भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 37-38 ।।

काव्य : 37

इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य।
यदृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा
तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि॥ ३७॥

धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य।
वैसा क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौन्दर्य॥
जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती।
वैसी ही क्या अतुल कान्ति, नक्षत्रों में लेखी जाती॥३७॥

काव्य : 37 पर प्रवचन

हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के समय समवसरण में आपके अष्ट प्रातिहार्य इत्यादि दिव्य-आश्चर्यकारी विभूति होती है, वैसी दूसरे किसी अज्ञानी-कुदेवों को नहीं होती; वे सब तो आपके समक्ष, सूर्य के सामने तारे जैसे फीके लगते हैं। लाखों-करोड़ों सितारों का समूह उदित होकर चाहे जितना टिमटिमाये तो भी, अन्धकार को दूर करनेवाले एक दिनकर के पास जैसी जगमगाती प्रभा है, वैसी प्रभा क्या उन सितारों में कभी होती है? – नहीं होती।

जिस प्रकार रात्रि के तारे चाहे जितने प्रकाशित हों परन्तु उनका प्रकाश रात्रि के अन्धकार को मिटाकर दिन नहीं बना सकता; उसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी रात्रि में रहते हुए अज्ञानी जीव-कुदेव चाहे जितना विकास करें तो भी हे देव! उनको आपके जैसी वीतरागता और ज्ञानप्रकाश तो दूर रहो, परन्तु आपके जैसी बाह्यविभूति भी किसी को नहीं होती।।

अहा! हजार चक्रों से चमकता यह धर्मचक्र; रत्नजड़ित मानस्तम्भ; इच्छारहित खिरती दिव्यवाणी; यह आश्चर्यकारी भामण्डल; आकाश में कमल की रचना; इन्द्र द्वारा पूज्यता - ऐसा आश्चर्यकारी वैभव, हे देव! जैसा आपको हुआ, वैसा अन्य किसी को नहीं होता। क्या टिमटिमाते तारों में या अग्नि के पिण्ड में कभी सूर्य जैसा प्रकाश होता है ? सूर्य उदित होता है, तब तारों का तेज ढक जाता है और वे दिखना भी बन्द हो जाते हैं; उसी प्रकार हमारे अन्तर में जहाँ सर्वज्ञदेवरूपी सूर्य का प्रकाश हुआ, वहाँ कुदेवरूपी तारों का तेज विनष्ट हो गया। प्रभो! अब हमें कोई देव नहीं दिखते; हमारे परम इष्ट सच्चे देव तो एक आप ही हो। परम सर्वज्ञ और वीतराग - ऐसे आपके अतिरिक्त अन्य किसी देव का हमारे अन्तर में स्थान नहीं है।

प्रभो! आपके दिव्यवैभव के आश्चर्य की अपेक्षा, हमें तो उस वैभव के बीच भी आपकी वीतरागता अधिक आश्चर्य उत्पन्न करती है। कहाँ ऐसा वैभव! और कहाँ ऐसी वीतरागता! अन्य सामान्य जीव तो बात-बात में रागी-द्वेषी-क्रोधी हो जाते हैं और स्त्री आदि विषयों में ललचा आते हैं, उनमें न तो वीतरागता है और न सर्वज्ञता ही है। उन्हें 'देव' कौन कहे? वीतराग और सर्वज्ञपने से सुशोभित देव तो एक आप ही हो। कोई देव विक्रिया से कदाचित् समवसरण आदि की रचना दिखाना चाहे तो भी हे प्रभो! जैसा अचिन्त्य प्रभाव आप में हैं, उसका लाखवाँ भागमात्र प्रभाव भी उसमें नहीं आ सकता। आपके पास तो साक्षात् इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं; मायावी रचना में वह सब कैसे होगा?

देखो तो सही, प्रभु का आकाशगमन; आकाश में चरणों के नीचे स्वर्ण-पुष्पों की रचना; मुख खोले बिना सर्वाङ्ग से खिरती निरक्षरी वाणी; केवलीपद में करोड़ों वर्षों तक अनाहारीपना – यह सब वैभव, शुद्ध जैन के अतिरिक्त कौन मानता है ? देखो, भगवान के भी भोजन होना माने, रोग माने, आकाश के बदले जमीन पर चलना माने, पुष्पवृष्टि के बदले प्रभु के ऊपर तेज लेश्या का शस्त्रप्रहार होना माने – ऐसे मत में रहनेवाला कोई जीव, सर्वज्ञ परमात्मा की सच्ची स्तुति नहीं कर सकता। अभी जिसे ऐसी बाह्य विभूति का भी विश्वास न हो, वह सर्वज्ञता और वीतरागतारूप अन्तरङ्ग वैभव को तो कैसे समझ पायेगा?

इस प्रकार, भगवान की आश्चर्यकारी स्तुतिरूप यह भक्तामर स्तोत्र, शुद्ध दिगम्बर जैन आम्नायवाले मानतुङ्गस्वामी की ही रचना है... और इसमें अत्यन्त सुन्दरता देखकर समस्त जैनों ने इसे अपनाया है।

तीर्थङ्कर भगवान को पहले साधकदशा में राग से तीर्थङ्करप्रकृति आदि उत्तम पुण्य बँधा, उस राग का उस समय भी उन्हें आदरभाव नहीं था और अब सर्वज्ञ होने के बाद उस पुण्य का फल पका, उसमें भी प्रभु को राग नहीं होता। जिसे राग का आदर होता है, उसे तो ऐसा उत्तम पुण्य बँधता ही नहीं। अन्तर के अनन्त चतुष्टयरूप चैतन्यवैभव के साथ-साथ तीर्थङ्कर भगवन्तों को बाहर में तीर्थङ्करपद की विभूति होती है। यद्यपि अन्य सामान्य केवलज्ञानी भगवन्तों को अन्तर का चैतन्यवैभव तो तीर्थङ्कर प्रभु के जैसा ही होता है, परन्तु बाहर का वैभव वैसा नहीं होता; फिर भी आकाशगमन, निराहारीपना आदि तो उनको भी होता ही है।

आत्मशक्ति की महिमा कोई अलौकिक है, उसका पूर्ण विकास होते ही, उसके साथ का बाह्य वैभव भी आश्चर्यकारी होता है। ऐसा कोई महान आश्चर्य इस जगत् में नहीं है कि जो पूर्ण परमात्मपद को प्राप्त भगवन्तों के पास नहीं हो! जगत् में सब आश्चर्यों में से सबसे अधिक आश्चर्य, अर्थात् अद्भुत से अद्भुत अथवा सभी आश्चर्यों से पार तो आत्मा का आनन्दस्वभाव और उसकी अनुभूति है; और हे देव! वह स्वभाव आपने ही प्रगट करके हमें दिखाया है। अन्य किसी देव को ऐसा स्वभाव प्रगट नहीं हुआ, तो वे कैसे दिखा सकते हैं? ऐसे आश्चर्यकारी आपको पहचानकर, जो सम्यक् स्तुति करता है, उसकी भव की बेड़ी टूट जाती है और वह आपके जैसा हो जाता है।

सम्यक्त्व के सन्मुख जीव

हे भगवान! जिसे आप प्राप्त हुए हैं, जिसे आपके प्रति भक्ति है, आपके द्वारा प्रतिपादित आत्मा की बात को जो रुचिपूर्वक सुनता है; वह जीव सम्यक्त्व के सन्मुख हुआ है, वह अल्पकाल में आत्मानुभव करेगा ही; अतः वह जीव भी कम बुद्धिवाला नहीं है। गृहीत मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा तो वह जीव भी बहुत आगे है। भले ही वर्तमान में उसे आत्मानुभव नहीं है, तथापि वह अनुभव की तैयारीवाला है; अतः वह जीव भी बहुत उत्कृष्ट है।

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-97


काव्य : 38

श्च्योतन्मदा विल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्तभ्रमद्-भ्रमरनाद विवृद्ध-कोपम्।
ऐरावता - मिभमुद्धतमापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ ३८॥

लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरन्तर मद की धार।
होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौरे गुञ्जार॥
क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल।
देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तब आश्रय तत्काल॥३८॥

काव्य : 38 पर प्रवचन

प्रभो! आपका भक्त तो मोक्ष का साधक है, उसे संसार का भय कैसा? अहा ! जिसके अन्तर में जिनदेव विराजते हैं, शुद्धात्मा विराजता है – ऐसे जिनभक्त को संसार में भिन्न -भिन्न भयों का अभाव होता है। उसमें पागल हाथी, क्रूर सिंह, दावानल, सूर्य, शत्रुसेना, युद्धभूमि, तूफानी समुद्र, जलोधर रोग या बेड़ी का बन्धन – इन सब भयों का अभाव बतानेवाले नौ श्लोक (38 से 46) कहते हैं; उनमें यह पहला श्लोक है; इस श्लोक का नाम है – 'गजभयभंजकस्तुति' । उसमें कहते है कि हे देव! मद झरता और भँवरे की गुजार से आकुल -व्याकुल ऐरावत जैसा बड़ा हाथी, पागल होकर क्रोधपूर्वक सूंढ ऊँची करके सामने दौड़ता आता हो तो भी आपका भक्त, भय पाकर अपने अन्तर में से आपको विस्मृत नहीं करता; इस प्रकार आपका आश्रय करनेवाले को पागल हाथी देखकर भी भय नहीं होता।

अरे, आपका भक्त तो चैतन्यभावना द्वारा अन्दर के क्रोधभाव को जीत लेता है, वहाँ बाहर के हाथी का भय कैसा? आत्मा की शान्ति में भय किसका?

अज्ञानी दुष्ट लोग कहते हैं कि 'हस्तिनां ताड्येदपि न गच्छेत् जिनमन्दिरे', अर्थात् हाथी मारने के लिए पीछे पड़ा हो तो भी जिनमन्दिर में नहीं जाना। (यह तो अज्ञानी की धर्मद्वेष की मिथ्याबात है) यहाँ तो कहते हैं कि तुझे हाथी के भय से बचना हो तो जिनेन्द्रदेव की शरण ले।

जिनदेव का भक्त, बाहर में पालग हाथी या क्रूर सिंह आदि उपसर्गों के बीच भी निर्भयरूप से हृदय में जिनभक्ति को नहीं भूलता। जिसका चित्त जिनगुणों में लगा हो, उसे बाहर का भय नहीं होता और जिनगुणों के चिन्तवन में विशुद्धपरिणाम होने से, उसे पूर्व के शुभकर्मों का रस बढ़ जाता है और अशुभकर्मों के रस की हानि हो जाती है; इसलिए उसके फल में कभी बाह्य उपसर्ग टल जाता है और देवादि उसका आदर करते हैं। (ब्रह्मचारी, सुदर्शन सेठ, यमपाल, चाण्डाल, सती सीता, सोमा, चन्दना, अञ्जना, द्रौपदी आदि के जीवन में ऐसे प्रसङ्ग प्रसिद्ध हैं।)

किसी के पुण्य का रस बढ़ने पर भी पूर्व का कोई उदय बाकी रह गया हो तो, मुनि जैसों को भी सिंह आदि खा जाते हैं अथवा अग्नि में जला देते हैं - ऐसे प्रसङ्ग भी बनते हैं। (पारवनाथ के पूर्व भव तथा पाण्डव मुनिराज आदि के जीवन में ऐसे प्रसङ्ग बने हैं) परन्तु ऐसे प्रसङ्ग में वे धर्मी जीव, भगवान जिनेश्वर के गुणचिन्तवन को या उनके वीतरागमार्ग को नहीं छोड़ते हैं, उसमें दृढ़ रहकर आराधना करते हैं; इसलिए उन्हें भी वे उपद्रव, धर्मसाधना में विघ्न नहीं कर सकते, वे निर्भयरूप बीच धर्मी जीव, जिनमार्ग को, अर्थात् ज्ञानचेतना को कभी नहीं छोड़ते; वे अपनी धर्मसाधना में निश्चल रहते हैं। उदयभावरूपी पागल हाथी को ज्ञानचेतना द्वारा वशीभूत कर लेते हैं।

भगवान पार्श्वनाथ का जीव पूर्वभव में हाथी था, एक बार वह पागल होकर तूफान / उपद्रव कर रहा था परन्तु मुनिराज को देखते ही शान्त हो गया और सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। रामचन्द्रजी के समय में त्रिलोकमण्डन हाथी पागल होकर दौड़ने लगा, परन्तु जब भरत ने शान्तदृष्टि से उसके सन्मुख देखा तो पूर्व भव के जातिस्मरणपूर्वक एकदम शान्त होकर खड़ा हो गया। वैशाली का हाथी पागल होकर दौड़ा, वहाँ महावीरकुमार उसके सन्मुख जाकर निर्भयरूप से खड़े रहे और उस पर शान्तदृष्टि करते ही वह एकदम शान्त हो गया। – ये सब महात्मा उस समय कोई भक्तामर का यह श्लोक नहीं बोल रहे थे, परन्तु उनके अन्तरङ्ग में जिनगुणचिन्तनरूप शान्त जिनभक्ति वर्तती थी, वहाँ सहज योग से ऐसा प्रसङ्ग बन गया।

अन्तर में आराधना होती है तो बाहर में ऐसे प्रसङ्ग किसी -किसी को बनते हैं, किसी को नहीं भी बनते, परन्तु धर्मी को अन्तर में ऐसा भय नहीं होता कि यह सिंह या हाथी मेरे सम्यक्त्वादि धर्म का नाश करेगा। वह शरीर को खा जाएगा या कुचल डालेगा तो भी मेरी धर्मसाधना नहीं छूटेगी, मेरे अन्तर में से जिनभक्ति नहीं छूटेगी; इस प्रकार जिनभक्ति 'गजभयभञ्जक' है।

प्रश्न - बहुत से मुनियों को पानी में पेल दिया गया तो क्या उनके अन्तर में जिनभक्ति नहीं थी?

उत्तर - थी, परन्तु किसी अशुभकर्म के उदय से ऐसा हुआ; फिर भी उस समय परमार्थ जिनभक्ति से चैतन्य के चिन्तवन में चित्त को जोड़कर, घानी के मध्य भी केवलज्ञान प्राप्त किया और तुरन्त उपसर्ग भी शान्त हो गया। बहुत से मुनियों में ऐसी शक्ति होती है कि वे विकल्पमात्र से उपसर्ग दूर कर सकते हैं। संगमदेव के उपसर्ग को एक सङ्कल्पमात्र से दूर करने की सामर्थ्य प्रभु पार्श्व मुनि में थी परन्तु उन्होंने बाह्य सङ्कल्प में नहीं रुककर, अन्दर चैतन्य के चिन्तवन में ही चित्त को एकाग्र करके केवलज्ञान प्राप्त किया। वहाँ उपसर्ग भी स्वतः शान्त हो गया। विकल्प करके उपसर्ग को दूर करने की अपेक्षा निर्विकल्प होकर उपसर्ग को शान्त किया, वह उत्तम है; इसलिए कहा है कि –

उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर कहे।
किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।*

(- समयसार, गाथा-198)

इस प्रकार कर्मों से भिन्न ज्ञायकस्वभाव की भावना ही धर्मी का मुख्य कार्य है और वही सच्ची जिनभक्ति है। यह अन्दर आत्मा के आनन्द के वेदनसहित की भक्ति है। आत्मस्वभाव का आश्रय करके ऐसी भक्ति, अर्थात् आत्मसाधना में मस्त जीवों को मदमस्त हाथी का भय भी नहीं होता।

हाथी कैसा? मदमस्त; कामवासना से जिसके कुम्भस्थल में से मद झरता है, भँवरे की गुंजार से परेशान होकर जो क्रोधित हुआ है, जो ऐरावत के समान बड़ा है और निरंकुशरूप से दाँतों को भीचता हुआ सूंड ऊँची करके सामने दौड़ता आता है –

* गुरु कहान को यह गाथा बहुत प्रिय थी, जीवन के अन्तिम दिवसों में भी उनके समक्ष ब्र. हरिभाई यह गाथा बोले थे और गुरुदेव ने प्रमोद व्यक्त किया था।]

ऐसे हाथी को देखकर भी, हे जिनेश! आपके चरणों का आश्रय करनेवाले को कोई भय नहीं होता तथा अन्तर में अशुभकर्मरूपी बड़ा हाथी उदय में आवे और प्रतिकूलता के ढेर हों तो भी निज चैतन्यस्वरूप की शरण लेकर, उसका आश्रय करनेवाला धर्मात्मा, उन कर्मों में नहीं फँसता।

हे देव! स्वभाव का शरण लेनेवाला आपका भक्त, कर्मों से डर जाता है या मार्ग से डिग जाता है - ऐसा नहीं होता, वह तो मार्ग से अच्यूत रहकर कर्मों की निर्जरा कर देता है। उसे कैसी प्रतिकूलता? प्रतिकूल संयोग, उसकी आराधना को दबा नहीं सकते हैं।

इस प्रकार समकिती जीव, नि:शङ्क और निर्भय होते हैं। बाहर में कदाचित् हाथी से डरकर भागते हों तो भी अन्तर में आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में वे निर्भय हैं, उन्हें स्वरूप के नाश की शङ्का नहीं होती। वज्रपात हो और सम्पूर्ण जगत् में खलबली हो जाए तो भी धर्मी जीव अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता और जिनमार्ग की शरण नहीं छोड़ता; इसलिए शास्त्र में कहा है कि जिसके अन्तर में दृढ़ जिनभक्ति है, उसे संसार का भय नहीं है।

इस प्रकार भक्तामर स्तोत्र में 'गजभयभञ्जक' नाम का 38 वाँ श्लोक कहा, अब 'सिंहभयभञ्जक' नाम का 39 वाँ श्लोक कहेंगे।