करता है ? इन्द्रियों से पार, राग से पार, अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभाव को अनुभूति में लेकर साधकभाव की शुरूआत करता है, वह परमार्थस्तुति है और उसका फल मुक्ति है।
हे भगवान! आपकी परमार्थभक्ति का फल मोक्ष है; सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परमार्थभक्ति से भव के बन्धन टूट जाते हैं और उसके साथ पुण्य के योग से बाहर के बन्धन भी टूट जाएँ तो इसमें क्या आश्चर्य है? वीतराग सर्वज्ञदेव को वन्दन करनेवाले को तो अपने में वीतराग-विज्ञान की भावना है; वहाँ विशुद्धता के कारण किसी समय बाहर की अनुकूलता बन जाए और प्रतिकूलता दूर हो जाए - ऐसा होता है परन्तु बाह्य सामग्री-धन आदि प्राप्त करने की इच्छा तो कषाय है।
प्रश्न : कई बार जिनस्तुति आदि मङ्गल नहीं करनेवाले पापी को भी बाहर में सुख (अनुकूलता) देखने में आता है और पाप का उदय नहीं दिखता तथा कई बार मङ्गल करनेवाले धर्मी को बाहर में सुख नहीं दिखता है और पाप का उदय दिखता है; उसका क्या कारण है ? (जैसे, कई बार पापी भी धनवान -निरोगी दिखता है और धर्मी भी निर्धन-रोगी दिखता है।)
उत्तर : भाई ! यह पूर्व के पुण्य-पाप के फल अभी दिखायी देते हैं; जीवों के संक्लेश-विशुद्धपरिणाम अनेक प्रकार के हैं। पूर्व में बाँधे हुए अनेक कर्म अभी एक साथ उदय में आते हैं। किसी को पूर्व के बहुत पुण्य का अभी उदय हो तो अभी मङ्गल किये बिना भी वह बाहर से सुखी दिखता है और उसके पाप का उदय नहीं दिखता तथा जिसके पूर्व के किसी पाप का उदय हो, उसे अभी मङ्गल करते हुए भी बाहर में सुख नहीं दिखता, प्रतिकूलता दिखती है। यह किसी वर्तमान भाव का फल नहीं है। हाँ; इतना अवश्य है कि पापभाव से पापी जीव के पूर्व के पुण्यकर्म भी घट जाते हैं तथा धर्मभावनावाले जीव के पूर्व के पापकर्म घटकर उदय में आते हैं। मोक्षमार्ग -प्रकाशक के मङ्गलाचरण में पण्डित टोडरमलजी ने यह बात दृष्टान्तपूर्वक स्पष्ट की है –
जैसे, किसी मनुष्य को पूर्व का एक करोड़ रुपये का कर्ज हो और अभी वह 99 लाख कमाता हो, फिर भी उसे अभी एक लाख का कर्ज दिखता है, वास्तव में उसने कमाया तो है, गँवाया नहीं है तथा अन्य मनुष्य, जिसके पास पूर्व का कमाया हुआ एक करोड़ रुपये का मूलधन था, उसमें से अभी 99 लाख की हानि हुई तो भी उसके पास एक लाख का मूलधन दिखता है परन्तु वास्तव में उसे हानि हुई है। इसी प्रकार धर्मी के पाप का उदय दिखता है तो भी, उसके पूर्व में अधिक पाप थे, वह कम होकर उदय में आये है और पापी जीव के पुण्य का उदय दिखता है तो भी उसके पूर्व का अधिक पुण्य था, वह घटकर उदय में आया है – ऐसा समझना। वर्तमान पाप के भावों से अनुकूलता नहीं मिलती और धर्मभाव के कारण प्रतिकूलता नहीं मिलती; इसलिए धर्मी को प्रतिकूलता में कोई देवादिक सहायता करे ही – ऐसा कोई नियम नहीं है और अधर्मी को देव आकर दण्ड करे – ऐसा कोई नियम नहीं है; यह सब तो पूर्व के पुण्य-पाप के अनुसार होता है।
इस बात को अधिक स्पष्ट समझने हेतु अन्य दृष्टान्त आता है – दो मित्र थे, एक आस्तिक, दूसरा नास्तिक। एक बार दोनों घूमने गये। घूमते-घूमते रात हो गयी। आस्तिक ने तो एक मन्दिर में जाकर सारी रात धर्मध्यान में और प्रभु के भजन में व्यतीत की, जबकि नास्तिक ने सारी रात वैश्या के घर में जाकर पापकार्यों में व्यतीत की।
तब उस नास्तिक ने आस्तिक से कहा – देख, तूने सारी रात धर्मकार्य में लगाने पर भी तुझे काँटा लग गया और मुझे यह मोती की माला मिली – ऐसा क्यों हुआ?
आस्तिक ने कहा – हे मित्र! सामने जैनगुरु विराजमान हैं, उनके पास चलो, वे ही इस बात का रहस्य समझायेंगे।
जैनगुरु ने कहा – सुनो! आस्तिक को पूर्व के किसी तीव्र पाप के उदय से आज फाँसी मिलनेवाली थी, परन्तु इसके धर्मध्यान करने से पापकर्म एकदम कम हो गये; इसलिए फाँसी के बदले इसे मात्र एक काँटा ही लगा और इतने मात्र से इसके पूर्व के पापकर्म खिर गये.... तथा नवीन पुण्य भी बँधा और इस नास्तिक के पूर्व का ऐसा विशेष पुण्य था कि आज इसे बहुत बड़ा राज्य मिलता, परन्तु उसने पापकार्य किये, जिससे इसके पूर्व का पुण्य घट गया और महान राज्य के बदले मात्र एक रत्नों की माला मिली। इसका पुण्यकर्म खिर गया और नया पापबन्ध हुआ। अपने-अपने पुण्य-पाप का फल भविष्य में दोनों को प्राप्त होगा। पाप के फल में रत्नमाला नहीं मिली और पुण्य के फल में काँटा नहीं लगा है।
इस प्रकार जीव के विशुद्धपरिणाम से पूर्व के कर्म भी परिवर्तित हो जाते हैं। उसमें किसी के जिनस्तुति आदि करने से विशेष पुण्योदय के योग से देवादिक की सहायता का प्रसङ्ग बन जाता है, फिर भी जिनस्तुति करनेवाले सभी जीवों को ऐसा होता ही है - यह कोई नियम नहीं है। सच्ची जिनस्तुति करनेवालों को तो स्वयं वीतराग-विज्ञान की भावना होती है और उस भावना से धर्मसाधना में कोई विघ्न नहीं आता। धर्म का फल तो अन्तर में तत्क्षण शान्ति प्रदान करता ही है।
अहा प्रभो! आप केवलज्ञान को प्राप्त और भव-बन्धन से मुक्त हुए हैं; पूर्णानन्द से पूर्ण और दुःखों से मुक्त हैं; अत: आपको हृदय में लेनेवाले हम अल्पज्ञ, भवबन्धन में क्यों रहेंगे? आप मुक्त और आपके भक्त को बन्धन – यह शोभा नहीं देता। देखो, इस प्रकार की स्तुति करते-करते मानतुङ्ग मुनिराज के बन्धन एकदम टूट गये।
हे भाई! तू सर्वज्ञस्वरूप को लक्ष्य में लेकर उसकी उपासना कर! तेरे 148 कर्मबन्धन की बेड़ी क्षणमात्र में टूट जाएगी। अरे, वीतरागभावरूप जिनभक्ति तो अन्दर के मोह और भव के बन्धन को क्षण में छिन्न-भिन्न कर देती है, तब बाहर के ताले टूट जाएँ – इसमें क्या आश्चर्य है ? लोग तो बाहर के आश्चर्य में अटक जाते हैं और बाहर की आशा से भक्तामर आदि पढ़ते हैं परन्तु भाई! स्तुति का वास्तविक प्रयोजन तो अन्तर में अपने वीतरागभाव की वृद्धि हो – यह है। तू जिनकी स्तुति करता है, उन्होंने तो सम्पूर्ण राग को छोड़ दिया है; अत: उनकी स्तुति भी रागरहित भाव से ही सुशोभित होती है। भगवान और भक्त, दोनों के भावों में जितना सुमेल हो, उतनी साधकदशा है और वही परमार्थस्तवन है।
हे प्रभो! तीसरे काल में जो केवलज्ञान को प्राप्त हुए – ऐसे आपकी मैं पञ्चम काल का अल्पज्ञ-साधक स्तुति करता हूँ। आपके केवलज्ञान के समक्ष तो मेरा ज्ञान अनन्तवें भागमात्र । अल्प है; भले ही अल्प, किन्तु सम्यक् है; इसलिए उसके द्वारा लज्जारहित होकर मैं आपकी स्तुति करता हूँ ..... पामरता का भान रखकर प्रभुता की उपासना करता हूँ। हे नाथ! मुझमें केवलज्ञान नहीं है, परन्तु आपके केवलज्ञान को तो नजरों से निहारता हूँ और उसकी भावना भाता हूँ; इसलिए आपकी स्तुति किये बिना मुझसे रहा नहीं जाता।
जिसे सर्वज्ञ स्वभाव का भान तो हुआ है परन्तु अभी सर्वज्ञता प्रगट नहीं हुई, उस साधक को गुणों के प्रति प्रमोदरूप - ऐसा भक्तिभाव आता है। यह ज्ञानस्वभाव की उपासनापूर्वक स्तुति है। जिनकी स्तुति करते हैं, उनके जैसा वीतरागी अंश स्वयं में प्रगट करके, जवाबदारी के भानसहित की यह भक्ति है। 'हे भगवान! आप ही मुझे तार दोगे' – ऐसे दूसरे के ऊपर डाल देने की, अर्थात्, पराधीनता की यह बात नहीं है।
मैं अपने ज्ञान में से विभाव निकाल देता हूँ और सिद्धों को स्थापित करता हूँ। चन्द्रमा की तरह सिद्धप्रभु तो नीचे नहीं आयेंगे, परन्तु मेरे स्वच्छ ज्ञानदर्पण में उनका प्रतिबिम्ब देखकर; अर्थात्, उनके समान शुद्धात्मा को अनुभव में लेकर मैं स्वयं सिद्ध होऊँगा और ऊपर जाऊँगा। ऐसे भाव से साधक जीव, सर्वज्ञ की स्तुति करते हैं।
काव्य : 4
वक्तुं गुणान्गुण समुद्र! शशाङ्ककान्तान्, कस्ते क्षमः सुर-गुरु प्रतिमोऽपि बुद्धया। कल्पान्तकाल-पवनोद्धत-नक्र चक्रं, को वा तरीतुं अलं अंबुनिधिं भुजाभ्याम्॥४॥
हे जिन! चन्द्रकान्त से बढ़कर, तब गुण विपुल अमल अति श्वेत। कह न सकें नर हे गुण-सागर, सुर-गुरु के सम बुद्धि समेत॥ मक्र-नक्र-चक्रादि जन्तु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार। कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार॥४॥
काव्य - 4 पर प्रवचन
हे देव! मैं आपकी स्तुति करने के लिए उद्यमवन्त हुआ हूँ, परन्तु समुद्र के समान आपके अनन्त गुणों का पार, मैं अल्पज्ञ किस प्रकार पाऊँगा?
हे चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कान्तिवान देव! आप तो गुण के समुद्र हो, अनन्त गुणों का समुद्र आपके आत्मा में उछल रहा है; उन गुणों का वर्णन करने के लिए बृहस्पति जैसा बुद्धिमान भी कहाँ समर्थ है?
अहा! आपके अचिन्त्य गुण! वाणी का विलास वहाँ पहुँचने में असमर्थ है और विकल्प में वे आते नहीं हैं। वचन -विकल्पों से पार, स्वानुभव द्वारा ही उनका पार पाया जा सकता है। जैसे, प्रलयकाल में (पञ्चम काल के अन्त में) कल्पान्त की इतनी उग्र पवन प्रवाहित होगी कि सागर की बड़ी-बड़ी लहरों में मगर-मच्छ के समूह भी उछल पड़ेंगे, ऐसे उछलते हुए सागर को दोनों हाथ से पार करने में कौन समर्थ है ? इसी प्रकार इस पञ्चम काल में श्रद्धा-ज्ञानरूपी दोनों हाथों द्वारा मैं भवसागर से तिरने का साहस करता हूँ। आपकी भक्ति द्वारा मैं भवसागर से अवश्य तिर जाऊँगा... विकल्पों से पार होकर स्वानुभूति से मैं अनन्त गुणों का अनुभव करूँगा। इस प्रकार धर्मी जीव, आनन्द के समुद्र को अपने अन्तर में उल्लसित होता हुआ देखता है।
हे प्रभो! जो राग से भिन्न चैतन्यभाव का अनुभव नहीं करते – ऐसे अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव वास्तव में आपको नमन नहीं कर सकते हैं, आपकी उपासना नहीं कर सकते हैं, वे आपके अतीन्द्रिय स्वरूप को पहिचानते ही नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि जीव ही राग से भिन्न चैतन्यभाव के अनुभव द्वारा आपको वास्तव में पहचान कर नमन करते हैं, उपासना करते हैं।
प्रश्न : देव-गुरु की व्यवहारश्रद्धा करके अज्ञानी जीव, अनन्त बार ऊँचे स्वर्ग में, नौवें ग्रैवेयक तक गया, फिर भी 'वह भगवान को नमन नहीं करता' - ऐसा क्यों कहा?
उत्तर : हे भाई! जो राग में अटका है, उसने वीतराग को नमन किया कैसे कहा जाएगा? राग से भिन्न पड़ने पर वीतराग को सच्चा नमस्कार होता है। वीतराग देव की उपासना, वीतरागभाव से होती है, राग से नहीं; साथ में राग भले ही हो परन्तु राग, वह कोई उपासना नहीं है, वह मोक्षमार्ग नहीं है; जितनी वीतरागता हुई, उतनी सर्वज्ञ की उपासना और उतना ही मोक्षमार्ग है और यह तो भेदज्ञानी जीवों को ही होता है। जिसे भेदज्ञान नहीं है, वह भगवान को नमस्कार नहीं करता, अपितु राग को नमन करता है।
अरे भाई! तूने आत्मा को तो नहीं पहिचाना और सर्वज्ञ भगवान के सच्चे स्वरूप को भी कभी नहीं पहिचाना। भगवान की भक्ति के नाम पर भी तूने अज्ञानपूर्वक राग का ही सेवन किया है। राग को नमन करनेवाला, भगवान को नमस्कार नहीं करता और जो भगवान को नमस्कार करता है, वह राग को नमन नहीं करता।
स्वराज प्राप्त करने हेतु ऐसा बोलते थे -
'नहि नमेगा... नहि नमेगा, निशान भूमि भारत का'
इसी प्रकार यहाँ कहते हैं कि –
'नहि नमेगा, नहि नमेगा, धर्मी राग को नहीं नमेगा।'
अर्थात् जो सर्वज्ञपद का साधक हुआ है, वह अब तुच्छ राग को नमन / आदर नहीं करेगा।
देखो तो सही! सर्वज्ञ की अलौकिक स्तुति करते जाते हैं और साथ-साथ नम्रता भी प्रगट करते जाते हैं। हे देव! आपके गुण तो सागर जितने और मेरी बुद्धि अल्प! उपशमरस से उछलते आपके केवलज्ञानादि अनन्त गुणरूपी समुद्र का वर्णन कौन कर सकता है? अरे, बृहस्पति जैसे; अर्थात्, देवों में गुरुसमान, बारह अङ्ग के धारी भी असंख्य वर्षों तक हजारों जिह्वा से आपका गुणगान करें तो भी आपके गुणों का पूरा वर्णन नहीं कर सकते। इसका पार तो अनुभव से ही पाया जा सकता है; वचन से, विकल्पों से पार नहीं पाया जा सकता - ऐसा लक्ष्य में रखकर परमप्रीति के कारण मैं आपके गुणों का स्तवन करता हूँ।
भगवान के गुणों की स्तुति, भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं, परन्तु अपने भाव में गुणों के प्रमोद द्वारा उनकी भावना करके विशुद्धि के लिए है और उस विशुद्धि से संवर -निर्जरा होते हैं; इसलिए वास्तव में स्तुति के बहाने भेदज्ञान की भावना से ही भव का अभाव होता है।
* यही बात श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रवचनसार, गाथा 80 में समझायी है -
जो जानता अरहन्त को, द्रव्यत्व-गुण-पर्याय से। वह जानता है आत्मा, हो मोहक्षय तब नियम से ॥ 80॥
* समयसार में भी परमार्थ स्तुति के वर्णन में यही बात बतायी है –
कर इन्द्रियजय ज्ञान स्वभाव रु, अधिक जाने आत्म को। निश्चयवि. स्थित साधुजन, भाषं जितेन्द्रिय उन्हीं को॥31॥
* नियमसार में भी वे कहते हैं कि –
विपरीत आग्रह छोड़कर श्री जिन कथित जो तत्त्व हैं, जोड़े वहाँ निज आत्मा, निजभाव उसका योग है॥ 139॥
* पञ्चास्तिकाय में भी कहते हैं कि –
इसलिए निर्वाण अर्थी, संगबिन ममतारहित। हो सिद्ध में भक्ति करे, उससे मिले निर्वाण पद॥ 169॥ अतएव करना राग ना, किंचित् कहीं मोक्षार्थियों। इससे तरे वह भव्य भवसागर, सदा वीतराग हो॥ 172॥
देखो तो सही! जैनशासन में सर्वत्र ज्ञानस्वभाव के अनुभव से वीतरागता करने का उपदेश दिया है।
जैसे, छोटा बालक 'इतना बड़ा समुद्र' – ऐसे अपने दोनों हाथ फैलाकर सागर का वर्णन करने की चेष्टा करता है; वैसे ही हे देव! अपने श्रद्धा-ज्ञानरूपी दोनों छोटे हाथों का विस्तार करके, मैं आपके गुणरूपी समुद्र की स्तुति करता हूँ; इस प्रकार कहकर मुनिराज ने सर्वज्ञ की स्तुति के अद्भुत भावों की घनघोर वर्षा की है।